सुप्रीम कोर्ट ने बीते गुरुवार को फैसला सुनाया कि सभी महिलाएं अपने गर्भधारण के 24 सप्ताह तक अबॉर्शन करवा सकती हैं। इसके लिए उनका शादीशुदा होना या न होना मायने नहीं रखता है। इस फैसले से पहले, भारत के अबॉर्शन कानून के तहत, विवाहित महिलाएं अपनी गर्भधारण में 24 सप्ताह तक अबॉर्शन करवा सकती थीं, लेकिन एकल महिलाएं 20 सप्ताह तक ही अबॉर्शन करा सकती थीं। गुरुवार को कोर्ट ने अपने फैसले द्वारा सभी महिलाओं के लिए अबॉर्शन की अवधि 24 हफ्ते तक अवधि बढ़ा दी।
पिछले गुरुवार सुप्रीम कोर्ट अविवाहित महिलाओं को गर्भधारण अवधि के 20-24 सप्ताह के बीच अबॉर्शन के लिए अक्टूबर 2021 में संशोधित मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट के नियम 3बी के दायरे में शामिल करने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। यह याचिका एक 25 वर्षीय अविवाहित महिला द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी। यह महिला 22 सप्ताह की गर्भवती थी और इसने अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। 15 जुलाई को दिल्ली हाई कोर्ट ने अनुमति देने से इनकार कर दिया।
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि याचिकाकर्ता अविवाहित महिला होने के कारण एमटीपी एक्ट कानून के दायरे में नहीं आती। संशोधित गर्भावस्था नियम महिलाओं की सात अलग-अलग श्रेणियों को परिभाषित करता है जो इस जेस्टेशन अवधि के भीतर अबॉर्शन करवा सकती हैं, जिसमें यौन उत्पीड़न या बलात्कार या अनाचार की सर्वाइवर, नाबालिग लड़कियां और महिलाओं के साथ चल रही गर्भावस्था के दौरान वैवाहिक स्थिति में बदलाव शामिल है। 24 सप्ताह के अबॉर्शन वाली महिलाओं को अबॉर्शन करवाने के लिए दो डॉक्टरों से अनुमति लेनी पड़ती है, जिनका मानना है कि गर्भावस्था को जारी रखने से या तो महिला या बच्चे की जान को खतरा हो सकता है। 20 सप्ताह तक के अबॉर्शन के लिए एक डॉक्टर की अनुमति पर्याप्त होती है।
अबॉर्शन का अधिकार भारत में पूर्ण नहीं है, बल्कि सशर्त है। ऐसे वक़्त में जब वैश्विक स्तर पर यौन और प्रजनन अधिकार खतरे में आ गए थे तब अबॉर्शन तक पहुंच के लिए भारतीय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का एक प्रगतिशील फैसले के रूप में स्वागत किया गया जाना चाहिए। इस नये फैसले के बाद अब वे अविवाहित महिलाएं जो 20 हफ्ते के बाद की गर्भावस्था को अबॉर्ट नहीं करवा पाती थीं अब वे भी ऐसा कर सकेंगी। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी रूल्स से अविवाहित महिलाओं को बाहर करना असंवैधानिक है। सभी महिलाएं सुरक्षित और कानूनी अबॉर्शन की हकदार हैं। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में 2021 का संशोधन विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच अंतर नहीं करता है। अविवाहित महिलाएं भी सहमति से किए गए संभोग के बाद होने वाले गर्भ को 20-24 सप्ताह की अवधि में अबॉर्ट करवाने की हकदार हैं।
मैरिटल रेप और अबॉर्शन पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस महत्वपूर्ण फैसला में यह भी कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (एमटीपी) और नियमों के उद्देश्य के अंतर्गत बलात्कार के अर्थ में मैरिटल रेप को शामिल करना भी है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए विवाहित महिलाओं के अधिकारों पर विस्तार से बताते हुए कहा कि विवाहित महिलाएं भी यौन उत्पीड़न या बलात्कार की सर्वाइवर हो सकती हैं। बलात्कार शब्द का सामान्य अर्थ किसी व्यक्ति के साथ उनकी सहमति के बिना या उनकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाना है।
आगे कोर्ट ने कहा कि एक महिला अपने पति द्वारा बिना उसकी सहमत के बनाए गए संबंध के परिणामस्वरूप गर्भवती हो सकती है। हम इस बात को लेकर असावधान नहीं हो सकते कि अंतरंग साथी हिंसा एक वास्तविकता है और यह बलात्कार का रूप ले सकती है। परिवार के संदर्भ में लैंगिक हिंसा (अपने सभी रूपों में) के अनुभव ने लंबे समय से महिलाओं के जीवन में एक हिस्सा बना लिया है। यह अकल्पनीय नहीं है कि विवाहित महिलाएं अपने पति द्वारा किए गए बलात्कार करने के परिणामस्वरूप गर्भवती हो जाती हैं। जब कोई शादी करने का फैसला करता है तो यौन हिंसा की प्रकृति और सहमति की रूपरेखा में कोई बदलाव नहीं आता है। शादी की संस्था इस सवाल के जवाब को प्रभावित नहीं करती है कि क्या महिला ने यौन संबंधों के लिए सहमति दी है। अगर महिला अपमानजनक रिश्ते में है, तो उसे चिकित्सा संसाधनों तक पहुंचने या डॉक्टरों से परामर्श करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
आईपीसी में वैवाहिक बलात्कार के अपवाद और एमटीपी अधिनियम पर इसके प्रभाव के बारे में विस्तार से बताते हुए पीठ ने कहा कि हमने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 को भी संक्षेप में छुआ है। आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 के बावजूद, नियम 3बी(ए) में यौन हमला या बलात्कार शब्द के अर्थ में पति द्वारा अपनी पत्नी पर किए गए यौन हमले या बलात्कार का कृत्य भी शामिल है। हालांकि, पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि यहां पर वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार के अर्थ में शामिल करना पूरी तरह से केवल एमटीपी अधिनियम के उद्देश्य के लिए ही है। अदालत ने यह भी कहा कि एमटीपी अधिनियम के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए एक महिला को बलात्कार या यौन हमले का होना, साबित करने की आवश्यकता नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने बीते गुरुवार को फैसला सुनाया कि सभी महिलाएं अपने गर्भधारण के 24 सप्ताह तक अबॉर्शन करवा सकती हैं। इसके लिए उनका शादीशुदा होना या न होना मायने नहीं रखता है।
1971 से मेडिकल टर्मिनेशन प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत भारत में अबॉर्शन कानूनी है। इस कानून में 2021 में कुछ श्रेणियों की महिलाओं को 20 सप्ताह के अबॉर्शन से 24 सप्ताह तक अबॉर्शन की अवधि को बढ़ाकर अनुमति देने के लिए कानून में संशोधन किया गया था जिसमें तलाकशुदा या विधवा, नाबालिग, बलात्कार पीड़ित, या मानसिक रूप से बीमार महिलाएं शामिल हैं। लेकिन इस संशोधन में अविवाहित गर्भवती महिलायें शामिल नहीं थीं। इस पर प्रजनन अधिकार कार्यकर्ताओं ने सवाल किया कि वैवाहिक स्थिति के आधार पर कानून में अंतर क्यों किया गया?
इस मुद्दे पर बात करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच इस प्रकार के अंतर को कायम नहीं रखा जा सकता है। इन अधिकारों का स्वतंत्र प्रयोग करने के लिए महिलाओं को स्वायत्तता होनी चाहिए। अविवाहित एकल महिलाओं की अबॉर्शन की समान पहुंच से वंचित करना भारत के संविधान के तहत कानून के समक्ष समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
महिला की सहमति ज़रूरी
इसके अलावा कोर्ट ने महिला की सहमति को आवश्यक तत्व माना। अदालत ने कहा कि अबॉर्शन पर कानून एक पंजीकृत चिकित्सक से सहमति प्राप्त करने पर सशर्त है। हालांकि, चिकित्सक अक्सर इस सहमति से इनकार करते हैं, जिसके कारण या तो महिलाएं अदालतों का दरवाजा खटखटाती हैं या असुरक्षित परिस्थितियों में अबॉर्शन कराती हैं। चिकित्सक अक्सर अतिरिक्त कानूनी शर्तों के लिए पूछते हैं जैसे कि परिवार, दस्तावेजी सबूत या न्यायिक प्राधिकरण से सहमति। अदालत ने कहा कि इन शर्तों का “कानून में कोई आधार नहीं है। कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि अबॉर्शन पर फैसला लेते समय केवल महिला की सहमति ही महत्वपूर्ण है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैसले एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और ऐसे में यह फैसला एक मील का पत्थर है क्योंकि यह लोगों के अपने शरीर और प्रजनन स्वतंत्रता पर अधिकार को मान्यता देता है, भले ही सरकारें और विधायिका कुछ भी कहें।
किसी महिला के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरा है या नहीं, इसका आकलन करने में चिकित्सक को प्रत्येक महिला की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए कि क्या वह अपनी गर्भावस्था को जारी रखने की स्थिति में है। अबॉर्शन का अधिकार समय-समय पर दुनियाभर में एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। खासकर इसी साल जून में अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट द्वारा रो बनाम वेड फैसले को उलटने के बाद जिसने देश में अबॉर्शन का संवैधानिक अधिकार स्थापित किया था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैसले एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और ऐसे में यह फैसला एक मील का पत्थर है क्योंकि यह लोगों के अपने शरीर और प्रजनन स्वतंत्रता पर अधिकार को मान्यता देता है, भले ही सरकारें और विधायिका कुछ भी कहें।