इंटरसेक्शनलजेंडर बात भारतीय न्यूज़रूम में लैंगिक प्रतिनिधित्व और भेदभाव की

बात भारतीय न्यूज़रूम में लैंगिक प्रतिनिधित्व और भेदभाव की

सामाजिक धारणाओं, मान्यताओं और मानदंडों को आकार देने में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी असंख्य जिम्मेदारियों में एक ये है कि मीडिया संस्थानों में सभी जेंडर का प्रतिनिधित्व हो, जो लोगों को स्वयं को और दूसरों को समझने में मदद करे। मुख्यधारा का मीडिया अक्सर लोगों के चित्रण के माध्यम से लैंगिक रूढ़िवादिता को कायम रखता है। टेलीविजन शो, फिल्में, विज्ञापन और समाचार कवरेज अक्सर पारंपरिक लैंगिक मानदंडों को मजबूत करते हुए रूढ़िवादी भूमिकाओं में पुरुषों और महिलाओं को दर्शाते हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं को अक्सर देखभाल करने वाली या यौन वस्तुओं के रूप में चित्रित किया जाता है, जबकि पुरुषों को मजबूत और प्रभावशाली रूप में चित्रित किया जाता है। इस तरह के प्रतिनिधित्व न केवल व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को सीमित करते हैं बल्कि लैंगिक असमानता के सामान्यकरण में भी योगदान करते हैं।

जेंडर के बारे में मुख्यधारा मीडिया का प्रतिनिधित्व सामाजिक दृष्टिकोण और व्यवहार को गहरे तरीकों से प्रभावित करता है। अध्ययनों से पता चला है कि लैंगिक रूढ़िवाद मीडिया के संपर्क में आने से व्यक्तियों की अपने और दूसरों के बारे में मान्यताओं को आकार मिल सकता है। लैंगिक रूढ़िवादिता को कायम रखने में अपनी भूमिका के बावजूद, मीडिया के पास सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने और उन्हें नया रूप देने की शक्ति भी है। तेजी से, मीडिया सामग्री में लिंग के अधिक विविध और समावेशी प्रतिनिधित्व का आह्वान किया गया है।

संयुक्त राष्ट्र के 2019 की रिपोर्ट अनुसार न्यूज़रूम में नेतृत्व पदों पर महिलाओं की संख्या की बात करें, तो मैगज़ीन में 13.6 प्रतिशत, टीवी चैनल में 20.9 फीसद, डिजिटल पोर्टल में 26.3 प्रतिशत और न्यूजपेपर में कोई भी महिला नेतृत्व पदों पर नहीं है।

अनुभवों और पहचानों की एक व्यापक श्रृंखला का प्रदर्शन करके, मीडिया मौजूदा रूढ़ियों को चुनौती दे सकता है और सहानुभूति और समझ को बढ़ावा दे सकता है। इसके अलावा, हाशिए पर रह रहे समुदायों की आवाज को बढ़ाकर, मीडिया प्रणालीगत असमानताओं को दूर करने में योगदान कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के 2019 की रिपोर्ट अनुसार न्यूज़रूम में नेतृत्व पदों पर महिलाओं की संख्या की बात करें, तो मैगज़ीन में 13.6 प्रतिशत, टीवी चैनल में 20.9 फीसद, डिजिटल पोर्टल में 26.3 प्रतिशत और न्यूजपेपर में कोई भी महिला नेतृत्व पदों पर नहीं है। वहीं अंग्रेजी प्राइम टाइम टीवी चैनलों पर जेंडर प्रतिनिधित्व 2019 से 2020 तक कम हो गया है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

मुख्यधारा के मीडिया में लैंगिक प्रतिनिधित्व के बारे में संवाद और जागरूकता को बढ़ावा देने के लिए, हमने मौजूदा समय में दैनिक भास्कर के साथ काम कर रही पत्रकार शिवांगी सक्सेना के साथ बातचीत की। उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया में लैंगिक प्रतिनिधित्व के विभिन्न तरीकों के बारे में विस्तार से बताया। ऐसे उदाहरणों पर प्रकाश डाला जहां लैंगिक प्रगति के बावजूद, असमानताएं बनी हुई हैं। जैसेकि दलित महिला पत्रकार और मुस्लिम पत्रकार के साथ उच्च जाति के समकक्षों की तुलना में अलग-अलग व्यवहार किया जाता हैं।

अक्सर आप देख सकते हैं कि क्राइम बीट जैसे मुद्दों में महिलाओं को कन्सिडर नहीं किया जाता, क्योंकि मीडिया में ये धारणा है कि  लड़कियों के लिए क्राइम या राजनीति जैसे मुद्दे नहीं हैं। जब ऐसी कोई अवसर आपको मिलती भी है, तो बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

वे बताती हैं, “अक्सर आप देख सकते हैं कि क्राइम बीट जैसे मुद्दों में महिलाओं को कन्सिडर नहीं किया जाता, क्योंकि मीडिया में ये धारणा है कि  लड़कियों के लिए क्राइम या राजनीति जैसे मुद्दे नहीं हैं। जब ऐसी कोई अवसर आपको मिलती भी है, तो बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मैं महिला पत्रकार के रूप में ये बात कह सकती हूं कि ग्राउन्ड ही हमारा कर्मस्थल है और ग्राउन्ड में ही हमारे साथ ग़लत तरीके से व्यवहार किया जाता है। कई बार ग्राउन्ड में रहते हुए या प्रोटेस्ट कवर करते हुए जब ज्यादा भीड़ होती है, तो हमारे साथ यौन हिंसा भी होती है (जैसे किसीका गलत तरीके से छूना), जो काम की हड़बड़ाहट में समझ नहीं आता लेकिन बाद में मानसिक रूप से बहुत परेशान करता है।”

मीडिया में जातिवाद और ग्राउन्ड की चुनौतियां

तस्वीर साभार: AlJazeera

मीडिया में जातिवाद के विषय पर बात करते हुए, शिवांगी यह जोड़ती हैं कि अनेक बार लोगों की जाति के कारण उन्हें मौका नहीं मिलता। रीजनल मीडिया में ऐसे मौके ही नहीं होते कि कोई भी महिला वहां काम कर सकें और क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से भी, महिलाओं को बहुत कम मौका मिलता है। राजस्थान और चंडीगढ़ जैसे स्थानों में महिलाओं को कोई अवसर उपलब्ध नहीं होता। ग्राउन्ड रिपोर्टिंग की एक घटना बताते हुए शिवांगी बताती हैं, “मैं हल्द्वानी वाली एक केस पर काम कर रही थी जहां मैंने प्रशासन के खिलाफ़ लिखा था, जिसके दो दिन बाद मुझे पुलिस स्टेशन बुलाया गया और 2 घंटे बैठाकर परेशान किया गया। मुझसे कहा गया था मैं वो बयान वाली रिपोर्ट डिलीट कर दूं मगर हमने ऐसा नहीं किया। पुलिस अक्सर ऐसे तरीके आज़मा कर महिला पत्रकारों को डराती है। मुझसे यहां तक कह दिया गया था कि मैं अपने घर का पता लिखूं जहां वे लोग लीगल नोटिस भेजेंगे। मगर मेरे एडिटर ने मेरा बहुत साथ दिया और हमें वहां से बचाकर निकाला।”

रीजनल मीडिया में ऐसे मौके ही नहीं होते कि कोई भी महिला वहां काम कर सकें और क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से भी, महिलाओं को बहुत कम मौका मिलता है। राजस्थान और चंडीगढ़ जैसे स्थानों में महिलाओं को कोई अवसर उपलब्ध नहीं होता।

क्या जनता मीडिया में महिलाओं को गंभीरता से लेती है

भारतीय जनता जेंडर को मीडिया में कैसे समझती या देखती है, इसपर लेखक हिमांशु जमदग्नि कहते हैं, “जनता कभी भी महिला पत्रकारों को गंभीरता से नहीं लेते।” एक उदाहरण के रूप में, उन्होंने कहा, “आप देखिए स्वतंत्रता के बाद, कितनी महिला पत्रकार प्राइम टाइम में रही हैं और उन्हें कितनी गंभीरता से लिया गया है। कितनी महिला पत्रकारों को खबरों का विश्लेषण करने का अवसर मिलता है।” मीडिया में विभिन्न प्रकार के भेदभाव होते हैं। इसपर हिमांशु जोड़ते हुए बताते हैं कि जब हम जेंडर के बारे में बात करते हैं, तो हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि न केवल लैंगिक भेदभाव, बल्कि क्षेत्रीयता और जातिवाद के आधार पर भी भेदभाव होते हैं। वे कहते हैं, “आप देखिए मीडिया में कितनी ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों से महिलाओं को अवसर मिलता है, कितनी महिलाएं शहरों से है और कितनी दलित और आदिवासी समुदायों से।”

मीडिया इंडस्ट्री में होता यौन उत्पीड़न और भेदभाव

हिमांशु बताते हैं, “मीडिया के अलावा, महिलाओं के साथ काम वाली दुनिया में हमेशा से उत्पीड़न के मामले सामने आते रहे हैं। कभी सेक्सिस्ट जोक्स के रूप में, कभी अन्य तरीकों में। अक्सर महिलाएं इसके खिलाफ़ नहीं बोल सकती। वे खुलकर अपनी बात नहीं कह पातीं क्योंकि उन्हें परिवार या समाज में उनकी स्थिति का डर होता है। उत्पीड़न केवल महिलाओं के साथ ही नहीं, बल्कि पुरुषों के साथ भी होता है, और काम की दुनिया में भी। लेकिन इसके बारे में पुरुष अक्सर किसी से भी कुछ नहीं कह पाते, क्योंकि समाज ने इसे ही नॉर्म बना बना दिया है। गांव में लड़कों के साथ बचपन और लड़कपन में जो व्यवहार किया जाता है, वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसे हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है।” हिमांशु का मानना है कि हमें किसी भी स्तर पर लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए संवेदनशील होना बहुत जरूरी है, ताकि हम एक-दूसरे की समस्याओं को समझ सकें।

आप देखिए स्वतंत्रता के बाद, कितनी महिला पत्रकार प्राइम टाइम में रही हैं और उन्हें कितनी गंभीरता से लिया गया है। कितनी महिला पत्रकारों को खबरों का विश्लेषण करने का अवसर मिलता है।

पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर करना होगा काम  

फेमिनिज़म इन इंडिया

जेंडर स्टडीस के अध्यापक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रिसर्च स्कालर मयूख लाहिरी इस विषय पर समझते हैं, “मीडिया में जेंडर की समस्याओं के बारे में जब भी हम बात करते हैं, तो हमारे भीतर यह पूर्वाग्रह होती है कि ये महिलाओं से जुड़ा ही कोई विषय होगा, जो मान लेना काफ़ी हद तक ग़लत है। जेंडर के विषय में बात करने का मतलब है कि हर जेंडर को ध्यान में रखकर समझना हैं और उसे स्वीकारना है, जो की किसी किसी विषय में पुरुषों और नॉन-बाइनरी से जुड़ा विषय भी हो सकता है। मीडिया में जिस प्रकार से नॉन-बाइनरी लोगों का प्रतिनिधित्व किया गया है, वो अब तक बहुत कम है।”

मीडिया में जेंडर की समस्याओं के बारे में जब भी हम बात करते हैं, तो हमारे भीतर यह पूर्वाग्रह होती है कि ये महिलाओं से जुड़ा ही कोई विषय होगा, जो मान लेना काफ़ी हद तक ग़लत है। जेंडर के विषय में बात करने का मतलब है कि हर जेंडर को ध्यान में रखकर समझना हैं और उसे स्वीकारना है, जो की किसी किसी विषय में पुरुषों और नॉन-बाइनरी से जुड़ा विषय भी हो सकता है।


जेंडर जैसे संवेदनशील मुद्दों को और गहराई में बताते हुए वे जोड़ते हैं, “अक्सर पुरुषों और महिलाओं को उनके व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार साबित किया जाता है। जैसेकि एक मर्द कितना मर्दाना हरकतें रखता है और एक महिला किस प्रकार से महिला बनी रह सकती हैं, ये दोनों बातें असंवेदनशील है।” मीडिया में ऐसे विज्ञापनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि समाज में महिलाओं को अलग-अलग तरीके से देखा और रखा जाता है। उन्होंने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे विज्ञापनों का उदाहरण दिया और कहा कि इससे सामाजिक रूप से महिलाओं को इंसान होने का कोई मार्जिन नहीं दिया जाता। वे हमेशा सिर्फ एक औरत या लड़की की भूमिका में ही देखी जाती हैं।

मीडिया में लैंगिक चित्रण की अंतिम विमर्श करते हुए, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारतीय मुख्यधारा मीडिया में अभी भी महिलाओं का समाज में योगदान समझने की दिशा में और सम्मान की दिशा में और भी बढ़ने की आवश्यकता है। महिलाओं को केवल उनके रोल के लिए ही नहीं, बल्कि उनकी व्यक्तित्व, क्षमताओं, और योगदान को मान्यता देने के लिए उन्हें समाज में न्यायसंगत स्थान पर स्थापित किया जाना चाहिए। समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए, मीडिया को समय-समय पर समझाने और उन्नति का रास्ता खोलने की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए।

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