इतिहास इन भारतीय महिला शिक्षाविद् ने शिक्षा जगत में किया अपना स्पेस क्लेम| नारीवादी चश्मा

इन भारतीय महिला शिक्षाविद् ने शिक्षा जगत में किया अपना स्पेस क्लेम| नारीवादी चश्मा

आइए जानते है उन भारतीय महिला शिक्षाविद् को जिन्होंने पितृसत्तात्मक शिक्षा जगत में अपना स्पेस क्लेम किया।

‘टीचर बनना, समाज के हिसाब से हमेशा लड़कियों के लिए सबसे सही प्रोफ़ेशन माना जाता है।‘ यही वजह है कि इस प्रोफ़ेशन में ज़्यादातर महिलाएं देखने को मिलती हैं, लेकिन जब बात आती है भारतीय शिक्षाविद् की तो उस फ़ेहरिस्त में महिला शिक्षिका का नाम बेहद सीमित नज़र आता है।

इतना ही नहीं, हर साल पाँच सितंबर को भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को हमारे देश में शिक्षक दिवस मनाया जाता है लेकिन यहां भी महिला शिक्षाविद का स्मरण तो क्या नाम भी नदारद होता है। यही वजह है कि शिक्षा, शिक्षण और शिक्षाविद् की जब भी बात आती है तो अक्सर इन क्षेत्रों में समाज की ही तरह पितृसत्ता हावी दिखाई देती है, जहां हमेशा महिला शिक्षाविद् को धूमिल छवि के साथ रखा जाता है, जिसके चलते उनके नामपर दिवस तो क्या हम उनके नाम के बारे में भी परिचित नहीं होते हैं। अपने इस लेख में आइए जानते हैं उन भारतीय महिला शिक्षाविद् को जिन्होंने पितृसत्तात्मक शिक्षा जगत में अपना स्पेस क्लेम किया।

सावित्रीबाई फुले

तस्वीर साभार : एबीपी न्यूज़

भारत में संदर्भ में ‘महिला शिक्षा’ की बात सावित्रीबाई फुले के ज़िक्र के बिना अधूरी है। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं, उस दौर में जब महिलाओं के लिए शिक्षा एक बहुत ही दुर्लभ चीज़ हुआ करती थी। लेकिन सावित्रीबाई फुले ने इन तमाम रूढ़िवादिताओं को चुनौती दी और जाति प्रथा पर कुठाराघात करते हुए उन्होंने पुरुष वर्चस्व वाले शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का स्पेस क्लेम किया। उस समय महिलाओं का संगठित होकर अपने मूल अधिकारों के लिए लड़ना, सोच से भी परे था। पर इस सोच को बदलने और भारत में महिला शिक्षा को बढ़ावा देने की दिशा में सावित्रीबाई फुले खुद एक जीवंत उदाहरण बनीं। उन्होंने न केवल महिला शिक्षा बल्कि जाति प्रथा जैसी कई सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध समाज सुधार का काम किया।

महज़ नौ साल की उम्र में सावित्रीबाई का बाल-विवाह हो गया था और जिस समय उनकी शादी हुई उस समय वह अनपढ़ थीं। लेकिन शादी के बाद अपने पति ज्योतिराव फुले की मदद से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और भारत में लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल शुरू किया।

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फ़ातिमा शेख़

तस्वीर साभार : बीबीसी

सावित्रीबाई फुले की यात्रा के साथ फ़ातिमा शेख़ की यात्रा भी शुरू हुई और वह भारत की पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका बनीं। समाज के हाशिएबद्ध अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक़ रखने की वजह से उन्हें कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन ये कठिनाइयाँ फ़ातिमा के बढ़ते कदम को रोक नहीं पाई। फ़ातिमा ने अपने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर शिक्षिका बनने का सपना पूरा किया। उनका हमेशा से ये सपना था कि और भी अधिक मुस्लिम महिलाएँ शिक्षा के क्षेत्र में आगे आए। इस दिशा में फ़ातिमा शेख़ ने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर दलित व वंचित समुदाय और जातियों के लिए शिक्षा देने के साथ-साथ 1848 में लड़कियों और महिलाओं के लिए भारत में लड़कियों के लिए पहले स्कूल की स्थापना भी की। लेकिन यह हमारे समाज और शिक्षा जगत का दुर्भाग्य है कि स्त्रीमुक्ति आंदोलन की अहम किरदार रहीं फ़ातिमा शेख़ के बारे में आज भी ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है और उनपर हमारा इतिहास भी मौन मालूम पड़ता है।

शिक्षा, शिक्षण और शिक्षाविद् की जब भी बात आती है तो अक्सर इन क्षेत्रों में समाज की ही तरह पितृसत्ता हावी दिखाई देती है, जहां हमेशा महिला शिक्षाविद् को धूमिल छवि के साथ रखा जाता है, जिसके चलते उनके नाम पर दिवस तो क्या हम उनके नाम के बारे में भी परिचित नहीं होते हैं।

असीमा चटर्जी  

तस्वीर साभार : नवभारत टाइम्स

विज्ञान को अक्सर पुरुषों का विषय या क्षेत्र माना जाता है क्योंकि पितृसत्ता तर्क के संदर्भ में हमेशा पुरुषों की छवि ही गढ़ती है। लेकिन असीमा चटर्जी ने विज्ञान की दुनिया में अपने मुक़ाम से इस छवि को चुनौती देने का काम किया। असीमा सफल ऑर्गेनिक केमिस्ट होने के साथ-साथ भारत में डॉक्टरेट ऑफ साइंस की उपाधि पाने वाली प्रथम महिला भी हैं। असीमा चटर्जी ने अपने शोध के माध्यम से प्राकृतिक उत्पादों के रसायन विज्ञान पर काम किया और ऐंठन-रोधी, मलेरिया-रोधी और कीमोथेरेपी दवाएं विकसित की। असीमा ने वेनेका अल्कोडिश को शोध के लिए चुना और कई गंभीर बिमारियों में इसके उपयोग को साबित किया। यह शरीर की कोशिकाओं में फैलकर कैंसर के फैलने की गति को काफी धीमा कर देता है। असीमा ने विज्ञान के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान से इस क्षेत्र में महिलाओं के लिए नए द्वार खोलने का काम किया।

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रमाबाई रानाडे

तस्वीर साभार : लोकसत्ता

जब भी भारतीय महिला शिक्षाविद् की चर्चा होती है तो रमाबाई रनाडे का ज़िक्र ज़रूर किया जाता है। ग्यारह साल की छोटी उम्र में बाल-विवाह होने के बाद अपने पति के प्रोत्साहित करने के बाद रमाबाई रनाड़े ने अपनी पढ़ाई पूरी। 19वीं तथा 20वीं सदी के शुरुआती 25 सालों में महिलाओं की प्रगति का श्रेय चंद समाज सुधारकों को जाता है, जिनमें रमाबाई रानडे का एक प्रमुख स्थान है। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा, उनके वैधानिक अधिकारों, समान स्तर, आम जागृत और ख़ासकर उनको नर्सिंग-व्यवसाय में प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए अथक कार्य किया। रमाबाई रानडे ने बाल-विवाह के विरुद्ध भी अविराम संघर्ष किया। रमाबाई ने जब नर्सिंग क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना शुरू किया तो रूढ़िवादी मान्यताओं ने उनका काफी विरोध लेकिन इसके बावजूद रमाबाई ने महिलाओं और विधवाओं को सेवा-सदन के माध्यम से चलाए जाने वाली नर्सिंग प्रशिक्षण में प्रवेश लेने व प्रोत्साहित करने का काम ज़ारी रखा।

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महादेवी वर्मा

तस्वीर साभार : स्कॉटबज

भारतीय हिन्दी साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में महादेवी वर्मा एक जानी-मानी लेखिका व शिक्षाविद् रही हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने की वजह से महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद का भारत भी देखा था, जिसका प्रभाव हमेशा उनके लेखन में देखने को मिलता है। महादेवी अपनी लेखनी से सजगता और निडरता के साथ भारत की नारी के पक्ष में लड़ती रहीं। नारी शिक्षा की ज़रूरत पर जोर से आवाज़ बुलंद की और खुद इस क्षेत्र में कार्यरत रहीं। उन्होंने गांधीजी की प्रेरणा से संस्थापित प्रयाग महिला विद्यापीठ में रहते हुए अशिक्षित जनसमूह में शिक्षा की ज्योति फैलायी थी। शिक्षा प्रचार के संदर्भ में वे सुधारकों की अदूरदर्शिता और संकुचित दृष्टि पर खुलकर वार करती हैं। नारी में यौन तत्व को ही प्रधानता देनेवाली प्रवृतियों का उन्होंने विरोध किया। उनके अनुसार निर्जीव शरीर विज्ञान ही नारी के जीवन की सृजनतात्मक शक्तियों का परिचय नहीं दे सकता।

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बेगम ज़फ़र अली

तस्वीर साभार : फ़ेमिनिज़म इन इंडिया

कश्मीर की प्रसिद्ध शिक्षाविद्, महिला अधिकारों के लिए अपनी मुखरता के बेग़म ज़फ़र अली आज भी जानी जाती हैं। वह पहली कश्मीरी मैट्रिक पास महिला थीं जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी नवाजा गया। बेगम ज़फर अली का नाम उन बड़ी हस्तियों में शामिल हैं जिन्होंने भारतीय समाज में शिक्षा के महत्व के बारे में प्रचार किया। उस दौर में महिलाओं को खुलकर जीने का अधिकार नहीं था। ऐसे में महिलाओं के लिए शिक्षा बहुत दूर की बात थी। बेगम ज़फर अली पहली भारतीय महिला रही जिन्होंने महिलाओं को शिक्षा से अवगत कराया। उनको शिक्षित होने के लिए अधिक से अधिक जागरूक किया। उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने और अपने हक के लिए खड़ा होना सिखाया। वह कश्मीर घाटी में महिलाओं शिक्षा जागरूकता के बहुत से सार्वजनिक कार्यक्रमों और स्कूलों में भाषण देने जाती थी। बेगम ज़फर अली ने महिला सशक्तिकरण के लिए अनेक प्रयास किए।

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