माहा लक़ा चंदा 18वीं सदी की पहली मशहूर ऊर्दू शायरा थीं। साथ ही वह पहली महिला थी जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को एक किताब की शक्ल दी थी। माहा की पैदाइश 4 अप्रैल, 1768 को हैदराबाद में हुई थी। माहा लक़ा चंदा को लिखने, गीत-संगीत का हुनर उनकी मां से मिला था। उनकी माँ का नाम राज कुंवर बाई था जो नृत्य और संगीत की कला में पारंगत थीं।
उनकी माँ राज कुंवर बहादुर खान के दरबार की एक मशूहर तवायफ़ थीं। बहादुर ख़ान, बहादुर शाह ज़फर की सेना में अधिकारी के ओहदे पर काम किया करते थे। माहा लक़ा चंदा खुद भी एक शायरा के साथ-साथ कथक नर्तकी और एक योद्धा थीं। माहा लक़ा चंदा उस ज़माने के काफी रईस परिवार से ताल्लुक रखती थीं, इसलिए उन्होंने शिक्षा से लेकर कई तरह की कौशल हासिल की। उस दौर में एक महिला को शिक्षित होते देखना एक आश्चर्यजनक बात हुआ करती थी लेकिन जब चांद ने संगीत और कविताओं में अपनी दिलचस्पी दिखाई तो कुशल ख़ान कलवंत उनके गुरु बन गाए। वह मशहूर संगीतकार तानसेन के पोते थे।
चंदा की दिलचस्पी सिर्फ साहित्य और कला में नहीं थी बल्कि उस ज़माने में भी वह लड़कियों की शिक्षा की पैरोकार थीं। उन्होंने उस जमाने में एक सांस्कृतिक सेंटर की स्थापना की थी और उस सेंटर में 300 लड़कियों को शिक्षा देने का काम किया जाता था। चंदा ने उस समय में इतना कुछ हासिल किया जिस समय में महिलाओं को इन सब चीजों का ख़्वाब देखने तक की भी इजाज़त नहीं थी।
और पढ़ें: अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करें
चंदा की दिलचस्पी सिर्फ साहित्य और कला में नहीं थी बल्कि उस ज़माने में भी वह लड़कियों की शिक्षा की पैरोकार थीं। उन्होंने उस जमाने में एक सांस्कृतिक सेंटर की स्थापना की थी और उस सेंटर में 300 लड़कियों को शिक्षा देने का काम किया जाता था। चंदा ने उस समय में इतना कुछ हासिल किया जिस समय में महिलाओं को इन सब चीजों का ख़्वाब देखने तक की भी इजाज़त नहीं थी।
चंदा की पहली ज़ुबान उर्दू थी लेकिन उन्हें अरबी, फ़ारसी और भोजपुरी भाषा का भी ज्ञान था। उनकी गजलों में हमें इश्क, वफ़ा, साज़िश और दुश्मनी का अक्स अक्सर नज़र आता है। लेकिन उनकी कविताओं में सूफ़ी संतों के प्रति उनकी भक्ति की झलक भी दिखाई देती थी। उन्होंने अपने गज़लों की किताब छपवाई जिसका नाम ‘गुलज़ार-ए-महलका’ रखा। उन्होंने यह किताब साल 1798 में लिखा और इस किताब में 39 गज़लें थीं। लेकिन उनकी यह किताब साल 1824 में उनकी मौत के बाद ही छप पाई।
माहा ने अपने गज़लों की किताब छपवाई जिसका नाम ‘गुलज़ार-ए-महलका’ रखा। उन्होंने यह किताब साल 1798 में लिखा और इस किताब में 39 गज़लें थीं। लेकिन उनकी यह किताब साल 1824 में उनकी मौत के बाद ही छप पाई।
चंदा को तीरंदाजी और घुड़सवारी बहुत अच्छे से आती थी और यह बात उस समय की महिलाओं के लिए बहुत बड़ी बात थी। ख़ास बात यह थी कि उन्होंने ये सब महज़ 14 साल की उम्र में सीखा था। उनके इन हुनर के कारण मीर निज़ाम अली ख़ान माहा को तीन युद्धों में ले गए। चंदा ने पुरुषों के भेष में निजाम के साथ तीन युद्ध लड़े थे। इन तीन युद्धों में उनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर उन्हें ज़मीन के कई टुकड़े पुरस्कार के रूप में दिए गए। उस दौर में ज़मीन एक औरत के पास होना एक बड़ी बात होती थी। चूंकि उन्होंने कभी शादी नहीं की थी, उनकी पूरी जायदाद जीवनभर उनके पास रही और उनकी मौत के बाद सब कुछ हैदराबाद की औरतों को दान कर दिया गया। बता दें कि वह निजाम के साथ शिकार पर भी जाया करती थीं। निजाम ने चंदा को ‘ओमराह’ की पदवी से नवाजा था। इस पदवी का मतलब यह था कि चंदा न सिर्फ दरबार में जा सकती थी बल्कि वह निजाम को राजनीतिक मसलों पर सलाह भी दे सकती थी। निजाम ने चंदा की सुरक्षा में कई सिपाही भी तैनात किए थे।
1824 में उनकी मौत के बाद उन्हें उनकी माँ के बगल में ही दफनाया गया। उस ज़माने में किसी भी तवायफ़ को यह रुतबा मिल पाना बहुत मुश्किल था लेकिन चंदा में इतनी सारी खूबियां थी की उन्हें इस तरह का रुतबा और सम्मान हासिल हुआ। चंदा सशक्त महिलाओं के रूप में हमेशा मशहूर रहीं। माहा लका चंदा ने कला कौशल के क्षेत्र में हैदराबाद रियासत में अपना एक अलग ही रुतबा बनाया लेकिन आज के इतिहास में चंदा का नाम गुम सा हो गया है।
और पढ़ें: वे पांच बेबाक लेखिकाएं जिन्होंने रूढ़िवादी समाज को आईना दिखाया