अच्छी ख़बर प्रोजेक्ट श्रीमती: सस्टेनेबल मेंस्ट्रुएशन की ओर एक पहल

प्रोजेक्ट श्रीमती: सस्टेनेबल मेंस्ट्रुएशन की ओर एक पहल

ऐसे में प्लास्टिक कचरे और सैनिटरी कचरे के निपटान के मुद्दों से निपटने के लिए, ‘परियोजना श्रीमती’ को जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने शुरू किया है। इस परियोजना को शुरू करनेवाले लोगों का दावा है कि ‘श्रीमती नैपकिन’, जो बांस और केले के रेशों का उपयोग करके तैयार किया जाता है, पर्यावरण के अनुकूल है और 12 पीरियड्स साइकिल तक इस्तेमाल किया जा सकता है।

पर्यावरण समूह टॉक्सिक्स लिंक द्वारा ‘ मेंस्ट्रुअल प्रॉडक्ट्स और उनका निपटान‘ नामक शीर्षक से जारी की गई एक स्टडी के अनुसार भारत में हर साल लगभग 12.3 बिलियन या 113, 000 टन इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पैड्स लैंडफिल में डंप किए जाते हैं, जो कि देश में पहले से मौजूद प्लास्टिक प्रदूषण को और बढ़ाते हैं। भारत में सैनिटरी कचरे का निपटान एक बढ़ती हुई समस्या बन गया है क्योंकि सैनिटरी नैपकिन में इस्तेमाल होनेवाला प्लास्टिक बायोडिग्रेडेबल नहीं होता है। साथ ही यह स्वास्थ्य और पर्यावरणीय खतरों को जन्म देता है। नगरपालिका के वेस्ट मैनेजमेंट के असंगठित तरीकों और शहरों और गांवों में खराब सामुदायिक संग्रह, निपटान और परिवहन नेटवर्क के कारण इसका प्रभाव अधिक स्पष्ट है।

ऐसे में प्लास्टिक कचरे और सैनिटरी कचरे के निपटान के मुद्दों से निपटने के लिए, ‘परियोजना श्रीमती’ को जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने शुरू किया है। इस परियोजना को शुरू करनेवाले लोगों का दावा है कि ‘श्रीमती नैपकिन’, जो बांस और केले के रेशों का उपयोग करके तैयार किया जाता है, पर्यावरण के अनुकूल है और 12 पीरियड्स साइकिल तक इस्तेमाल किया जा सकता है। ये नैपकिन पहली नज़र में आम तौर पर रीयूज़ेबल पैड्स की तरह दिखाई देते हैं लेकिन जो उन्हें अन्य समान उत्पादों से अलग करता है वह है कच्चा माल। इस पैड की पहली परत ऊन से बनी होती है और दूसरी परत लाइक्रा की बनी हुई है। रक्त को अवशोषित करने वाला हिस्सा केले और बांस के रेशों से बना हुआ है, जिसके बारे में छात्रों का दावा है कि यह उनका यूनिक सेलिंग पॉइंट (यूएसपी) हैं।

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पैड के उत्पादन में आनेवाली मुश्किलें

जामिया मिल्लिया इस्लामिया छात्र संगठन से जुड़े जामिया के छात्रों ने साल 2019 में रीयूज़ेबल पैड्स के विचार पर काम करना शुरू किया और उत्पाद को अंतिम रूप देने में उन्हें लगभग एक साल से अधिक का समय लगा। द सियासत डेली में छपी रिपोर्ट बताती है कि प्रोजेक्ट से जुड़ी माहम सिद्दीकी के अनुसार अंतिम उत्पाद तक पहुंचने से पहले चार असफल प्रोटोटाइप रहे थे। पैड के अंतिम उत्पाद तक पहुंचने के लिए बहुत शोध और कड़ी मेहनत करनी पड़ी। पैड के अंदर के हिस्से के लिए उनके पास केले और बांस के रेशे होते हैं। बांस फाइबर नैपकिन का मुख्य सोखनेवाला हिस्सा है। केले का फाइबर इसे एक संरचना देता है और इसमें एंटी-बैक्टीरियल गुण भी होते हैं। उत्पाद को अंतिम रूप देने के बाद, नैपकिन का उत्पादन अगला काम था। इस काम के लिए छात्रों को पैड्स के उत्पान में इस्तेमाल होनेवाली मशीनों की ज़रूरत थी और इन मशीनों को प्राप्त करने के लिए छात्रों को धन की आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने दान के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रुख किया। कई कंपनियों के सामने अपने विचार रखने के बाद ये छात्र 2.5 लाख रुपये से अधिक की फंडिंग हासिल करने में सफल रहे। लगभग 22 छात्र इस श्रीमती परियोजना में लगे हुए हैं। समूह को तीन-चार छात्रों की टीमों में उप-विभाजित किया गया है। एक टीम उत्पादन संभालती है, जबकि दूसरी मार्केटिंग आदि का ध्यान रखती है।

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प्रोजेक्ट के तहत बननेवाले पैड्स, तस्वीर साभार: Enactus JMI

एनक्टस के अनुसार–  “एक भारतीय महिला हर महीने औसतन 24 पैड का इस्तेमाल करती है। इस प्रकार हर साल करीब 12 अरब सैनिटरी पैड फेंके जाते हैं। भारत स्वच्छता अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित एक गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। इसके अलावा, पीरियड्स के प्रति हमारे समाज के प्रतिगामी दृष्टिकोण के कारण, इस विषय पर चर्चा का एक महत्वपूर्ण अभाव है और इस प्रकार इस विषय पर चर्चा की अत्यधिक आवश्यकता है। एक अत्यंत आवश्यक स्थायी समाधान की तलाश में, हम Enactus JMI में प्रोजेक्ट श्रीमती के साथ आए।” प्लास्टिक वेस्ट को ख़त्म करने के आलावा इस परियोजना का दूसरा मुख्य उद्देश्य स्लम एरिया की वंचित महिलाओं को बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन बनाने के लिए नियोजित करना और उन्हें आत्मनिर्भर और आत्मनिर्भरता का अवसर प्रदान करके स्थिर आय उत्पन्न कराना है। आज के समय में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बन कर हमारे सामने खड़ी है। ऐसे में इन पैड के उत्पादन में स्लम एरिया की महिलाओं को लगाना और उन्हें आय का अवसर प्रदान करना इन छात्रों द्वारा उठाया गया बड़ा अच्छा कदम है। 

इन सबके आलावा पैड के उत्पादन में लगे छात्रों का उद्देश्य इस प्रयास द्वारा पीरियड्स के बारे में बनी हुई रूढ़िवादी सोच और इसकी बेड़ियों को तोड़ देना है। भारत में लोग अपने पीरियड्स को मैनेज करते समय शर्मिंदा, असहज और कभी-कभी असुरक्षित महसूस करते हैं। प्रोजेक्ट श्रीमती का उद्देश्य न केवल मेंस्ट्रुअल कचरे का समाधान प्रदान करना है, बल्कि पीरियड्स पर एक संवाद भी शुरू करना है, इस प्रकार एक सामाजिक समाधान में योगदान करना है। एनक्टुस का एक अन्य लक्ष्य है हमारे समाज की गरीब और वंचित महिलाओं के बीच रीयूज़ेबल सैनिटरी पैड का दान करना।

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वेस्ट मैनेजमेंट की एक बेहतरीन कोशिश की ओर 

पर्यावरण समूह टॉक्सिक्स लिंक द्वारा जारी अध्ययन के अनुसार एक व्यावसायिक रूप से उपलब्ध गैर-जैविक सैनिटरी पैड (आमतौर पर उपलब्ध लोकप्रिय ब्रांड) को विघटित होने में 250-800 साल तक का समय लगता है या वह पैड कभी भी विघटित नहीं हो सकता है और  इस प्रकार के प्रत्येक पैड में प्लास्टिक होता है जो कि लगभग 4 प्लास्टिक बैग बराबर होता है । अध्ययन के दौरान किए गए सर्वेक्षण से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन उन महिलाओं के बीच सबसे लोकप्रिय विकल्प हैं जो भारत में व्यावसायिक रूप से उपलब्ध उत्पादों का उपयोग कर रही हैं। यही कारण है कि इसका भारी मात्रा में अपशिष्ट होता है।

इन्हें उपयोग करने वाली ज्यादातर महिलाएं इस बात से अनजान हैं कि आमतौर पर उपलब्ध डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन 90 प्रतिशत प्लास्टिक से निर्मित होते हैं और इनके अधिक प्रयोग से प्लास्टिक संकट बढ़ रहा है। इसी अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में इस नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे का कोई उचित प्रबंधन या पुनर्चक्रण नहीं है, और इसलिए यह लैंडफिल में ड़ाल दिया जाता है, जहाँ यह सदियों तक रहता है और वर्षों तक यह सूक्ष्म-प्लास्टिक प्रदूषण में वृद्धि करेगा। शोधकर्ता डॉ. आकांक्षा के अनुसार इसके आलावा अधिकांश इनऑर्गेनिक सैनिटरी पैड में SAP, VOCs, phthalates आदि होते हैं, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं, इनका प्रयोग महिलाओं के शरीर में कैंसर भी कर सकता है । लेकिन हैरानी की बात यह है कि ज्यादातर महिलाएं इसके बारे में अनजान हैं।

एनक्टुस का कहना है कि रिपोर्टों से पता चलता है कि औसतन एक महिला अपने जीवनकाल में लगभग 6000 डिस्पोजेबल सैनिटरी पैड का उपयोग करती है और जो प्रदूषण फैलाने में योगदान करते है। रीयूज़ेबल श्रीमती पैड के मामले में यह संख्या लगभग 130 तक कम की जा सकती है। भले ही 10 महिलाएं हमारे उत्पाद का उपयोग करना शुरू कर दें, 2 साल के भीतर हम 106 किलोग्राम कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में मदद कर सकते हैं।

श्रम विहार इकाई में पिछले साल अगस्त में ‘श्रीमती परियोजना’ के अंतर्गत पैड उत्पादन शुरू किया था और अब तक 1,200 से अधिक पैड का निर्माण हो चुका है। हाल ही में, उन्हें सरकार द्वारा अनुमोदित प्रयोगशाला से उत्पाद की मंजूरी भी मिली। वर्तमान में, इनकी एक टीम गोवा में अपनी दूसरी उत्पादन इकाई के विकास पर काम कर रही है और उसे स्थापित कर चुकी है। भविष्य में, इनका लक्ष्य व्यापक ऑडियंस को लक्षित करने के लिए बायोडिग्रेडेबल डिस्पोजेबल सैनिटरी नैपकिन के साथ-साथ जैविक शिशु उत्पादों को पेश करना है। साथ ही ‘श्रीमती’ की टीम वर्तमान में उत्पाद के मूल में नारियल कॉयर को शामिल करने के लिए अनुसंधान कर रही है, जिससे दक्षिणी भारत के शहरों में इसका विस्तार करने में बहुत सहायता मिलेगी।

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फीचर तस्वीर साभार: Enactus JMI

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