बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में अपने एक फै़सले में कहा है कि निजी अंगों को छूना और उसके होठों पर किस करना प्रथम दृष्टया अप्राकृतिक अपराध नहीं है। यह मामला मुंबई का है जहां एक नाबालिग लड़के के पिता ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377, 384, 420 और धारा 8 और 12 (POCSO) के तहत प्राथमिकी दर्ज़ कराई गई थी। द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक सर्वाइवर के पिता का आरोप है कि 17 अप्रैल 2021 को उन्हें अलमारी से कुछ पैसे गायब मिले। बेटे से पूछने पर पिता को पता चला कि उनका ‘ओला पार्टी’ नाम का एक ऑनलाइन गेम खेलता था और उस गेमिंग ऐप को रिचार्ज करने के लिए उसने आरोपी को पैसे दिए थे। नाबालिग ने अपने माता-पिता को यह भी बताया कि आरोपी ने उसका यौन शोषण भी किया था।
बॉम्बे उच्च न्यायालय की जस्टिस अनुजा प्रभुदेसाई के अनुसार, “सर्वाइवर के बयान के साथ-साथ प्रथम सूचना रिपोर्ट में प्रथम दृष्टया संकेत मिलता है कि आरोपी ने सर्वाइवर के निजी अंगों को छुआ था और उसके होंठों को चूमा था। मेरे विचार से, यह प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं होगा।” अदालत ने आरोपी को ज़मानत पर रिहा करते हुए कहा, “पॉक्सो अधिनियम की धारा 8 और 12 के तहत अपराध में अधिकतम पांच साल तक की कैद की सजा हो सकती है। आरोपी करीब एक साल से हिरासत में है। आरोप अभी तय नहीं हुआ है और निकट भविष्य में मुकदमा शुरू होने की संभावना नहीं है। उपरोक्त तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, आरोपी जमानत का हकदार है।”
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बॉम्बे उच्च न्यायालय का यह निर्णय और उसमें दी गयी टिप्पणी आलोचना का विषय बन गई है। पॉक्सो ऐक्ट बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए लाया गया था। पिछले कई सालों से भारत में बच्चों के ख़िलाफ़ यौन अपराधों में बढ़त हुई है। अपने विचारों और अपने साथ हो रही हिंसा या उत्पीड़न को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने में असमर्थता के कारण बच्चे समाज के सबसे महत्वपूर्ण हाशिए के समूहों में से एक हैं। बच्चों के खिलाफ़ होनेवाले यौन अपराध दुर्व्यवहार करनेवाले की उन पर काबू पाने की क्षमता के कारण बेहद मुश्किल से सामने आ पाते हैं। इसलिए बच्चों की सुरक्षा और सुरक्षा की ज़रूरत ने विधायिका को यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा (POCSO) अधिनियम, 2012 को पेश करने के लिए प्रेरित किया था।
पोक्सो अधिनियम, 2012 के संबंध में हाई कोर्ट्स के इन फैसलों ने इस कानून को निरर्थक बनाने का जोखिम उठाया है। POCSO अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाना है लेकिन इन न्यायालयों के कुछ निर्णय इसके उलट आरोपियों को बचाने के लिए काम करते प्रतीत होते हैं।
POCSO अधिनियम विशेष रूप से नाबालिगों और छोटे बच्चों की यौन अपराध से सुरक्षा के लिए बनाया गया था। यह अधिनियम अपराधियों को उच्च स्तर की सजा और सर्वाइवर को अन्य सुरक्षा उपाय प्रदान करता है। जगर सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य में न्यायालय ने यह अच्छी तरह से तय किया था कि जब किसी वाद में दो व्याख्याएं संभव हो, तो न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अदालत द्वारा नाबालिगों के पक्ष में व्याख्या को अपनाया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार, यौन उत्पीड़न के मामलों में न्यायालय को संवेदनशील होना चाहिए। यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 की धारा 30 के अनुसार आरोपी पर अपराधी मानसिक स्थिति का अनुमान है और आरोपी पर यह साबित करने की जिम्मेदारी है कि उसकी ऐसी कोई मानसिक स्थिति नहीं थी।
लेकिन इलाहबाद और बॉम्बे हाई कोर्ट जैसे कुछ न्यायालयों द्वारा पिछले एक साल में POCSO से सम्बंधित कुछ विवादास्पद फैसले दिए गए हैं जो कि पोक्सो अधिनियम की कमियों को उजागर करते हैं और साथ ही पोक्सो अधिनियम की अवहेलना भी करते हैं। पोक्सो अधिनियम, 2012 के संबंध में हाई कोर्ट्स के इन फैसलों ने इस कानून को निरर्थक बनाने का जोखिम उठाया है। POCSO अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाना है लेकिन इन न्यायालयों के कुछ निर्णय इसके उलट आरोपियों को बचाने के लिए काम करते प्रतीत होते हैं।
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ऐसा ही एक विवादास्पद फैसला पिछले साल बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला द्वारा दिया गया था, जिसमें बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा था कि “एक बच्चे के स्तन को उसके कपड़े हटाए बिना दबाना” POCSO अधिनियम की धारा 7 के तहत ‘यौन हमला’ नहीं माना जाएगा क्योंकि इसमें कोई ‘त्वचा-से-त्वचा’ का स्पर्श नहीं हुआ है। बाद में इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई जिस पर न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने फैसला सुनते हुए इस निर्णय को उलट दिया था।
ऐसे फैसले बच्चों के खिलाफ अपराधों के प्रति न्यायाधीशों को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता को भी दर्शाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “POCSO अधिनियम को लागू करने का उद्देश्य बच्चों को यौन शोषण से बचाना है, और अगर इस तरह की संकीर्ण व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह एक बहुत ही हानिकारक स्थिति को जन्म देगा, POCSO अधिनियम के उद्देश्य को कुंठित कर देगा, क्योंकि उस मामले में किसी बच्चे के शरीर के यौन या गैर-यौन अंगों को दस्ताने, कंडोम, चादर या कपड़े से छूना, भले ही यौन इरादे से किया गया हो, पॉक्सो अधिनियम की धारा 7 के तहत यह अपराध नहीं होगा। अधिनियम की धारा 7 के तहत यौन हमले के अपराध को गठित करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक ‘यौन इरादा’ है, न कि बच्चे के साथ ‘त्वचा से त्वचा’ का संपर्क।
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यूनाइटेड किंगडम में, यौन अपराध अधिनियम, 2003 की धारा 79(8), ‘स्पर्श’ शब्द को परिभाषित करती है जिसमें (i) शरीर के किसी भी हिस्से के साथ, (ii) किसी और चीज़ के साथ, (iii) किसी भी चीज़ के माध्यम से, और विशेष रूप से, स्पर्श करना शामिल है, इसमें पेनिट्रेशन भी शामिल है। वहीं, दूसरी ओर भारतीय आपराधिक कानून स्पष्ट रूप से “स्पर्श” शब्द को परिभाषित करने में विफल हैं, जिससे हास्यास्पद व्याख्याओं की गुंजाइश बच जाती है और न्यायालय ऐसा कर भी चुके हैं। भारतीय संहिताओं में समान प्रकृति की एक स्पष्ट परिभाषा भविष्य में इस प्रकार की हास्यास्पद व्याख्याओं को रोक सकती है ओर बच्चों को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
पिछले ही साल, इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले में विवादास्पद टिप्पणी की गई कि एक नाबालिग के साथ ओरल सेक्स POCSO अधिनियम के तहत ‘गंभीर यौन हमला’ की श्रेणी में नहीं आता है। इस फैसले के बाद, 10 वर्षीय लड़के के यौन उत्पीड़न के दोषी व्यक्ति की जेल की अवधि कम कर दी गई थी। यह मामला झांसी की एक 10 वर्षीय सर्वाइवर का था, जिसे आरोपी ने जबरन ओरल सेक्स करने के लिए मजबूर किया था। उसने अपना पेनिस सर्वाइवर के मुंह में ड़ाल दिया था और जबरन ओरल सेक्स करने के लिए मजबूर किया था। निचली अदालत ने आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 5/6 के तहत ‘गंभीर यौन हमला’ करने के लिए दोषी ठहराया था, जबकि उच्च न्यायालय ने कहा कि यह कार्य केवल ‘पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट’ है और इसलिए यह POCSO अधिनियम की धारा 4 के तहत आता है जिसमें केवल 7 साल की कैद की सजा है।
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बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच द्वारा एक और चौंकाने वाले फैसले में कहा गया, “यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) के तहत “लड़की का हाथ पकड़ना और पैंट की ज़िप खोलना पोक्सो अधिनियम 2012 के तहत यौन हमले की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आएगा।” इसके बजाय यह अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 354-ए (1) (i) के तहत “यौन उत्पीड़न” के दायरे में आता है। इस वाद में न्यायमूर्ति पुष्पा वी गनेडीवाला की एकल न्यायाधीश पीठ ने फैसला सुनाया और कहा कि पॉक्सो अधिनियम के तहत “यौन हमले” की परिभाषा के अनुसार, “प्रवेश के बिना यौन इरादे से शारीरिक संपर्क” अपराध के लिए एक आवश्यक घटक है।
एक नाबालिग के यौन उत्पीड़न के मामलें में अधिनियम को अमान्य बनाने और इसके बजाय आईपीसी लागू करने में, माननीय अदालत ने पॉक्सो के विधायी इतिहास और उद्देश्यों की अवहेलना की है। एक अमान्य तकनीकी के आधार पर बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा निर्धारित व्याख्या, अपराधियों के लिए अपराध की सजा को कम कर देगी। इसलिए, अदालत द्वारा दी गई व्याख्या भी क़ानून के विचार के खिलाफ जाती है।
POCSO अधिनियम बच्चों को विभिन्न प्रकार के यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था, इसमें वे अपराध भी शामिल हैं जो IPC के अंतर्गत नहीं आते हैं। धारा 7 के तहत उल्लिखित वाक्यांश ‘अन्य कृत्यों’ को क़ानून के विधायी इरादे को ध्यान में रखते हुए पढ़ा जाना चाहिए। इलाहाबाद और बॉम्बे उच्च न्यायालय के पिछले कुछ निर्णय विधायी इरादे को कुचलते नज़र आ रहे हैं। इसके अलावा, न्यायालय द्वारा किसी अपराधी को एक अधिनियम के तहत एक ही सामग्री वाले अपराध से बरी करना और उसे एक अलग अधिनियम के तहत दोषी ठहराना न्यायिक अनुशासन की एक बुरी मिसाल है। अगर वाद के तथ्यों और अदालत की टिप्पणी को ध्यान से समझा जाए तो यह प्रतीत होता है कि अदालत ने क़ानून की व्याख्या में गलती की है। पहले ही बच्चों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में अदालतों की ये टिप्पणियां आपराधिक मनोस्थिति वाले व्यक्तियों का मनोबल ही बढ़ाएंगी। ऐसे फैसले बच्चों के खिलाफ अपराधों के प्रति न्यायाधीशों को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता को भी दर्शाते हैं।
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तस्वीर साभार: LawLex.org
आपराधिक मनोस्थिति सबसे महत्वपूर्ण घटक समझा जाने की आवश्यकता है। विधिक संशोधन या अतिरिक्त प्रावधान की सरंचना में इसी घटक को मूल रूप से समक्ष रखते हुए कानून बनाना चाहिए।