फिल्म ‘मदर इंडिया’ भारतीय स्त्री की ऐसी तस्वीरों को प्रस्तुत करती है जिसे पहले कभी हिंदी सिनेमा में नहीं दिखाया गया। हिंदी सिनेमा में पहली बार ऐसा हुआ जब एक स्त्री अपने परिवार की आजीविका के लिए खेत में बैल की जगह खुद को जोत देती है। ‘मदर इंडिया’ अपने समय और समाज की ऐसी फिल्म है जो हिंदी सिनेमा में स्त्री की छवि को वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बनाती है। नरगिस अपने ग्लैमरस छवि को तोड़कर खेतों में काम करने वाली महिला के किरदार को निभाती नज़र आती हैं। भारतीय दर्शकों में जो छवि नरगिस की थी इस फ़िल्म से पहले उसके हिसाब से उन्होंने इस फ़िल्म से बहुत ही चुनौतीपूर्ण निर्णय लिया। उस दौर की सबसे महंगी और लीड भूमिकाओं वाली नरगिस के लिए यह फिल्म कई तरह से चुनौतियों से भरी हुई थी।
यह फिल्म भारत में फैली सामंती और जमींदारी व्यवस्था की गहराती जड़ को बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत करती है। सूद कैसे गरीबों की जिंदगी में दीमक की तरह लग जाता है, जिसे भरने के चक्कर में वे पेट नहीं भर पाते हैं इसे फिल्म में बखूबी दिखाया गता। दुनियाभर को खाना खिलाने वाला अन्नदाता कैसे खाली पेट सोता है, उसकी भयावह स्थिति इस फ़िल्म में देखी जा सकती है। फ़िल्म का नायक अपनी परिस्थितियों से निपटने के लिए अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ मिलकर खेतों में काम करता है। लेकिन स्थिति ही ऐसी बनी कि खेत से पत्थर निकालते हुए उसके पति का हाथ कट जाता है और वह अपाहिज हो जाता है।
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फिल्म ‘मदर इंडिया’ भारतीय स्त्री की ऐसी तस्वीरों को प्रस्तुत करती है जिसे पहले कभी हिंदी सिनेमा में नहीं दिखाया गया। हिंदी सिनेमा में पहली बार ऐसा हुआ जब एक स्त्री अपने परिवार की आजीविका के लिए खेत में बैल की जगह खुद को जोत देती है। ‘मदर इंडिया’ अपने समय और समाज की ऐसी फिल्म है जो हिंदी सिनेमा में स्त्री की छवि को वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बनाती है।
‘मदर इंडिया’ शायद भारत की शुरुआती कुछ फ़िल्मों में से एक है जिसने भारतीय समाज में निर्मित स्त्री की पारंपरिक छवि को तोड़ने में सफलता प्राप्त की। जिसने स्त्री को नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। मशहूर निर्माता-निर्देशक महबूब खान द्वारा निर्देशित ‘मदर इंडिया’ ने भारत ही नहीं विदेशों में भी ख्याति प्राप्त की। अपने समय की बहुत चर्चित अभिनेत्री नरगिस ने अपने जीवन का इसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया। राजकुमार सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार जैसे अभिनेताओं के अभिनय से सजी इस फ़िल्म की कहानी जमींदारी प्रथा और गांव लाला द्वारा कर के रूप में गरीब शोषितों का शोषण दिखाता है।
महबूब खान आधुनिक विचारों से युक्त फिल्मकार माने जाते हैं उनकी फिल्मों में स्त्री का क्रांतिकारी रूप देखने को मिलता है। महिलाएं अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए लगातार आवाज़ उठाती हैं। दरअसल महबूब खान 1940 में ‘औरत’ फ़िल्म का निर्माण कर चुके थे जो कि स्त्री प्रधान फ़िल्म है। कुछ लोग ‘मदर इंडिया’ को ‘औरत’ का रीमेक भी मानते हैं। हालांकि, दोनों की कहानी अलग-अलग है। भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर जितनी फ़िल्में बनी हैं मुझे लगता है उसमें ‘मदर इंडिया’ मील का पत्थर है।
इस फ़िल्म से महबूब खान ने स्त्री की ऐसी छवि विकसित की जो पहली बार घर की दहलीज से बाहर निकलकर समाज में अपना विशेष स्थान बनाती है। घर की पूरी ज़िम्मेदारी भी उठाती है। ‘मदर इंडिया’ गांव में रहनेवाली ऐसी औरत राधा की कहानी है जिसका पूरा जीवन संघर्ष और तनाव से गुजरता है। विवाह के कुछ साल बाद ही खेत में काम करते हुए पति का हाथ पत्थर के नीचे दबकर कट जाता है। रात-दिन मेहनत करनेवाला स्वाभिमानी पति जब परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाता तो वह आत्मग्लानि से भर जाता है और एक दिन घर छोड़कर चला जाता है। पति की अनुपस्थिति में भारत की स्त्रियों की जो दुर्दशा होती है वह इस फ़िल्म में बखूबी दिखाई गई है। पूरे समाज की नजर उस पर है, गांव का लाला जिससे राधा के पति ने कुछ उधार लिया था के बदले वह उसको भोगना चाहता है। लेकिन राधा हिम्मत से उसका सामना करती है वह पूंजीवादी निर्मम व्यवस्था से डरती नहीं है बल्कि उसका विरोध करती है।
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नरगिस ने इस फ़िल्म में दो बेटों की माँ की भूमिका की है। जिसका एक बेटा गांव का सीधा- साधा लड़का है तो दूसरा जीवन की कड़वी सच्चाई से परिचित हैं इसलिए उसका स्वभाव थोड़ा जटिल भी है। वह सामाजिक विसंगतियों को समझता है इसलिए उसके अंदर विद्रोह है। उसका रास्ता समाज की नज़र में गलत है लेकिन उसी समाज के उपेक्षित और हाशिए के समाज के लिए सच भी है। राधा का छोटा बेटा बिरजू शुरू से ही क्रांतिकारी है। वह बचपन से अपनी माँ का शोषण देख रहा है। अपनी माँ के सोने के कंगन को लाला की बेटी के हाथ में देखकर उसे बहुत कष्ट होता है। वह बार-बार उस कंगन को प्राप्त करना चाहता है क्योंकि वह जानता है यह कंगन उसकी माँ से जबरदस्ती लिया गया है। वह यह नहीं समझ पाता कि लाला कौन-सा हिसाब लगाता है, जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग उबर नहीं पाते हैं।
गांव की ही एक लड़की गंगा जो बिरजू से प्रेम करती है। गंगा बच्चों को पढ़ाती हैं बिरजू उससे कहता है, “गंगा मुझे बस इतना हिसाब पढ़ा दो की मैं लाला का सारा हिसाब जान पाऊं।” बिरजू लाला के अत्याचारों के कारण डाकू बन जाता है। वह अपने गांव के लोगों और अपनी माँ को खुश देखना चाहता है। लाला की बेटी के शादी के दिन पहुंचकर वह लाला का सारा बहिखाता जला देता है और सब कुछ खत्म कर देता है। लाला के बेटी के हाथों में कंगन देखकर उसे छीनने का प्रयास करता है और जब वह नहीं छीन पाता तो उसे गांव से बाहर लेकर भागने लगता है, जहां राधा बंदूक लिए रास्ते में खड़ी है। यह दृश्य फिल्म की नायिका की ऐसी छवि को सामने लाता है जो पारंपरिक तो है लेकिन रुढ़ नहीं है।
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यह फ़िल्म भारतीय ग्रामीण जीवन में व्याप्त सामंती व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े एक जिद्दी और जागरूक नायक की कहानी है जिसे परिस्थितियों के कारण हथियार उठाना पड़ता है। नायक की माँ अपनी परंपरा और संस्कृति को बचाए रखने के पक्ष में हैं। लिहाजा वह अपने ही बेटे को मार कर अपने गांव की अस्मिता को बचाए रखती है। अपने बेटे को गोली से मारकर वह एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाती है साथ ही उसके पास दौड़कर जाती है और उसे गोद में लेकर रोने लगती है। उसका रोना उसके अंदर की मां की भावना को प्रदर्शित करता है।
भारत के रंगीन फ़िल्म का सफर किसान कन्या से आरंभ होता है। ‘मदर इंडिया’ भारत में रंगीन फिल्मों की मजबूत कड़ी है। ‘मदर इंडिया’ में बहुत सारी तकनीकी उपलब्धियां देखी जा सकती है। फ़िल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो तकनीकी संसाधनों से युक्त है। बाढ़ का आना, भारी मात्रा में पानी का बहना, बिजली का कड़कना, खेत में हल की जगह इंसान का जुतना, पुल के उद्घाटन का दृश्य आदि तकनीक के नए माध्यम हैं जो फ़िल्म में दिखाई गई है। यह रंगीन फिल्मों का आरंभिक समय था ‘मदर इंडिया’ में तकनीक का भरपूर प्रयोग किया गया है। 1957 में प्रदर्शित ‘मदर इंडिया’ को हिंदी की पहली रीमेक फिल्म भी माना जाता है। ‘मदर इंडिया’ दरअसल पहली फ़िल्म है जिसे ऑस्कर के लिए चुना गया और मात्र एक वोट से यह फ़िल्म ऑस्कर से चूक गई। इसके तकनीकी और भावनात्मक पक्ष को देखते हुए सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म की श्रेणी में इसे नामित किया गया। ‘मदर इंडिया’ के लिए कार्लोवी फ़िल्म समारोह में नरगिस को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला।
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तस्वीर साभार: Indian Express
Nice! 👌
लोगो को ऐसे ही अंजान वास्तविकताओं से रबरू करा कर जागरूकता फैलाते रहिये |
🤘Thanku
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ..जो समाज महिलाओं की भूमिका को चौकठ तक सीमित कर दिया था उस काल खण्ड में ऐसी फिल्में पितृसत्तात्मकता के मू पर तमाचा का काम किया था ….बहुत ही व्यवस्थित ढंग से पेश किया है आपने एक एक किरदार की भूमिकाओं का अद्भूत वर्णन …ये सिलसिला जारी रखा जाए ..आगे के लिए अनेकों शुभकामनाएं
धन्यवाद भैया🤘
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