इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ सरकारी योजनाओं ने कितना बदला है बिहार में ट्रांस समुदाय के लोगों का जीवन

सरकारी योजनाओं ने कितना बदला है बिहार में ट्रांस समुदाय के लोगों का जीवन

ट्रांस समुदाय के लोगों की कमाई का ज़रिया बधाई लेना, भीख मांगना, सेक्स वर्क ही है। ऐसा कामों के दौरान उन्हें हिंसा का सामना भी करना पड़ता है।

बीते साल बिहार में किन्नर महोत्सव का आयोजन किया गया था। ऐसे किसी महोत्सव का आयोजन करने वाला बिहार पहला राज्य है। इस मौके पर तब बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने राज्य सरकार के ट्रांस समुदाय के कल्याण के लिए गए फैसलों का बढ़-चढ़कर बखान किया था। इसमें शामिल था ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड का गठन, ट्रांस समुदाय के लिए आरक्षण, ट्रांस समुदाय के जो लोग सेक्स चेंज का ऑपरेशन करवाना चाहते हैं उनके लिए 1.5 लाख रुपये की सहायता। साथ ही साथ ट्रांस समुदाय को घर किराये पर न देने या उन्हें किसी प्रकार की मेडिकल सुविधा से वंचित रखने को एक दंडनीय अपराध माना जाना। ट्रांस समुदाय के हित में उठाए गए इन कदमों का लाभ क्या इस समुदाय तक पहुंच पाया है यह अब तक एक सवाल है। 

बिहार किन्नर महोत्सव की एक तस्वीर, तस्वीर साभार: PatnaBeats

लॉकडाउन ने बढ़ाई बिहार में ट्रांस समुदाय की दिक्कतें

पहले से ही मुश्किलों का सामना कर रहे ट्रांस समुदाय के लिए इस साल कोरोना वायरस के कारण लागू हुए लॉकडाउन ने उनके जीवन और कठिन बना दिया है। सरकार ने भले ही अनलॉक की प्रक्रिया शुरू कर दी है लेकिन लॉकडाउन ने देश की एक बड़ी आबादी के हिस्से में जो मुश्किलें पैदा की वे आज भी बनी हुई हैं। लॉकडाउन ने बिहार के ट्रांस समुदाय के लिए भी बुनियादी ज़रूरतों जैसे राशन, किराया, स्वास्थ्य सुविधाओं का संकट खड़ा कर दिया। ट्रांस समुदाय के इस संकट को देखते हुए बिहार की ट्रांस एक्टिविस्ट वीरा यादव ने पटना हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की। इस याचिका पर पटना हाई कोर्ट ने सरकार द्वारा ट्रांस समुदाय को बिना राशन कार्ड के राशन मुहैया करवाने के कदम की सराहना की। इसके साथ ही सुनवाई के दौरान पटना हाई कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा कि 21 मार्च 2018 को बिहार कल्याण बोर्ड की बैठक के नतीजे क्या थे, ट्रांस समुदाय के कल्याण के लिए क्या कदम उठाए गए। लेकिन क्या हाई कोर्ट के आदेश और सरकार द्वारा पहल किए जाने के बावजूद ट्रांस समुदाय तक इस महामारी के दौर में सहायता पहुंची है? इस बाबत फेमिनिज़म इन इंडिया ने बात की याचिकाकर्ता और बिहार की ट्रांस एक्टिविस्ट वीरा यादव से।

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ट्रांस वीमन वीरा यादव

वीरा यादव एक ट्रांस महिला हैं और उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री भी हासिल कर रखी है। फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करने से पहले वीरा बस में भीख मांगकर ही तुरंत घर वापस लौटी थी। उनकी इस एक पंक्ति ने ही ट्रांस समुदाय की परेशानियों का पूरा सार हमारे सामने रख दिया। वीरा यादव ने फेमिनिज़म इन इंडिया को बताया, “पटना में ट्रांस समुदाय के अधिकतर लोगों के पास आधार कार्ड और वोटर कार्ड नहीं है। इसके लिए हमने बैठकें भी की लेकिन किसी सॉफ्टवेयर में अपडेट न होने के कारण यह प्रक्रिया अब तक रुकी हुई है।” यानी सरकार और हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी अब तक ट्रांस समुदाय को मुफ्त राशन उपलब्ध नहीं करवाया गया है। वह हल्के रोष में कहती हैं, “कोर्ट से आदेश आने के बाद यह उक्त विभाग की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए थी कि वह हमें राशन पहुंचाने की दिशा में कदम उठाए लेकिन पता नहीं क्यों अब तक ऐसा हो नहीं पाया। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे हम यहां के नागरिक है ही नहीं।” लॉकडाउन पर बात करते हुए वीरा ने हमें बताया कि लॉकडाउन के दौरान ट्रेन, बसें, पब्लिक प्लेस आदि बंद होने के कारण उन लोगों के सामने सबसे अधिक मुश्किलें खड़ी हो गई जो इन जगहों पर पैसे मांगकर अपना गुज़ारा करते हैं।

डिग्री के बावजूद नहीं हैं रोज़गार के अवसर

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने साल 2018 में भारत में ट्रांस समुदाय के मानवाधिकारों पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के मुताबिक भारत के 99 फीसद ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को समाज अस्वीकार कर देता है जिसमें खुद उनका परिवार भी शामिल होता है। वहीं 96 फीसद लोगों को किसी भी तरह का रोज़गार नहीं दिया जाता और मजबूरन वे सेक्स वर्क, बधाई और भीख मांगने जैसे रास्तों का चयन करते हैं। वहीं बात अगर शिक्षा की करें तो 50 से 60 फीसद ट्रांस समुदाय के लोग समाज में व्याप्त भेदभाव के कारण कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देख पाते। जो किसी तरह इन मुश्किलों का सामना कर पढ़ाई कर भी लेते हैं उनके लिए रोज़गार के कोई अवसर नहीं होते। कमोबेश यही स्थिति बिहार में भी ट्रांस समुदाय की दिखती है।

बिहार सरकार ने ट्रांसजेंडर समुदाय को  (किन्नर, कोथी, हिजरा) को थर्डजेंडर के रूप में घोषित करते हुए पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल किया है ताकि इस समुदाय को शिक्षा और नौकरियों में पिछड़े वर्ग के आरक्षण का लाभ मिल सके। इस बाबत पटना हाईकोर्ट ने भी वीरा यादव की याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार से सवाल पूछा था कि सरकार ने शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में आरक्षण के लिए क्या कदम उठाए हैं यह साफ नहीं है। जैसा कि हमने बताया कि वीरा यादव खुद एक मास्टर डिग्री होल्डर हैं। वह बताती हैं कि उन्होंने एक नौकरी के लिए अप्लाई किया था लेकिन उन्हें आज तक इस बाबत कोई जवाब नहीं मिला। वह कहती हैं, “मैंने आखिर पढ़ाई क्यों की, जब मुझे अपना गुज़ारा भीख मांगकर ही करना पड़ रहा है तो।” 

वीरा के मुताबिक आज भी कई ट्रांस समुदाय के लोगों की कमाई का ज़रिया बधाई लेना, भीख मांगना, सेक्स वर्क जैसे काम ही हैं। ऐसा कामों के दौरान उन्हें हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि अभी कुछ दिनों पहले ही पैसों की बात को लेकर एक शख्स ने उनकी एक साथी की नाक पर हमला कर दिया। उनकी साथी को अपनी नाक की सर्जरी दिल्ली में करवानी पड़ी, जिसमें उन्हें करीब डेढ़ लाख का खर्चा आया। 

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बिहार सरकार ने यह भी घोषणा की थी कि ट्रांस समुदाय के लोगों को किराये पर घर न देना और मेडिकल सुविधाओं से वंचित रखना एक दंडनीय अपराध होगा। लेकिन वीरा की बातें सरकार की इस घोषणा को भी हवा-हवाई बताती । वीरा ने फेमिनिज़िम इन इंडिया को बताया कि उनकी सबसे पहली मांग है-आवास। वीरा के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान उन्होंने खाना ठीक से नहीं खाया ताकि वह अपने कमरे का किराया दे सकें। इसलिए ट्रांस समुदाय के लिए आवास सबसे ज़रूरी मांग है ताकि वह अपनी ज़िंदगी अपने मन-मुताबिक जी सकें। वीरा कहती हैं कि अगर ट्रांस समुदाय के लिए सरकार आवास की व्यवस्था कर दे तो उनकी आधी से अधिक परेशानियां अपने-आप खत्म हो जाएंगी, जिनका सामना उन्हें आए दिन करना पड़ता है।

लोक जनशक्ति पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के लिए अपना घोषणापत्र जारी करते हुए यह वादा किया है कि राज्य के ट्रांस समुदाय को बंगला योजना से जोड़ा जाएगा ताकि उन्हें मुफ्त आवास की सुविधा का लाभ मिल सके। लेकिन यह संशय हमेशा बरकार रहेगा कि राजनीतिक पार्टियां ट्रांस समुदाय के लिए जो भी घोषणाएं करती हैं, उनसे वादा करती हैं, उन योजनाओं का लाभ इन लाभार्थियों तक पहुंचेगा भी या नहीं।

“बात हमारे राजनीतिक प्रतिनिधित्व की हो”

ट्रांस समुदाय के कल्याण के लिए और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए बिहार सरकार ने ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड का भी गठन किया है। इस बोर्ड के 21 सदस्यों में 5 सदस्य ट्रांस समुदाय के भी शामिल हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अब तक इस बोर्ड की सिर्फ एक ही बैठक 21 मार्च 2018 को हुई है। इस बोर्ड को पर यह सवाल भी उठाए गए हैं कि यह ठीक से काम नहीं कर रहा है। बिहार सरकार द्वारा गठित इस बोर्ड की एक सदस्य हैं रेश्मा प्रसाद। रेश्मा केंद्र सरकार की नेशनल ट्रांसजेंडर काउंसिल की भी सदस्य हैं। साथ ही साथ वह बिहार में दोस्ताना सफर नाम का एक एनजीओ और नाच-बाजा डॉट कॉम नामक एक स्टार्टअप भी चलाती हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करने के दौरान रेश्मा ने जिस मुद्दे पर सबसे अधिक ज़ोर दिया वह था- ‘ट्रांस समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व।’

ट्रांस कार्यकर्ता रेश्मा प्रसाद, तस्वीर साभार: The Telegraph

सेंसस 2011 के मुताबिक भारत में 4.9 लाख ट्रांसजेंडर हैं जिनमें से केवल 30,000 का नाम ही वोटर लिस्ट में दर्ज है। बात अगर बिहार की करें तो यहां ट्रांसजेंडर समुदाय की आबादी करीब 40,000 हज़ार है। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से सिर्फ 2344 लोगों का नाम ही मतदाता सूची में रजिस्टर्ड है। चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में ट्रांस समुदाय के 2406 रजिस्टर्ड वोटरों में से सिर्फ 62 वोट ही पड़े।

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रेश्मा कहती हैं, “ट्रांसजेंडर समुदाय की राजनीतिक जगह कहां है ताकि हम पॉलिसी बना सकें और ट्रांस समुदाय के हक में फैसले ले सकें।” वह कहती हैं कि ज़रूरत है कि बड़ी और मज़बूत पार्टियां ट्रांस समुदाय के लोगों को टिकट दें। अगर अधिक से अधिक ट्रांस समुदाय के लोगों को टिकट मिलेगा, उनका प्रतिनिधित्व होगा तो वह प्रतिनिधि हमारी आवाज़ ज़रूर उठाएगा। आज ज़रूरत यह मुद्दा उठाने की है कि हम कब पॉलिसी मेकर बन पाएंगे, आखिर कब तक हम अलग-अलग काउंसिल के सदस्यों तक ही सीमित रहेंगे? बिहार विधानसभा चुनाव के मुद्दे पर रेश्मा ने कहा कि अभी तक किसी मज़बूत पार्टी ने क्या किसी ट्रांस समुदाय के सदस्य को टिकट दिया है? साथ रेश्मा ने बिहार सरकार द्वारा ट्रांस समुदाय के हित में लिए गए कुछ फैसलों की सराहना भी की।

वहीं, वीरा यादव ने भी ट्रांस समुदाय के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर ज़ोर देते हुए कहा कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को टिकट मिले, तभी तो हमारी आवाज़ लोकसभा, विधानसभा में रखेंगे। हम हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं लेकिन बदलाव कहां आता है। कभी-कभी खबरें आ जाती हैं कि ट्रांस समुदाय से कोई अफ़सर बन गया, कोई प्रोफेसर बन गया लेकिन क्या ये अवसर सबको मिलते हैं? जैसे सामान्य लोगों के लिए नौकरी की वैकेंसी निकाली जाती है, वैसे हमारे लिए क्यों नहीं निकलती नौकरियां। अगर हमारे लिए भी ऐसे सामान्य मौके निकाले जाए तब शायद ऐसी खबरें न सुनने को मिलें कि ट्रांस समुदाय से कोई पहला शख्स किसी पद पर पहुंची या पहुंचा। 

बिहार सरकार ने ट्रांस समुदाय के हित में फैसले तो कई लिए लेकिन इन फैसलों का लाभ ज़मीनी स्तर पर कम ही दिख रहा है। आज भी इस समुदाय के लोग रोज़गार, आवास, शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व में समान अवसर पाने की जंग लड़ रहे हैं। इसलिए ज़रूरत है इन घोषणाओं को सही तरीके से लागू करने की ताकि इसका लाभ इसके असली हक़दारों तक पहुंच सके।

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