साल 2011 की ज़नगणना के अनुसार भारत में कुल 2.2 फ़ीसद आबादी विकलांगता के साथ जी रही है यानी कुल 2.68 करोड़ भारतीय विकलांग हैं, जो की आस्ट्रेलिया की पूरी जनसंख्या से भी ज़्यादा है। ये वह आबादी जिसे कभी हम ‘बेचारा’ कहकर टाल देते हैं तो कभी ‘दिव्यांग’ कहकर नज़रंदाज़ कर देते हैं। लेकिन इस आबादी को हम पूरी तरह देश का नागरिक होने का दर्जा नहीं दे पाते हैं। वास्तव में विकलांगता को आज भी अपने भारतीय समाज में अभिशाप माना जाता है। यही वजह है कि विकलांगजनों का जीवन अन्य की अपेक्षा ज़्यादा संघर्षपूर्ण बन जाता है। समाज की इस मान्यता ने हमेशा से विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के बुनियादी अधिकार को प्रभावित करने और उन्हें इससे वंचित करने में अहम भूमिका अदा की है, जिसके चलते विकलांगजनों को के प्रति समाज का एकमात्र ‘दया भाव’ ही उनकी भावनाओं के तौर पर सामने आता है।
विकलांगता के कई प्रकार हैं, कुछ विकलांगता शारीरिक होती है, तो कुछ मानसिक और कुछ मनोसामाजिक। शारीरिक और मानसिक विकलांगता कई बार जन्म से होती है, तो कई बार ये किसी दुर्घटना या विकार के चलते होती है। लेकिन इस प्राकृतिक अवस्था को समाज में अभिशाप का रूप में हमारी सामाजिक व्यवस्था मज़बूती से काम करती है, जिसको समझे बिना हम किसी भी बदलाव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। अपने समाज में जब हम विकलांगता के मुद्दे पर सामाजिक बदलाव की बात करते हैं तो इसके लिए हमें अलग-अलग आयामों पर काम करने की ज़रूरत है। इसकी शुरुआत हमें अपने आपसे करनी होगी, क्योंकि खुद में बदलाव और बुनियादी समझ के बग़ैर हमलोगों की हर पहल सतही है। तो आइए हम चर्चा करते हैं, कुछ उन बुनियादी कदमों की जो विकलांगता में किसी भी पहल के लिए बेहद ज़रूरी हैं।
विकलांगता और यौनिकता का जुड़ाव
‘वो लड़की हाथ से विकलांग थी। इसलिए उसकी शादी मूक बधिर लड़के से कर दी गयी।‘
‘वो तो पैर से विकलांग है, उसको सजने की क्या ज़रूरत।‘
‘मानसिक रूप से विकलांग लड़की के साथ कौन डेट करेगा भला।‘
‘वो तो देख नहीं सकती। पढ़कर क्या करेगी।‘
विकलांगता के साथ जी रहे लोगों से जुड़ी ऐसी बातें आपने भी ज़रूर सुनी होंगी। जब उनकी शादी, रिश्ते, जीवनशैली, पहनावे, शिक्षा और यौनिकता से जुड़े अहम सवालों का जवाब सामाजिक व्यवस्था की तरफ़ से दिया जाता है, और उसी के अनुसार उन्हें ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता है। हमें ये समझना होगा कि, विकलांगता एक अवस्था है और उस अवस्था के साथ जी रहे हर इंसान के अपने मौलिक अधिकार है, जो उसे अपनी यौनिकता के अनुसार ज़िंदगी जीने का अधिकार देते है। ऐसे में जब कोई और उनकी यौनिकता से जुड़े फ़ैसले लेने लगे तो ये पूरी तरह ग़लत है। ऐसे में जब हम विकलांगता के मुद्दे पर बदलाव की कल्पना करते है तो हमें ये अच्छी तरह समझना होगा कि हर इंसान की तरह विकलांगता के साथ जीने वाले लोगों की भी यौनिकता होती है और जिसपर उनका अपना अधिकार होता है। इसलिए उनकी यौनिकता से जुड़े हर फ़ैसले लेने का अधिकार सिर्फ़ उनका है और हमें उसका सम्मान करना चाहिए।
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‘कभी भी उस इंसान को असक्षम नहीं कहा जाता, जिसे साइन लैंग्वेज नहीं आती।‘ इसलिए बदलाव की पहल से पहले हमें अच्छी तरह समझ लेना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज के बताए सक्षम के मानक में हम विकलांगज़न को बैठाने के फेर में हम उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों से तो दूर नहीं कर दे रहे।
सक्षमता और असक्षमता की समझ
‘वो सीढ़ी चढ़ने में असक्षम है। क्योंकि वो पैरों से विकलांग है।‘
‘वो मोबाइल चलाने में सक्षम नहीं है, क्योंकि वो मूकबधिर है।‘
याद कीजिए कि आपने अपने जीवन में पहली बार किस विकलांग को देखा था?
इसके जवाब में अधिकतर ये सामने आता है कि स्कूल, सड़क या आसपास विकलांगज़न को हम पहली बार देखते है, जिसमें ज़्यादातार वे किसी पर आश्रित होते है। फिर वो पैर से विकलांग बच्चे को स्कूल ले जाने और वापस लाने को ज़िम्मेदार उसके पिता या भाई हो। या फिर आँख से विकलांग बच्चे को सहारा देते बड़े भाई। कहने का मतलब ये कि विकलांग लोगों को हमारी पहली छवि ज़्यादातर यही होती है जब हम समाज के बताए किसी सक्षम इंसान को विकलांगता से जी रहे इंसान को सहारा देते देखते है।
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में हमेशा से एक आदर्श फ़्रेम को फ़ालों करने का दबाव दिया जाता है और उस आदर्श फ़्रेम में खुद को ढालने की कंडिशनिंग बचपन से ही शुरू हो जाती है, ऐसे में जो लोग इस आदर्श फ़्रेम में फ़िट नहीं होते समाज उन्हें असक्षम का नाम देता है। फिर चाहे वो सीढ़ियाँ चढ़ने में असक्षम विकलांगज़न को कहा जाए या फिर बच्चे को जन्म देने में असक्षम पुरुष। ग़ौरतलब है कि समाज ‘सक्षम और असक्षम’ के नामपर समाज में विभाजन का खेल खेलता है, जिसमें समाज के घोषित सक्षम लोगों को सभी अधिकार और उनकी तरफ़ से घोषित किए गए असक्षम लोगों को सभी अधिकारों से वंचित किया जाता है। ये आदर्श वाला गेम इतनी बारीकी से खेला जाता है कि यहाँ ‘कभी भी उस इंसान को असक्षम नहीं कहा जाता, जिसे साइन लैंग्वेज नहीं आती।‘ इसलिए बदलाव की पहल से पहले हमें अच्छी तरह समझ लेना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज के बताए सक्षम के मानक में हम विकलांगज़न को बैठाने के फेर में हम उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों से तो दूर नहीं कर दे रहे।
संवेदनशील भाषा का ख़ास ध्यान
भाषा किसी भी विचारधारा को प्रभावी ढंग से धरातल पर लाने का काम करती है। ऐसे में जब हम ‘अपंग सरकार’ ‘अंधाक़ानून’ ‘अंधविश्वास’ जैसे अलग-अलग शब्द का इस्तेमाल करते है या फिर अंधा, लंगड़ा जैसे शब्दों का इस्तेमाल आम बोलचाल की भाषा में करते है तो विकलांगता के प्रति नकारात्मक छवि बनाने में हमेशा से अहम भूमिका अदा करते आए है। ऐसे में ज़रूर होता है कि अगर हम विकलांगता के मुद्दे पर सामाजिक बदलाव की पहल करते है तो इसके लिए हमारी भाषा भी संवेदनशील होनी चाहिए। साथ ही, हम विकलांगता को एक रोग की बजाय एक अवस्था के तौर पर समझे जो बदल भी सकती है। ऐसे में विकलांग लोगों को पीड़ित की बजाय सरवाइवर के तौर पर देखना, समझना और उनसे बात करना चाहिए।
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विकलांगता पर हावी पितृसत्ता और विकलांग महिलाओं के दोहरे संघर्ष
जैसा कि हम जानते है पितृसत्ता महिला-पुरुष में भेदकर उन्हें जेंडर की बाइनरी बांटने का काम करती है और ये बंटवारा सिर्फ़ जेंडर तक ही नहीं बल्कि उनकी सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक और राजनीतिक भूमिकाओं का होता है, जहां महिलाओं को हमेशा पुरुषों से कम आंका जाता है। ऐसे में जब महिलाएं विकलांगता के साथ जीती हैं तो उनके संघर्ष विकलांग पुरुषों से कई गुना ज़्यादा बढ़ जाते हैं, फिर बात चाहे उनकी शिक्षा की हो या यौनिकता की। ऐसे में ज़रूरी है कि विकलांगता के मुद्दे पर पहल से पहले हम ये समझे कि विकलांग महिलाओं के संघर्ष किस तरह दोहरे हो जाते हैं।
विकलांगता के मुद्दे पर किसी भी तरह की पहल से पहले हमें इससे जुड़े इन पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि बिना समावेशी दृष्टिकोण के हर पहल सिर्फ़ सतही होगी। इसलिए अगर आप भी विकलांगता के मुद्दे पर पढ़ने, समझने या बदलाव की दिशा में पहल कर रहे है तो इन बुनियादी बिंदुओं को ख़ास ध्यान रखें।
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