ट्रांसजेंडर समुदाय के अंदर अलग-अलग पहचान से संबंधित लोग इस श्रेणी के अंदर आते हैं। इनमें ट्रांसजेंडर पुरुष, ट्रांसजेंडर महिला आदि शामिल हैं। ट्रांसजेंडर व्यक्ति को उन लोगों के रूप में माना जाता है, जिनकी जेंडर पहचान उस जेंडर से अलग होती है जो उन्हें जन्म के वक्त दी गई थी। ट्रांस व्यक्ति अपनी लैंगिक पहचान को कई तरह से व्यक्त करने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग अपने व्यवहार, पहनावे या तौर-तरीकों का उपयोग उस जेंडर की तरह जीने के लिए करते हैं जो उन्हें लगता है कि उनके लिए सही है क्योंकि वे जेंडर की रूढ़िवादी परिभाषा को अस्वीकार करते हैं, जो कि केवल पुरुष और महिला के बीच विभाजित है।
ट्रांस समुदाय के लोगों के साथ अपनी लैंगिक पहचान के कारण हर क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। खेल का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। यहां तक कि आईओसी (अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति) भी उनके प्रति उदासीन है। दुनिया के तमाम खेलों में भाईचारा, टीमवर्क, समानता, अनुशासन, निष्पक्षता और सम्मान जैसे मूल्य शामिल हैं। खेल समाज और जीवन के हर तबके के लोगों को साथ लाता है, जहां वे मिलते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं और भाईचारे का निर्माण करते हैं। हालांकि, कई बार यह देखा गया है कि खेल अपने कुछ नियमों और विनियमों के माध्यम से बहिष्करण का आधार भी प्रदान करता है। इसी में एक शामिल है ट्रांस समुदाय के लोगों के साथ उदासीन रवैया।
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खेल बिरादरी का उदासीन रवैया
ट्रांसजेंडर एथलीट्स के साथ खेल बिरादरी द्वारा उदासीनता से व्यवहार किया जाता है और उन्हें उनकी जानकारी और समझ के बिना, भागीदारी प्रक्रिया के लिए कुछ जांचों से गुजरना पड़ता है। इसका एक उदाहरण भारत की शांति सुंदरराजन का मामला है। शांति सुंदरराजन का मामला भारत में ट्रांसजेंडर खिलाड़ियों की दुर्दशा के बारे में बात करता है। तमिलनाडु की एक महिला खिलाड़ी शांति से साल 2006 में दोहा, कतर में आयोजित एशियाई खेलों में जीता गया रजत पदक, जेंडरसत्यापन परीक्षण में विफल होने के बाद छीन लिया गया था। उन्हें महिला प्रतियोगिता में अयोग्य माना गया था क्योंकि उनके पास महिलाओं की यौन विशेषताएं नहीं थीं। साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ ने शांति को बिना कोई कारण बताए किसी प्रतिस्पर्धा में भाग लेने से मना कर दिया। संघ ने शांति को यह भी नहीं बताया कि वह किस प्रकार के परीक्षण में विफल रही थी।
लंबे समय से महिला एथलीट्स का जेंडर सत्यापन या जेंडर निर्धारण परीक्षण किया जाता रहा है ताकि एथलीट्स में हार्मोनल, टेस्टोस्टेरोन के स्तर की जांच की जा सके। जैसे – जब महिला एथलीट्स को इस तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है, तो वे अलग-थलग महसूस करती हैं। उनके अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं और उनमें पहचान की कमी की भावना पैदा होती है, जो अवसाद का कारण बन सकती है। जैसे शांति सुंदरराजन के मामले में हुआ था।
वहीं, दूसरी ओर एशिया की ओलंपिक परिषद शांति के खिलाफ अपने मामले को साबित करने के लिए ज़रूरी सारे परीक्षण जांच प्रदान नहीं कर पाई थी। जांच की मौजूदगी न होने के कारण, किसी पर्याप्त सबूत के बिना किसी एथलीट का पदक छीनना, संघ की जिम्मेदारी की कमी को दर्शाता है। इस मामलें में शांति के अधिकारों का उल्लंघन हुआ और देश की सरकार, जो अपने देश का प्रतिनिधित्व करने वाले एथलीट्स के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य है, ऐसा करने में भी विफल रही। समाज से मिलने वाली नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से थक हार कर बाद में शांति ने सुसाइड करने की भी कोशिश की थी।
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लंबे समय से महिला एथलीट्स का जेंडर सत्यापन या जेंडर निर्धारण परीक्षण किया जाता रहा है ताकि एथलीट्स में हार्मोनल, टेस्टोस्टेरोन के स्तर की जांच की जा सके। जैसे – जब महिला एथलीट्स को इस तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है, तो वे अलग-थलग महसूस करती हैं। उनके अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं और उनमें पहचान की कमी की भावना पैदा होती है, जो अवसाद का कारण बन सकती है। जैसे शांति सुंदरराजन के मामले में हुआ था।
पिछले दिनों केरल उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया जो इस दिशा में एक सकारात्मक उम्मीद को जगाता है। न्यायालय के अनुसार कि अगर खेल में अलग श्रेणी नहीं है तो ट्रांसजेंडर एथलीट अपने चुने हुए जेंडरवर्ग में खेल आयोजनों में भाग ले सकते हैं। न्यायमूर्ति वीजी अरुण ने जोर देकर कहा कि हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को खेलों में प्रतिस्पर्धा करने का समान अधिकार है।
खेल आयोजनों के लिए जेंडरपरीक्षण, जिसे जेंडरनिर्धारण परीक्षण के रूप में भी जाना जाता है साल 1950 में एक प्रचलित अभ्यास बन गया जब इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन ने शारीरिक परीक्षण शुरू किया, जिसे महिला एथलीट्स के “नग्न परेड” के रूप में भी जाना जाता है। यह डर इस रूढ़िवादी सोच द्वारा समर्थित था कि अगर पुरुष महिलाओं के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करना शुरू कर देते हैं तो महिलाएं पुरुषों को हरा नहीं सकती हैं। निवेदिता मेनन ने अपनी किताब ‘सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट में’ पोलिश धावक स्टेला वॉल्श और अमेरिकी धावक हेलेन स्टीफेंस के दिलचस्प मामले के बारे में बात की है। साल 1936 के ओलंपिक में, स्टीफंस ने वॉल्श (जिन्हें दुनिया की सबसे तेज महिला माना जाता था) को हराया और एक नया रिकॉर्ड बनाया। यह दावा किया गया था कि कोई भी महिला इतना तेज़ नहीं दौड़ सकती है और फिर जल्द ही स्टीफेंस को सेक्स टेस्ट से गुज़रना पड़ा। लेकिन जेंडरपरीक्षण ने यह साबित कर दिया कि स्टीफंस वास्तव में एक महिला थीं।
हालांकि, 44 साल बाद वॉल्श की मृत्यु हो गई और उनकी ऑटोप्सी रिपोर्ट में कहा गया कि वॉल्श के पास एक Y क्रोमोजोम था, जो सेक्स परीक्षण के अनुसार उन्हें एक पुरुष बना देता था। हालांकि, उनके शरीर में पुरुष अंगों (Y क्रोमोजोम) की उपस्थिति ने उसे एक इंटरसेक्स एथलीट बना दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि जो हार गया वह ‘एक पुरुष’ था जबकि जीतने वाला व्यक्ति ‘एक महिला’ था। मेनन इस मामले का उपयोग डर की त्रुटिपूर्ण भावना और पितृसत्तात्मक तर्क को इंगित करने के लिए करते हैं जिस पर जेंडरपरीक्षण स्थापित होते हैं।
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प्रारंभ में केवल शरीर और जननांगों की शारीरिक जांच द्वारा ही किसी व्यक्ति के जेंडर का निर्धारण किया जाता था। हालांकि, 1968 के मेक्सिको ओलंपिक से जैविक जेंडर का निर्धारण करने के लिए क्रोमोज़ोम टेस्ट का उपयोग किया जाने लगा। दुर्भाग्य यह है कि किसी भी पुरुष को कभी भी सेक्स परीक्षणों के माध्यम से एक महिला के रूप में नकाबपोश नहीं पाया गया है, लेकिन कई महिला एथलीट्स को क्रोमोज़ोम में अंतर होने के कारण प्रतिस्पर्धा में शामिल होने से रोक दिया गया।
साल 1999 में IOC द्वारा महिला एथलीट्स के लिए ब्लैंकेट सेक्स टेस्ट को समाप्त कर दिया गया था। इसे IOC द्वारा भेदभावपूर्ण माना गया क्योंकि यह मुख्य रूप से महिलाओं पर परीक्षण किया जाता है, इसमें कई खामियां भी थीं, क्योंकि कभी-कभी एथलीट ने एक प्रतियोगिता में एक सेक्स टेस्ट पास किया था, लेकिन फिर अगली प्रतियोगिता में वह इसी टेस्ट में विफल हो गई थी। इसका सटीक उदाहरण इवा क्लोबुकोव्स्का (एक ओलंपियन) का मामला हैं, जिसने बुडापेस्ट में सेक्स टेस्ट पास किया था, लेकिन फिर मेक्सिको में वह इसमें फ़ेल हो गई थी। लेकिन आज भी विशिष्ट मामलों में इनका उपयोग जारी है।
जेंडर परीक्षण एथलीट्स की निजता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अंकित है। ये परीक्षण महिला एथलीट्स पर बिना उन्हें बताए किए जाते हैं। अधिकतर केस में उन्हें इसका पता मीडिया के माध्यम से ही होता है जैसे दुती चंद के मामले में हुआ था। जहां उन्हें कुछ भी बताए बिना उनके जेंडरका निर्धारण करने के लिए अस्पताल ले जाया गया था। केवल निजता ही नहीं बल्कि महिला एथलीट्स ने जेंडर सत्यापन परीक्षण से हार्मोन दमन चिकित्सा और मानव अधिकारों के हनन को सहन किया है। यह टेस्ट संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन करता है जिसके अनुसार कानून की नज़र में सब बराबर हैं।
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एक नयी पहल की कोशिश
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने 2004 में ट्रांसजेंडर एथलीट्स को खेलों में स्वीकार किया। हालांकि, यह विवाद की एक हड्डी थी, कई लोगों ने दावा किया कि इसने ट्रांसजेंडर एथलीट्स को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नहीं किया। जेंडरसत्यापन जैसे टेस्ट को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया गया है। संदेह की स्थिति में किसी भी समय महिला एथलीट पर इस प्रकार का परीक्षण किया जा सकता है। यह परीक्षण महिला एथलीट्स में हमेशा एक भय का माहौल बनाए रखता है।
पिछले दिनों केरल उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया जो इस दिशा में एक सकारात्मक उम्मीद को जगाता है। न्यायालय के अनुसार कि अगर खेल में अलग श्रेणी नहीं है तो ट्रांसजेंडर एथलीट अपने चुने हुए जेंडरवर्ग में खेल आयोजनों में भाग ले सकते हैं। न्यायमूर्ति वीजी अरुण ने जोर देकर कहा कि हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को खेलों में प्रतिस्पर्धा करने का समान अधिकार है और अगर कोई विशिष्ट श्रेणी नहीं है तो उन्हें अपनी पसंद की श्रेणी में भाग लेने की अनुमति दी जानी चाहिए।
दुती चंद जो खुद इस तरह के परीक्षण का सामना कर चुकी हैं उन्होंने भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए अपने साक्षात्कार में ट्रांस समुदाय के लोगों को खेलों में बैन न करने की बात कही। दुती ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को ट्रांस समुदाय के बारे में बात करते हुए कहा कि ट्रांसजेंडर महिला एथलीट्स को प्रतिस्पर्धा करने से न रोकें। दुति ने कहा कि खेल प्रशासकों की ओर से ट्रांसजेंडर महिला एथलीट्स को प्रतिस्पर्धा से रोकना अनुचित है।
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तस्वीर साभार: Independent Women Forum