समाजमीडिया वॉच पुरुषों के एकाधिकार के बीच लैंगिक असमानता को खत्म करने में मीडिया की भूमिका

पुरुषों के एकाधिकार के बीच लैंगिक असमानता को खत्म करने में मीडिया की भूमिका

मीडिया वह शक्तिशाली माध्यम है जिसके माध्यम से विषय को सही तरीके से एड्रेस करके, उसके बारे मे सटीक जानकारी देकर बदलाव लाया जा सकता है। मीडिया की भी जवाबदेही है कि वह नागरिक हितों के मुद्दों को उठाए और बिना किसी विचारधारा से प्रभावित हुए चीजों को बदलने का काम करें। महिलाओं के मुद्दों और लैंगिक समानता को स्थापित करने में भी मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

हम ऑन स्क्रीन क्या देखते हैं उसका ऑफ स्क्रीन बहुत असर पड़ता है। यानी हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी में मीडिया की एक अहम भूमिका होती है। अखबार, टीवी, इंटरनेट से जानकारी हासिल कर लोग अपनी राय बनाते हैं। हर तरह के सामाजिक मूल्यों की समझ बनाने में ख़बरें, लेख और रिपोर्ट बहुत सहायक होती है। मीडिया वह शक्तिशाली माध्यम है जिसके ज़रिये विषय को सही तरीके से एड्रेस करके, उसके बारे मे सटीक जानकारी देकर बदलाव लाया जा सकता है। मीडिया की भी जवाबदेही है कि वह नागरिक हितों के मुद्दों को उठाए और बिना किसी विचारधारा से प्रभावित हुए चीजों को बदलने का काम करें। ठीक इसी तरह महिलाओं के मुद्दों और लैंगिक समानता को स्थापित करने में भी मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 

लेकिन मीडिया आज भी पारंपरिक पूर्वाग्रहों और मेलगेज़ से ही खबरों को दिखाता आ रहा है। आइए इस लेख के माध्यम से चर्चा करते हैं उन कदमों के बारे में जिन्हें अपनाकर मीडिया लैंगिक समानता को स्थापित कर सकता है। कैसे मीडिया महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों के बारे में सूचित कर उनकी सामाजिक स्थिति को बेहतर करने की दिशा में प्रयास कर सकता है लेकिन इस बदलाव की शुरुआत तभी होगी जब वह पहले खुद को बदलेगा।

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वर्तमान मीडिया का ढ़ांचा एक विशेष जाति आधारित मीडिया है। इसे एलीट मीडिया या ब्राह्मणवादी मीडिया कहें तो उसमें किसी तरह की नाराज़गी या आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

ख़बरों में महिला और उनसे जुड़े मुद्दे शामिल करना

मीडिया किसी भी मुद्दे से जुड़ी जानकारी को लोगों तक पहुंचाने का एक मज़बूत माध्यम है। ऐसे में वह महिलाओं के मुद्दों को लोगों तक पहुंचाने में एक अहम भूमिका निभा सकता है। लेकिन इन खबरों और मुद्दों को मीडिया किस तरह दिखाता है यह बहुत अहमियत रखता है। महिलाओं के मुद्दों को उठाने के साथ-साथ यह ध्यान रखना भी बहुत ज़रूरी है कि इन मुद्दों को कितने समावेशी तरीके से दिखाया जा रहा है। इसमें हर वर्ग, जाति, धर्म और समुदाय की महिला से जुड़ी ख़बरों को कितना स्पेस दिया जा रहा है। महिलाओं से जुड़ी ख़बरों में दलित, बहुजन और आदिवासी और हाशिये के वर्ग से आनेवाली सभी महिलाओं के पक्ष का ज्यादा आगे रखने की आवश्यकता है। इससे जुड़े मुद्दों को कितना स्पेस दिया जा रहा है, उसे कैसे दिखााया जा रहा है इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। साथ ही हर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि मुद्दे में एक समावेशी लैंगिक नज़रिया होना चाहिए।  

ग्लोबल मीडिया मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट 2020 के अनुसार भारत में जेंडर आधारित ख़बरों को बहुत कम रिपोर्ट किया जाता है। वहीं इन मुद्दों को कौन रिपोर्ट कर रहा है यह भी बेहद मायने रखना है। मीडिया में महिलाओं के पक्ष सामने आने से उनसे जुड़े रूढ़िवादी विचारों को खत्म करने मदद मिलती है। जब महिलाएं अपना पक्ष रखती हैं तो उनका नज़रिया, उनकी ज़रूरतें सामने आती हैं। इस रिपोर्ट में यह बात भी साफ निकलकर आई है कि कुछ मुद्दों को महिला रिपोर्टर्स ने अब तक कवर नहीं किया जबकि पुरुष रिपोर्टर के लिए मुद्दों के चयन के लिए कोई बाधा नहीं है। उन्होंने हर तरह के विषयों को कवर किया है।

आमतौर पर हमें राजनीतिक, आर्थिक, विज्ञान, खेल और स्वास्थ्य आदि विषयों पर पुरुषों द्वारा की गई रिपोर्टिंग अधिक देखने को मिलती है। मीडिया जब तक खुद की भीतर की तस्वीर नहीं बदलेगा उसकी कथनी और करनी में अंतर बना ही रहेगा।

ग्लोबल मीडिया मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट 2020 के अनुसार भारत में जेंडर आधारित ख़बरों को बहुत कम रिपोर्ट किया जाता है। वहीं इन मुद्दों को कौन रिपोर्ट कर रहा है यह भी बेहद मायने रखना है। मीडिया में महिलाओं के पक्ष सामने आने से उनसे जुड़े रूढ़िवादी विचारों को खत्म करने मदद मिलती है। जब महिलाएं अपना पक्ष रखती हैं तो उनका नज़रिया, उनकी ज़रूरतें सामने आती हैं जिससे समावेशी समाज की नींव स्थापित होने में मदद मिलती है।

पुरुषों का मीडिया, पुरुषों की राय

मीडिया की आवाज़ में बड़ी संख्या में पुरुषों का दबदबा है। ये पुरुष ज्यादातर उच्च वर्ग और जाति से आते हैं। हर प्राइम टाइम में पुरुष एंकर मुद्दे पर बहस करते नज़र आते हैं। देखा जाए तो ख़बरों पर पक्ष रखने का काम सिर्फ पुरुषों द्वारा किया जा रहा है। इससे यह अर्थ भी निकलता है कि राय बनाने वाला पक्ष विषेशाधिकार प्राप्त है। मीडिया लैंगिक मुद्दों को निजी दायरे से बाहर निकालने का काम कर सकता है। जेंडर के मुद्दे को राजनीतिक एजेंडे में शामिल करने का काम कर सकता है। भारतीय मीडिया के मौजूदा ढ़ांचे को देखकर कहा जा सकता है कि यह एक मेल डोमिनेट इंडस्ट्री है। यहां ख़बरों को कहने वाले और उनको तय करने वालों में बड़ा हिस्सा पुरुषों का है।

यूनाइटेड नेशन वीमन की जेंडर इन्क्वालिटी इन इंडियन मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक मुद्दों पर बहस, लेख चर्चाओं की भारी कमी है। रिपोर्ट के अनुसार टीवी, अख़बार, डिजिटल, मैगज़ीन और रेडियो में जेंडर आधारित मुद्दों की मौजूदगी न के बराबर है। अंग्रेजी अख़बारों में केवल 2.6 प्रतिशत लेख लैंगिक मुद्दों पर थे और केवल 39.6 प्रतिशत लेख महिलाओं के लिखे हुए थे। अगर हिंदी अख़बारों की बात करें तो केवल तीन फीसदी लेख जेंडर के मुद्दों पर आधारित थे। डिजिटल मीडिया के सभी लेखों में केवल 3.7 प्रतिशत में लैंगिक मुद्दों को उठाया गया।

महिलाओं से जुड़ी ख़बरों में दलित, बहुजन और आदिवासी और हाशिये के वर्ग से आनेवाली सभी महिलाओं के मुद्दों को कितना स्पेस दिया जा रहा है, उसे कैसे दिखााया जा रहा है इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। साथ ही हर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि मुद्दे में एक समावेशी लैंगिक नज़रिया शामिल किए जाने की ज़रूरत है। 

बहसों में महिलाओं का पक्ष

कहा जाता है जिसकी समस्या है वह उसको ज्यादा बेहतर समझता है। दूसरे पक्ष से बस यह उम्मीद होती है कि वह संवेदनशील होकर उस विषय को समझे। ठीक ऐसा ही मीडिया में होनेवाली बहसों के बारे में भी कहा जा सकता है। भारतीय मीडिया में होने वाली वाली चर्चा में महिलाओं के पक्ष को सबसे ज्यादा नज़रअंदाज किया जाता है। किसी भी मुद्दे पर महिलाओं की क्या राय है, नीति-निर्माण में उनका पक्ष कैसा होना चाहिए और सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर वे क्या सोचती हैं इसकी बेहद कमी नज़र आती है।

अगर हम भारतीय न्यूज़ चैनलों में होनेवाली चर्चाओं में महिला पैनलिस्ट की बात करें तो उनका पक्ष इससे पूरी तरह गायब है। इंडियास्पेंड में छपी ख़बर के अनुसार पैनल में पुरुषों को ज्यादा वरीयता दी जाती है। इन बहसों में महिलाओं के मुकाबले चार गुना अधिक पुरुषों को राय-विमर्श के लिए शामिल किया जाता है। राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय जैसे मुद्दों पर बहस में महिलाएं बतौर पैनलिस्ट बहुत कम शामिल की जाती हैं।

नैशनल हेराल्ड में छपी ख़बर के आधार पर बात करे तो टीवी मीडिया में होने वाली चर्चा में पुरुषों को ज्यादा वरीयता दी जाती है। एक स्टडी के अनुसार मीडिया के पैनल 86 फीसद पुरुष होते हैं। महिलाओं का इन पैनल में शामिल न होने से यह संदेश जाता है कि महिलाएं इन मुद्दों पर अपनी राय नहीं रखती हैं। इस तरह से चलती आ रही मीडिया के काम करने की शैली को बदलने की आवश्यकता है। लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए हर मुद्दे के हर पक्ष को जाहिर करने के लिए चर्चाओं में महिला को शामिल करना भी उतना ही ज़रूरी है जितना पुरुषों को किया जाता है।

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महिलाओं के काम और योगदान को दिखाए जाने की ज़रूरत है

महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व को लागू करने की दिशा में मीडिया अपनी भूमिका के तहत उनको प्रोत्साहित करने का काम कर सकता है। इतिहास में महिलाओं के भूमिका पर चर्चा करके, उन पुरखिनों के योगदान के बारे में सबको बताया जा सकता है जिन्होंने देश की स्वतंत्रता में, इसके निर्माण में अहम भूमिक निभाई है। अलग-अलग क्षेत्रों मसलन खेल, मनोरंजन, विज्ञान, राजनीति आदि में योगदान दे रही महिलाओं को शामिल किए जाने की ज़रूरत है। संगठित, असंगठित दोंनो ही क्षेत्रों की महिलाओं को समान रूप से कवर किए जाने की ज़रूरत है।

मेनस्ट्रीम मीडिया को इस बात का भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि हर वर्ग का समान प्रतिनिधित्व हो। आज़ादी दिलाने में जितना योगदान लक्ष्मीबाई का है उतनाी ही योगदान झलकारी बाई का भी है। लेकिन दोंनो की वीरता और आजा़दी के लिए शहादत का बराबर होने के बावजूद झलकारी बाई के बारे में लोगों को कम जानकारी है। मीडिया को हर वर्ग, समुदाय की महिलाओं की महान शख्सियत के बारे में बात करनी होगी, इससे हर समूह-वर्ग की औरतों के सहयोग को दर्ज किया जा सकता है, लोगों को सही जानकारी देकर इस बाधा को दूर कर सकते हैं।

मीडिया मैनेजमेंट में महिलाओं को शामिल करना

मीडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या वर्तमान में पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा है लेकिन पुरुषों के मुकाबले बराबरी अभी भी दूर है। दूसरी ओर मौजूदा महिलाएं कौन से पद पर हैं यह भी बहुत मायने रखता है। महत्वपूर्ण निर्णायक भूमिका में किसका, कितना हिस्सा है यह फैसले के परिणाम में साफ जाहिर होता है। भारत में मीडिया संस्थानों में शीर्ष पदों पर महिलाएं आज भी बहुत कम हैं जिस वजह से निर्णल लेने के रोल से वह गायब है। मीडिया लैंगिक असमनता के मुद्दे पर और अधिक मुखर तब हो सकता है जब ख़बरों को बनाने वाले ढ़ाचे में महिलाएं नेतृत्व करें। इसके अलावा वह भागीदारी कितनी समावेशी है इस नियम को भी लागू करना आवश्यक होता है। हर वर्ग, समुदाय के लोगों को मीडिया जब तक अपने मैनेजमेंट में शामिल नहीं करेगा तबतक इस सिद्धांत को वह काम में शामिल करने से दूर ही खड़ा नज़र आएगा।

ख़बरें प्रस्तुत करने से अलग, संस्थान के हर निर्णय में उनका मत शामिल हो। मीडिया न्यूजरूम में जितनी ज्यादा महिलाएं होगी उससे उनका पक्ष मजबूत होगा। संस्थान के तौर पर इस तरह मीडिया खुद लैंगिक समानता लागू करने की दिशा में पहल करेगा। वर्तमान मीडिया का ढ़ांचा एक विशेष जाति आधारित मीडिया है। इसे एलीट मीडिया या ब्राह्मणवादी मीडिया कहें तो उसमें किसी तरह की नाराज़गी या आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

मीडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या वर्तमान में पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा है लेकिन पुरुषों के मुकाबले बराबरी अभी भी दूर है। दूसरी ओर मौजूदा महिलाएं कौन से पद पर हैं यह भी बहुत मायने रखता है। महत्वपूर्ण निर्णायक भूमिका में किसका, कितना हिस्सा है यह फैसले के परिणाम में साफ जाहिर होता है।

ऑक्सफैम की मीडिया संस्थान में जाति के प्रतिनिधित्व पर आधारित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारतीय मीडिया का चेहरा तथाकथिक ऊंची जाति का है। रिपोर्ट में 121 में से 106 में न्यूजरूम की लीडरशीप पोजिशन में एडिटर इन चीफ़, मैनेजिंग एडिटर, एक्जीक्यूटिव एडिटर, इनपुट-आउटपुट एडिटर जैसे पदों पर पर सामान्य जाति वर्ग के लोग कार्यरत हैं। इनमें से एक में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग शामिल नहीं हैं। डिबेट करवाने वाले हर चार एंकर में से तीन तथाकथित ऊंची जाति के है। कोई दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं है। ठीक इसी तरह पैनल में भी 70 प्रतिशत ऊंची जाति के पैनलिस्ट शामिल होते हैं। हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में जाति के मुद्दे पर लिखने वालों में भी अधिकतर ऊंची जाति से हैं।

तमाम आंकड़ों और मीडिया रिपोर्ट्स से गुजरते हुए यह तस्वीर साफ होती है कि मीडिया का चेहरा एक विशेषाधिकार वाला है। मीडिया के भीतर खुद कई स्तरों पर सुधार होने की आवश्यकता है जिसके बाद सूचनाओं और ख़बरों को दिखाने के प्रारूप को बदला जाएं। लैंगिक असमानता जैसे विषय को संवेदनशीलता से रिपोर्ट करने के लिए मीडिया हाउस को खुद के स्ट्रक्चर को भी सुधारने की आवश्यकता है। भीतरी ढ़ांचे में बदलाव के बाद ख़बरों और विषय की गंभीरता को ज्यादा बेहतर तरीके से समझकर जेंडर के आधार पर होनेवाले भेदभाव को खत्म करने के लिए मीडिया अपनी बात को ज्यादा ईमानदारी से कह सकता है।  

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तस्वीर साभारः What will it take

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