इंटरसेक्शनलजाति “मुझे मेरी जाति आज भी छिपानी पड़ती है” 

“मुझे मेरी जाति आज भी छिपानी पड़ती है” 

लेकिन ऐसा कब तक होता रहेगा आखिर कब तक जाति के नाम पर शोषण किया जाएगा? कब तक हम जाति पूछते रहेंगे? क्या जाति इंसान के जीवन से बड़ी है? क्यों जाति जैसा जख्म हमारे शरीर से नहीं जा रहा है?

जाति की कहानी सदियों पुरानी है पर कुछ लोगों का मानना है कि जाति प्रथा खत्म हो चुकी है। हालांकि, मेरा मानना इसके विपरीत है, क्योंकि जाति ने अपनी जड़ें सभी के जीवन में बना रखी हैं। अब चाहे लोग सीधे तौर पर न कहें लेकिन आप अपने नाम के पीछे क्या लगाते हैं, यह पूछना नहीं भूलते। अगर इस से भी संतुष्टि न मिले तो कौन से वर्ग या जाति से आते हैं यह पूछने में भी नहीं हिचकते। यह पूछने के बाद कहते हैं, “हम तो बस यूं ही पूछ रहे थे।” यह आज कल के जीवन में बहुत आम बात है या यूं कह लें कि इन बातों का चलन आज भी जारी है। कहने को तो हम आधुनिक युग में जी रहे हैं तो जाति की यह प्रथा भी आज के युग के अनुसार होनी चाहिए। पुराने ज़माने की बात और थी जब स्कूल अलग, घर अलग, कुंआ अलग था। आज के ज़माने में स्कूल एक ही है लेकिन जातिगत भेदभाव जस का तस बना हुआ है। बहुत सोच-समझकर भेदभाव किया जाता है। उदाहरण के तौर पर स्कूल में दाखिले के वक्त यह पूछ लिया जाता है, “कौन सी जगह से आते हो।” बस इस एक सवाल से पूरी कहानी का पता लग जाता है।

अब आप यह सोच रहे हैं कि मैं इन बातों को किस आधार पर कह रही हूं या मुझे इन बातों से क्या लेना-देना है। मेरा इन सभी बातों से लेना-देना हैl आख़िर इन बातों को मैंने ख़ुद भी जो अनुभव किया है और दूसरे लोगों के साथ भी होते देखा भी है। हाल ही में द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद इंद्रनील चटर्जी नाम के एक शख्स ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा कि वह पुराने जमाने के हैं और उन्हें इस बात पर गर्व है। जिस तरह वह समलैंगिक विवाह का समर्थन नहीं करते उसी तरह से वह एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति का समर्थन नहीं करते हैं। कुछ कुर्सियां सभी के लिए नहीं होती हैं। इससे एक सम्मान जुड़ा होता है। क्या हम एक सफाईकर्मी को दुर्गा पूजा करने की अनुमति देते हैं? क्या मदरसे में कोई हिंदू पढ़ा सकता है?” और भी बहुत सी बातें जो उन्होंने अपने पोस्ट में लिखी थी। इनकी इसी पोस्ट से इनकी संकीर्ण और जातिवादी सोच के बारे में पता चल रहा है आख़िर हाशिए के लोगों के क्या मायने हैं और कौन सी जगह रखते हैं। इस तरह के बयान या बातें मेरे लिए नयी नहीं हैं। बचपन से ही इस तरह की बातें सुनने के आदि हैं हम।

तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

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बचपन से जाति छिपा रही हूं

मैं अपनी बात करूं तो बचपन से मुझे अपनी जाति और मेरे पिता जी क्या काम करते हैं, ये बातें छिपानी पड़ी। इतना ही नहीं आज भी मुझे इन बातों को छिपाना पड़ता है। मेरे नाम के पीछे क्या लगता है, आज भी मैं यह बताना पसंद नहीं करती। लेकिन मेरे जीवन में ऐसे बहुत से किस्से हैं जहां मुझे जातिगत भेदभाव या इससे जुड़ी बहुत सी चीजों का सामना करना पड़ता था। मैं भी एक दलित वर्ग से आती हूं जहां हमारी जाति सुअर खटिक है जो कि मांस (मीट) का काम करते हैं। हमारे समुदाय को कभी यह समाज अच्छी नज़रों से नहीं देखता है। हमें कंजर, गंदे काम करने और खानेवाले लोग कहते हैं। एक लाइन जो हमारे लिए हमेशा इस्तेमाल होती है वह है, “सूअर की टट्टी खाने वाले लोग।” मुझे यह लिखते वक्त इतनी बेचैनी है तो जिस समय इन बातों को सुनते हैं तो कैसा लगता होगा?

मुझे आज भी याद है वह सवाल जब स्कूल में हमसे पूछा गया था, “जात क्या है, तेरा बाप क्या काम करता है?” जब मैंने वहा झूठ बोला कि मुझे नहीं पता मेरी जात और मेरे पापा सब्जी का काम करते हैं। अगर मैं वहां सच बोलती तो पूरी क्लास में मेरी बदनामी हो जाती और मुझे कोई दोस्ती नहीं करता। इस झूठ ने उस समय तो बचा लिया लेकिन झूठ कब छिपता है, वह तो किसी दिन पता लगना ही था। पहले मेरी सहेलियों को यह बात पता लगी, फ़िर क्या था बवाल ही हो गया। उन्होंने खूब सुनाया, “तू इतनी गंदी है हमें पहले क्यों नहीं बताया, हम तुझसे बात नहीं करेंगे।” फ़िर क्या उन्होंने मुझे अकेला छोड़ दिया। इतना ही नहीं टीचर का रवैया भी मेरे प्रति कुछ ख़ास नहीं था। एक बार को महिला टीचर का दिल थोड़ा नर्म हो जाता था लेकिन पुरुष टीचर तो इतना डरते थे मानो पाप ही कर दिया हो। स्कूल आने में कभी लेट हो जाते तो हमसे स्कूल के ग्राउंड की सफाई करवाई जाती तो कभी क्लास रूम की सफाई। इतना ही नहीं हम बच्चों से कूड़ा तक उठवाया जाता था। ताने तो ऐसे दिए जाते थे कि क्या कर लोगे पढ़-लिखकर, गंदे हो गंदे ही रहोगे।

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मेरे आरक्षण पर सवाल क्यों?

जब अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी तब मैंने अपनी जाति बतानी शुरू की लेकिन जाति जैसा रोग किसको छोड़ता है। वहां भी मेरे कोटे को लेकर बात होती। एक दिन मेरी एक दोस्त ने कह ही दिया, “कितनी बेकार है यह व्यवस्था, तुम्हारे नंबर भी कम हैं और तुम्हारा यहां दाखिला भी हो गया और फीस भी कम है। लेकिन मुझे जहां दाखिला लेना था वहां नहीं हुआ। यह गलत बात है, तुम जैसे को सब मिल जाता है।” हां, आख़िर सही कहा ‘हम जैसे लोग’ जिनको कहीं जगह नहीं मिलती अगर मिल जाए तो जाति के आधार पर नीचा दिखाया जाता। हमारी योग्यता पर भी सवाल उठाया जाता है। माना कोटा था पर समाज ने हमें कहीं सर उठाने की जगह दी भी है? गरीब परिवार से आना, दो वक़्त की रोटी के लिए पूरा दिन काम करना, उसके बाद रात में पढ़ाई करना। कितनी रातें बिना सोये गुजारी हैं हमने। यह किसी को पता है? घर में चार दिन चुल्हा नहीं जला, इसका किसी को ख्याल भी है?

“ऐसे बहुत से पल आए जीवन में जब यह मैं यह कहने पर मजबूर हुई कि मैं इस जाति की नहीं या यह मेरी जाति नहीं है। आज मेरे पास ऐसी यादें हैं जहां सिर्फ़ जाति है, मैं कहीं नहीं हूं।”

इतनी मुश्किलों के बाद पढ़ लो तो लोग आरक्षण पर सवाल करना खड़े कर देते हैं। सच तो यह है कि जिस कॉलेज की फीस सामान्य वर्ग से आनेवाले लोगों के लिए 35,000 थी, वहां कोटे की वजह से हमारी फीस 10,000 थी। लेकिन इसे जोड़ने में भी हमें महीनों लग जाते हैं। सरकारी स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ गरीबी, जातिगत भेदभाव आदि का सामना करना पड़ता है। इन स्कूलों में न हिंदी और न ही इंग्लिश कोई अच्छे तरीके से पढ़ाने वाला होता है। जैसे-तैसे ख़ुद समझते-पढ़ते हैं तो नंबर कम आ जाते हैं, तो इस में भी हमारी गलती होती और अगर एससी कोटे का सहारा न लेते तो कॉलेज के दरवाजे के बाहर खड़े होते ,तो क्या यह सही था हमारे लिए? 

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आज भी काम करते वक़्त मुझे मेरी जाति छिपानी पड़ती है। आज भी हमारे अस्तित्व को हमारे कौशल और मेहनत से नहीं बल्कि जाति से देखा जाता है। आज भी इतना पढ़ने के बाद, जिंदगी के तमाम अनुभव पाने के बाद भी मुझे क्यों जाति का सामना करना पड़ता है। चाहे गांव हो या शहर मुझे अपनी जाति छिपानी पड़ती है। ऐसे बहुत से पल आए जीवन में जब मैं यह कहने पर मजबूर हुई कि मैं इस जाति की नहीं या यह मेरी जाति नहीं है। आज मेरे पास ऐसी यादें हैं जहां सिर्फ़ जाति है, मैं कहीं नहीं हूं। कुछ साल पहले जब मै गांव में काम करती थी तब गांव में घूमना, उनसे बातचीत करनी होती थी। बातचीत के दौरान यही सवाल पूछा जाता कि आपकी जाति क्या है? तब मैं कहती, “मुझे नहीं पता।” कुछ सालों तक मैं अपनी जाति पूछने पर इस तरह का ही जवाब देती। 

अभी कुछ महीने पहले एक शोध पर काम कर रही थी जहां मुझे पूरे गाँव के बारे में जानकारी लेनी थी। लेकिन उस शोध को करने के दौरान मुझे अपनी जाति छिपानी पड़ी बल्कि दूसरी जाति का भी सहारा लेना पड़ा। उस गांव में जातियों के आधार पर मोहल्ले बंटे थे। कोई जाट तो कोई यादव, कोई हरिजन तो कोई दलित तो कोई चमार। ऐसे माहौल में मुझे काम करने में बड़ा डर लगता। जिस घर जाती वहां यह तक पूछा जाता कि उनके घर आने से पहले मैं गांव के किस मोहल्ले में बात करने गई थी। अगर हरिजन कह देती तो वे जवाब देने में बहुत नखरे करते और घर तक में आने नहीं देते। एक दिन उस गाँव में कुंआ पूजा हो रही थी तो उस घर में गई लेकिन मुझे वहां से पहले भगाया गया लेकिन जब जाति पूछी गई तब मैंने कहा ‘पंडित,’ तब वहां बैठाकर पानी पिलाया गया। अगर इसके बदले कुछ और जाति बताती तो शायद मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता या कुछ और गलत भी हो सकता था। जैसे-तैसे काम खत्म हुआ लेकिन उस काम की छाप और डर आज भी जीवन में बरकरार है।

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एकबार जब मैं और मेरे कुछ दोस्त यूं ही बैठकर बातचीत कर रहे थे तब किसी ने गोत्र को लेकर बातचीत छेड़ दी। किसी ने कहा फलां जाति का फलां गोत्र होता लेकिन बहुजन जाति का कोई गोत्र नहीं होता। उस पल मानो मेरे पैरों तले जमीन चली गई क्योंकि वहां उस वक्त मैं ही एक बहुजन थी लेकिन मैं वहां इन बातों का विरोध करने लगी। मैंने कहा, “तुम्हारा ही क्यों, हमारा भी गोत्र होता है तब भी तो हमारे यहां भी शादी होती है” लेकिन मेरी इस बात को सभी ने मिलकर नकार दिया। वह बात वहीं खत्म हुई लेकिन कुछ सवाल मेरे जहन में उठने लगे कि जिस जाति का मैं विरोध करती हूं आज उसे साबित करने के लिए उसी जाति का इस्तेमाल किया कि हमारा भी गोत्र है। आखिर हमारी भी जाति है जहां जाति शब्द आते ही में अपनी ताकत खोने लगती हूं, असहाय होती हूं। वहीं, इस घटना में अपनी जाति का अस्तिव बताने लगती हूं।

“अभी कुछ महीने पहले एक शोध पर काम कर रही थी जहां मुझे पूरे गाँव के बारे में जानकारी लेनी थी। लेकिन उस शोध को करने के दौरान मुझे अपनी जाति छिपानी पड़ी बल्कि दूसरी जाति का भी सहारा लेना पड़ा। उस गांव में जातियों के आधार पर मोहल्ले बंटे थे। कोई जाट तो कोई यादव, कोई हरिजन तो कोई दलित तो कोई चमार। ऐसे माहौल में मुझे काम करने में बड़ा डर लगता।”

जाति मेरी छोटी है, लेकिन मेरी जाति है। इस चेतना के बाद मुझे लगा चाहे मैं चाहूं या न चाहूं जाति और जातिवाद हमारे मन में बचपन से डाला गया है। जैसे-जैसे एक बच्चा बड़ा होता है उसे खाने के लिए भोजन दिया जाता है। उसी तरह बचपन में एक बीज बोया जाता है जिसे जाति कहते हैं। समय-समय पर बताया जाता है कि यह जाति है, इसी में शक्ति है। लेकिन ऐसा कब तक होता रहेगा आखिर कब तक जाति के नाम पर शोषण किया जाएगा? कब तक हम जाति पूछते रहेंगे? क्या जाति इंसान के जीवन से बड़ी है? क्यों जाति जैसा जख्म हमारे शरीर से नहीं जा रहा है? लोग दलितों को गंदा कहते हैं लेकिन जो ऐसा कहते हैं आख़िर उनकी जाति गंदी क्यों नहीं, जहां इंसान का महत्व उसकी जाति के आधार पर है। माना मेरी बातें कड़वी हैं पर लेकिन जातिवाद के मीठे ज़हर से कई गुना बेहतर हैं।

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

Comments:

  1. Avneesh Kumar says:

    Keep going.
    You’ve to a long way to go.

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