संस्कृतिकिताबें अंतरराष्ट्रीय बुकर से पुरस्कृत गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल के बहाने हिंदी-साहित्य की पुरस्कार राजनीति पर बात

अंतरराष्ट्रीय बुकर से पुरस्कृत गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल के बहाने हिंदी-साहित्य की पुरस्कार राजनीति पर बात

गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल को इस साल का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। यह पहली बार हुआ है जब भारतीय भाषा की किसी कृति को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया है। किसी दक्षिण एशियाई भाषा की रचना को अंतरराष्ट्रीय बुकर मिलना भी पहली बार ही हुआ है।

एक दृश्य की कल्पना कीजिए, जिसमें दो औरतें हाथ थामे एक मंच की ओर बढ़ रही हो और पार्श्व में तालियों की गड़गड़ाहट इतनी तेज़ हो कि बाकी सब कुछ गौण हो जाए। वे दोनों हल्की, सधी चालों से मंच पर चढ़ें और पूरी दुनिया की नज़रें उनसे फूटने वाले शब्दों को सुनने के इंतेज़ार में उन पर टिकी रहें। यह अब कल्पना में बनाया कोई दृश्य नहीं रह गया है बल्कि हक़ीक़त है। इसमें दो औरतें हैं ‘रेत समाधि’ की लेखक गीतांजलि श्री और ‘टूम ऑव सैंड’ नाम से उनकी पुस्तक की अनुवादक डेज़ी रॉकवेल। यह मंच है अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार का और पार्श्व की तालियां अंतरराष्ट्रीय बिरादरी द्वारा इन महिलाओं के सम्मान में बजाई जा रही हैं। गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल को इस साल का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। यह पहली बार हुआ है जब भारतीय भाषा की किसी कृति को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया है। किसी दक्षिण एशियाई भाषा की रचना को अंतरराष्ट्रीय बुकर मिलना भी पहली बार ही हुआ है।

आइए समझते हैं बुकर पुरस्कार

बुकर पुरस्कार, जिसे 1969 से 2001 तक बुकर मकॉनल या बुकर कहा गया, 2002 में जब मान समूह इसका प्रायोजक बना, यह मानबुकर पुरस्कार कहा जाने लगा। 2019 में मान समूह के प्रायोजक से हटने पर यह फ़िर से बुकर पुरस्कार हो गया। यह पुरस्कार हर साल अंग्रेज़ी में लिखित और यूनाइटेड किंगडम में प्रकाशित उपन्यास को दिया जाता है। हालांकि, 2014 तक यह केवल राष्ट्रमंडल देशों, आयरलैंड और दक्षिण अफ़्रीका के लेखकों को दिया जाता था लेकिन बाद में इसकी सीमा को ख़त्म करते हुए यह तय किया गया कि दुनियाभर में अंग्रेज़ी में लिखित कोई भी उपन्यास इसको पाने की दौड़ में शामिल हो सकता है। बुकर के लगभग पांच दशकों के इतिहास में इसके नियम व कायदों में तमाम बदलाव आए। इसी कड़ी में साल 2005 में अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की स्थापना हुई। यह पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय भाषा में लिखित किसी भी उपन्यास के अंग्रेज़ी अनुवाद, जो कि यूनाइटेड किंगडम में प्रकाशित हो, को दिया जाता है।

गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल को इस साल का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार दिया गया है। यह पहली बार हुआ है जब भारतीय भाषा की किसी कृति को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया है। किसी दक्षिण एशियाई भाषा की रचना को अंतरराष्ट्रीय बुकर मिलना भी पहली बार ही हुआ है।

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2005 से 2015 तक यह पुरस्कार किसी भी राष्ट्रीयता के जीवित लेखक को अंग्रेज़ी में अनूदित उसके काम के लिए हरेक दो साल पर दिया जाता था। इसके अंतर्गत किसी कृति-विशेष की जगह लेखक की ‘निरंतर रचनात्मकता, विकास और विश्व मंच पर कथा साहित्य में उसके समग्र योगदान’ को पुरस्कृत किया जाता था। 2016 में इसमें बदलाव लाते हुए इसे किसी कृति विशेष के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार कर दिया गया। इस तरह गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल किसी भारतीय भाषा में लिखित कृति के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय बनी हैं।

अगर बात करें बुकर पुरस्कारों की तो भारतीयों में सबसे पहले यह ‘अ फ़्री स्टेट’ के लिए वी.एस नायपॉल (त्रिनिदाद में जन्मे) को 1971 में दिया गया था। उनके अलावा ‘मिडनाइट्’स चिल्ड्रेन’ के लिए 1981 में सलमान रुश्दी को, ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के लिए 1997 में अरुंधति रॉय को, 2006 में ‘द इन्हेरीटेन्स ऑफ लॉस’ के लिए किरण देसाई को और ‘द व्हाइट टाइगर’ के लिए अरविंद अडिगा को साल 2008 में दिया गया है। ये सभी किताबें मूलरूप से अंग्रेज़ी भाषा में लिखी गई हैं। बुकर और अंतरराष्ट्रीय बुकर दोनों के लिए दी जाने वाली पुरस्कार राशि 50,000 यूरो है। अंतरराष्ट्रीय बुकर में यह राशि लेखक और अनुवादक दोनों को साझे में मिलती है।

गीतांजलि श्री और डेज़ी को यह पुरस्कार मिलना निश्चित रूप से सुखद है। इस बात पर गर्व किया जाना भी ठीक है कि साहित्यिक दुनिया का इतना चर्चित-प्रतिष्ठित पुरस्कार किसी हिंदी रचना को मिला है और इसे दो औरतों ने जीता है लेकिन इसी लहर के दौरान अपने देश मे दिए जाने वाले साहित्यिक पुरस्कारों की स्थिति पर गौर करना और रियलिटी चेक लेना ज़रूरी है। हिंदी की बात हो ही रही है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार- हिंदी का इतिहास देख लेना अहम हो जाता है। साल 1954 से शुरू हुए इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के अब तक के 66 सालों के इतिहास में केवल 6 बार ऐसा हुआ है जब यह महिलाओं को दिया गया है। उसमें भी इसके स्थापित होने के 25 साल बाद (1980 में) पहली बार यह किसी स्त्री (कृष्णा सोबती) को दिया गया था। तो क्या यह मान लें कि इन 25 सालों तक हिंदी साहित्य में औरतें ऐसा कुछ नहीं लिख रही थीं जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाए?

बात सुगमता से उपलब्ध होने और लेखकीय पहुंच की हो रही है तो यह देखना अहम हो जाता है कि एक ऐसे समय में, जब बहुत सी स्त्रियां सक्रिय रूप से लेखन कर रही हैं, उस समय भी उन्हें पुरुषों के समान ‘पॉपुलैरिटी’ क्यों नहीं मिलती?

इतना ही नहीं यह भी देखिए कि कृष्णा सोबती के बाद फिर से 21 साल के अंतर के बाद 2001 में अलका सरावगी दूसरी महिला बनीं जिन्हें साहित्य अकादमी-हिंदी पुरस्कार मिला। 2001 के बाद फिर 12 साल के बड़े अंतर के बाद मृदुला गर्ग को यह पुरस्कार दिया गया। वहीं, उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए जाने वाले सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ‘भारत-भारती’, जो कि 1981 से शुरू हुआ है, के लगभग 40 साल के इतिहास में केवल तीन बार यह स्त्री लेखकों को दिया गया है, उसमें भी 2018 से पहले केवल महादेवी वर्मा (1981 का भारत-भारती) को यह पुरस्कार दिया गया था। अन्य प्रमुख साहित्यिक पुरस्कारों, मसलन शलाका सम्मान, व्यास सम्मान आदि की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है।

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समस्या यह है कि यह सब लंबे समय से हमारे बीच मौजूद है, इसके बावजूद इन सब पर हमारी भौहें कभी नहीं सिंकुड़तीं; क्योंकि कुछ भी पूछने पर मेरिट का झुनझुना हमारे माथे पर पटक दिया जाता है। दरअसल, जब-जब प्रतिनिधित्व और रिकग्निशन का सवाल उठता है, उसे मेरिट के हथौड़े से तोड़ने की कोशिश की जाती है। असल में, अधिकतर पुरस्कार इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि सामाजिक दायरों में अलग-अलग समुदाय और वर्गों से आने वाले लोग किस तरीक़े से अपनी गति तय कर रहे हैं। जो समाज में आगे हैं, वह इधर भी आगे हैं। इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा कहती हैं कि पुरस्कारों की अपनी एक राजनीति है जिसमें किसकी पहुंच कहां तक है और किसका लेखन सुगमता से उपलब्ध है, यह बहुत अधिक महत्व रखता है। आप देखिए निर्मला पुतुल की किताबें कितनी ‘ऐक्सेसिबल’ हैं। वह आगे कहती हैं, “रेत समाधि के लिए बुकर मिलना अच्छी बात है लेकिन अगर उचित अवसर और एक समान रिकग्निशन मिले तो इसी हिंदी-साहित्य की 100 ऐसी कृतियां होंगी, जिन्हें बुकर मिल सकता है।”

अब जब बुकर मिलने पर हिंदी साहित्यिक जनता लहालोट हो रही है, तमाम लिटरेरी पेज और राजकमल प्रकाशन हर दिन गीतांजलि श्री की कृतियों, पंक्तियों को साझा करते-भुनाते थक नहीं रहे हैं, एक बड़ा सवाल यह भी है कि आख़िर ऐसा क्यों है कि एक बड़ा पाठक समूह रेत समाधि छोड़िए, पुरस्कृत लेखक की एक भी किताब से परिचित नही हैं।

बात सुगमता से उपलब्ध होने और लेखकीय पहुंच की हो रही है तो यह देखना अहम हो जाता है कि एक ऐसे समय में, जब बहुत सी स्त्रियां सक्रिय रूप से लेखन कर रही हैं, उस समय भी उन्हें पुरुषों के समान ‘पॉपुलैरिटी’ क्यों नहीं मिलती? इसे एक उदाहरण से समझते हैं। कुछ समय पहले हिंदी में अपनी तरह का एक नया प्रयोग हुआ, जब दैनिक जागरण और नीलसन समूह एकसाथ आए और उन्होंने बेस्टसेलर लिस्ट निकालना तय किया। इस लिस्ट में वे किताबें शामिल की गयीं जिनका पहला संस्करण 1 जनवरी, 2011 के बाद प्रकाशित हुआ था। इसमें तीन श्रेणियाँ कथा, कथेतर और अनुवाद शामिल थीं। इसकी पहली श्रृंखला, जो अप्रैल-जून 2017 की तिमाही के लिए तैयार की गयी थी, में तीन श्रेणियां शामिल थीं- कथा, कथेतर और अनुवाद। ज्ञात हो कि दी गयी तिमाही में, कुल तीस रचनाओं में ‘कथा’ शीर्षक के अंतर्गत एक स्त्री लेखक, ‘कथेतर’ में शून्य और ‘अनुवाद’ में एक स्त्री अनुवादक की भागीदारी थी। बाद में जारी होने वाली लिस्ट में भी कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता।

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इस बारे में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हिंदी-लिटरेरी पेज रचयिता द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘स्त्रीवाद का ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ में बोलते हुए ‘स्त्री निर्मिति’ और ‘आलोचना का स्त्री पक्ष: पद्धति, परंपरा और पाठ’ जैसी किताबों की लेखक सुजाता भी कहती हैं, “हिंदी में स्त्री लेखक की किताबों की पठनीयता अब भी बहुत कम है।”यह आजमायी हुई बात है कि हिंदी के अधिकतर (लगभग सारे ही) पाठक(कों) का पहला परिचय पुरुष-लेखक से होता है। साहित्यिक समागमों और गोष्ठियों में भी पुरुष लेखकों की ही भागीदारी अधिक होती है। साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन में भी पुरुषों की ही अधिकता है। ऐसे में एक आम धारणा यह बन जाती है कि पुरुष-लेखक ही बेहतर लेखक, संपादक, आलोचक है। यह बिल्कुल वैसी ही धारणा है कि लड़कियों को गणित नहीं आती या वे विज्ञान में कमज़ोर होती हैं और इसी सोशल कंस्ट्रक्ट का नतीजा है कि स्त्रियां भी जब पढ़ना शुरू करती हैं तो पुरुषों को ही पढ़ती हैं और फिर उन्हीं के चश्मों से समाज को देखने लगती हैं। अब जब बुकर मिलने पर हिंदी साहित्यिक जनता लहालोट हो रही है, तमाम लिटरेरी पेज और राजकमल प्रकाशन हर दिन गीतांजलि श्री की कृतियों, पंक्तियों को साझा करते-भुनाते थक नहीं रहे हैं, एक बड़ा सवाल यह भी है कि आख़िर ऐसा क्यों है कि एक बड़ा पाठक समूह रेत समाधि छोड़िए, पुरस्कृत लेखक की एक भी किताब से परिचित नही हैं।

ऐसा क्यों है कि आलोचना में महादेवी का लिखा उतनी सहजता से नहीं पढ़ा/ पढ़ाया जाता जितना रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा या नामवर सिंह। इस संबंध में एक और बात का ज़िक्र महत्वपूर्ण हो जाता है। किसी भी साहित्यिक विद्यार्थी के कमरे में जाकर साहित्य के इतिहास और आलोचना संबंधी किताबें देखिए। वहीं से साहित्य में निहित जाति, वर्ग और लिंग की समूची राजनीति खुलकर आपके सामने आ जाएगी। इस बात के साथ तथ्य के रूप में यह जानना भी अहम है कि हिंदी आलोचना के क्षेत्र में दिया जाने वाला प्रतिष्ठित देवी शंकर स्मृति सम्मान, जो कि हर साल समकालीन आलोचना के क्षेत्र में योगदान के लिए दिया जाता है, अपने 27 साल के इतिहास में केवल एक बार (2009 में) प्रमिला के. पी को ‘कविता का स्त्रीपक्ष’ के लिए दिया गया है। यह हिंदी जनता जो गीतांजलि और डेज़ी के पुरस्कृत होने पर गर्व से नहीं समा रही है, क्या इस पक्ष पर भी कभी सोचती है या इस सवाल के बाद फिर से उसी तरह से मेरिट के आधार पर रिटटैलिएट किया जाएगा जैसे आरक्षण के मसले पर होता है?

बहरहाल, गीतांजलि श्री और डेज़ी रॉकवेल का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतना निश्चित तौर पर सुखद है, लेकिन इस पर ख़ुश होने के साथ ही यह समझना जरूरी है कि इस अवसर को पाने में उनकी व्यक्तिगत और सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी का योगदान अधिक है। बहुत सारे लोग, जो बेहतर कह-सुन रहे हैं, लेकिन उनके पास पहचान आधारित विशेषाधिकार न होने से वे इन अवसरों से वंचित हैं। इसलिए संबंध में लेखक से उम्मीद बढ़ जाती है कि एक महिला उपन्यासकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय रिकग्निशन मिलने पर आप उस चीज़ को अपनी आगे आने वाली लेखकीय पीढ़ी तक कैसे स्थानांतरित कर रहे हैं। आपके पास जो सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी है, क्या आपको उसका बोध है और अगर है तो आप कितने समावेशी तरीक़े से उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहते हैं-क्या आप इस व्यक्तिगत-नैतिक दुविधा से जूझते हैं?

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तस्वीर साभार: BBC

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