इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत भारत में कितनी औरतें नारीवाद को जानती हैं

भारत में कितनी औरतें नारीवाद को जानती हैं

नारीवाद को जानने या इससे परिचित होने की बात पर यह ख़्याल उठता है कि कुछ हद तक नारीवाद या नारीवाद को कुछ जार्गन (कठिन शब्दों) में सीमित कर देने से यह आम स्त्रियों तक नहीं पहुंच सका। हालांकि, कुछ स्त्रियों तक नारीवाद शब्दों और विमर्शों में तो नहीं पहुंच पाया लेकिन कभी-कभी मौलिक रूप से यह झलकता है।

भारत में नारीवाद को कितनी स्त्रियां जानती हैं इस बात को मैं प्रश्न की तरह नहीं पीड़ा की तरह सोचती हूं। मैं जब से स्त्री चिंतन को कुछ-कुछ जानने लगी हूं तब से इसके बारे में और जानने वालों को ढूंढती हूं, लेकिन ज्यादातर मैं निराश होती हूं। इस मुद्दे को जानने वाले बस एक समूह में मुठ्ठीभर लोग ही मिलते हैं। यह बात बस गंवई जीवन या देहाती, कस्बाई लोगों की नहीं है। शहरों में भी मैं ऐसे लोगों को टटोलती हूं और निराश होती हूं जो लोग आइडेंटिटी के अन्य चिंतनों को जानते हैं, वे भी नारीवाद को नहीं जानते। 

कभी कुछ लोग मिलते हैं, जो इस विषय को कुछ शब्दों से जानते हैं। इसमें पढ़े-लिखे शहरी ,ग्रामीण शिक्षित वर्ग भी शामिल हैं। मैं यहां किसी आंकड़े पर बात नहीं कर रही हूं, जितना जानने की कोशिश की उसके आधार पर बता रही हूं। अगर किसी के अनुभव इससे इतर हो तो वह एक सुखद बात होगी।

ऐसा नहीं है कि नारीवाद का कोई व्यवहारिक रूप नहीं है। समाज में जो बदलाव हुआ है स्त्री शिक्षा आदि में नारीवाद का व्यवहारिक रूप ही है। लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर उस बड़े समूह में बेचैनी नहीं दिखती, वह चेतना नहीं दिखती जिसकी दरकार थी। मैं केवल नारीवाद शब्द जानने भर की बात नहीं कर रही हूं। इस लेख में मैंने कई गंवई, कस्बाई महाविद्यालयों में पढ़नेवाली, कुछ कॉलेज जानेवाली लड़कियों, नौकरीपेशा लड़कियों से हुई बातचीत के कुछ हिस्से को रखा है।

एक परिचित लड़की जो कि पेशे से इंजीनियर है, रहन-सहन में एकदम आधुनिक, मैं उससे नारीवाद को लेकर बात करना चाहती थी। लेकिन पूछने पर पता चला कि इस शब्द से ही परिचित नहीं है। एक और लड़की जो कि पेशे से डॉक्टर है और मुंबई में रहती है उससे जब मैंने इस बारे में पूछा तो निराशा ही हाथ लगी। वह भी नारीवाद शब्द को नहीं जानती थी। उसने मुस्कुराकर कहा कि मैं साहित्य की बात कर रही हूं।

मैं नारीवाद को जानने की बात इसलिए करती हूं क्योंकि यह अपनी अस्मिता की चेतना में जाने का प्रारंभिक मार्ग होता है। इसके बारे में न जानने का भी परिणाम होता है कि स्त्री खुद ही पितृसत्तात्मक सोच की संचालिका बनकर आजीवन उसमें फंसी रहती है और अन्य स्त्रियों को बांधकर रखना चाहती है।

उत्तर प्रदेश के जिस गाँव में मैं रहती हूं वहां से 15 किलोमीटर दूर है बदलापुर। वहां के सल्तनत बहादुर डिग्री कॉलेज में एक दिन मैं कुछ लड़कियों से बातचीत करने लगी। मैंने पाया कि लड़कियां भले ही इस शब्द से परिचित नहीं थीं लेकिन वे इस शब्द पर बात करना चाहती थीं। जब मैंने कहा कि एक शब्द है नारीवाद क्या वे इससे परिचित हैं, तो सबने इनकार किया। लेकिन जब मैंने कहा कि स्त्री अधिकारों को लेकर पूरी दुनिया में एक बहस चल रही है क्या इस विषय को वे जानती हैं तो कुछ- कुछ बातें उन्होंने साझा कीं। इनमें महिलाओं को सरकार द्वारा कैसे सशक्त किया जा रहा है, औरतों के हितों पर काम हो रहा है आदि।

मैं नारीवाद को जानने की बात इसलिए करती हूं क्योंकि यह अपनी अस्मिता की चेतना में जाने का प्रारंभिक मार्ग होता है। इसके बारे में न जानने का भी परिणाम होता है कि स्त्री खुद ही पितृसत्तात्मक सोच की संचालिका बनकर आजीवन उसमें फंसी रहती है और अन्य स्त्रियों को बांधकर रखना चाहती है। इसे न जानना बहुत बड़ा नुकसान है चेतना के स्तर का। अब एक बात इसके साथ आती है कि नारीवाद को कहां तक जानना और समझना चाहिए। ये बहुत ही ज़रूरी बहस है क्योंकि जब तक हम इसकी परतों को गहराई से नहीं देखेंगे, बस सतही तौर पर जानेंगे तो खुद के हित की दिशा का मार्ग समाज को अंधेरे की तरफ ही ले जाएगा। 

यहां अस्मिता जानने की बात का आशय बस इतना नहीं कि हम अपनी ही अस्मिता जानें। हाशिये के दूसरे लोगों की अस्मिता और संघर्ष को जानना आवश्यक है, नहीं तो नारीवाद की बहस संकुचित रहेगी। यह लगातार दिख रहा है कि आज़ादी और आइडेंटिटी की बात करते हुए हम वर्ग, जाति आदि के प्रश्न को अनदेखा कर रहे हैं।

नारीवाद और ग्रामीण भारत

बात अगर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नारीवाद की पहुंच की करें तो, दोनों जगहों के जीवन को एक परिदृश्य में देखते हुए मुझे वहां यह विमर्श धुंंधला ही दिखता है। जहां अभी इस विमर्श का नाम नहीं पहुंचा तो वहां नारीवाद का चरण कौन सा है यह तय करना मुश्किल है। अब इस दृश्य में हम गाँव-देहात की स्त्रियों को देखते हैं तो यहां बाज़ार के ज़रिये जितना बदलाव हुआ उसे स्वीकार किया गया है। परंपरा, रिवाज, जातिगत व्यवस्था आदि और जड़ ही हुए हैं। अंधविश्वास और कर्म कांड में यहां खूब बढ़ोतरी हुई है। इसमें शहरी महिलाएं भी उतनी ही शामिल हैं। कुछ बदलाव जो हुए या हो रहे हैं उसमें वर्ग बहुत महत्व रख रहा है।

मेरे गाँव की जो हाशिये के समुदाय की जो स्त्रियां हैं उनसे मैं जब देश-दुनिया की बात करती हूं तो देखती हूं वे जाति के सवाल, आरक्षण आदि के बारे में काफी कुछ जानती हैं लेकिन स्त्री चिंतन को बिल्कुल नहीं जानती। ज्यादा बात करने पर स्त्री अधिकार या स्त्री संघर्ष आदि की पर हंस पड़ती हैं। बदलाव की बात को हास्य की मर्दवादी भाषा में ले जाती हैं। मेरे आसपास की लगभग सवर्ण स्त्रियां भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करती हैं। कुछ निराशा में बात करती हैं स्त्री पुरुष के बराबर कभी आ ही नहीं सकती। तब मैं कुछ -कुछ इस विमर्श की पहुंच को परखने लगती हूं। अनुमान से सोचती हूं कि अन्य विमर्शों की पहुंच जितनी इस समाज में हुई है, स्त्री विमर्श की पहुंच वहां तक नहीं दिखती। 

मैं कुछ घरेलू और नौकरी करती स्त्रियों को देखती हूं जो अक्सर कहती हैं कि अब एकदम से सब कुछ नहीं बदलेगा। इसमें उनका आशय यह रहता है कि ये सदियों की मज़बूत पितृसत्तात्मक व्यवस्था का चलन है, यही नियम-कायदे पवित्र और उपयोगी हैं इस व्यवस्था के लिए। शायद इसमें यह भी बात है कि वे उतनी ही आज़ादी को जानती हैं। उनके इस तर्क और इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर ऐसी आस्था देखकर विचारक ग्राम्शी का कथन प्रासंगिक दिखता है कि जब शासकों की अवधारणा ही शोषितों की अवधारणा बन जाए तो समय ज्यादा कठिन होता है। साथ ही आज मैं अपनी ग्राम पंचायतों में महिला सरपंचों को देखती हूं तो निराशा होती है। आंकड़े और कागज में तो वे सशक्त हैं लेकिन वास्तव में वे चेतना और अधिकार दोनों से दूर हैं।

अमूमन शहरी या ग्रामीण स्त्रियां अपनी आज़ादी को कुछ टुकड़ों में पाकर संतुष्ट दिखती हैं। जैसे जो साड़ी पहनती थीं, उन्हें सूट पहनने की आज़ादी। जो सूट पहनती थीं, उन्हें जीन्स आदि पहनने की आज़ादी। अक्सर देखा जाता है कि उनको जितनी आज़ादी चाहिए वे उतनी ही आज़ादी की पक्षधर होती हैं। बहुत सी स्त्रियां अपने से ज्यादा आज़ाद स्त्रियों को उपेक्षा से भी देखती हैं, उनकी लड़ाई को कमतर देखती हैं। उन्हें शायद पता नहीं कि उनकी आज़ादी भी, उनसे पहले की स्त्रियों का संघर्ष है, जिसका लाभ हमें मिला। हमने उस संघर्ष में क्या जोड़ा जिसका लाभ आनेवाली पीढ़ियों को मिले।

जानना महज स्त्री अस्मिता को जानना नहीं हो सकता। आज़ादी का सही अर्थ न जानने के कारण ही स्त्री पितृसत्ता के प्रमुख गुण शासन करने की प्रवृत्ति की तरफ जाती है और उसमें अपनी महत्ता देखती है। नेल्सन मंडेला ने अपनी आत्मकथा ‘लॉन्ग वॉक टू फ़्रीडम’ में बताया है कि अगर हम पूर्वाग्रहों और संक्रिर्ण सोच की सीखचों के पीछे बंदी हैं तो सच्चे अर्थों में कभी भी आज़ाद नहीं है। यह बात इसलिए यहां याद आई क्योंकि शासन की प्रवृत्ति भी पूर्वाग्रह और कुंठाओं की उपज ही लगती है। अगर हम इस चिंतन का पुनर्मूल्यांकन करें तो ध्यान से देखगें कि जहां जरूरत थी वहां तक यह विचारधारा पहुंच ही न पाई। जब भूमंडलीकरण हुआ तो नारीवाद भी साथ चला। स्त्रियों की स्थिति में कुछ अंतर ज़रूर आया पर वह कितना सार्थक हुआ और उसका कितना फायदा बाज़ार को हुआ ये अलग विषय है। 

कहा जा सकता है कि नारीवाद अभी एक बड़ी आबादी की पहुंच से कोसों दूर है। लेकिन जो इसे नहीं जानते हैं उन्हें इस बारे में बताना होगा। उन्हें स्त्रियों की आज़ादी के लिए, स्त्रियों के किए गए संघर्ष को याद दिलाना होगा। बताना होगा कि आज जितनी आज़ादी हमें मिली है हमें वह हमसे पहले की स्त्रियों द्वारा लड़ी गई लंबी और कठिन लड़ाई के कारण मिली है।

नारीवाद को जानने या इससे परिचित होने की बात पर यह ख़्याल उठता है कि कुछ हद तक नारीवाद या नारीवाद को कुछ जार्गन (कठिन शब्दों) में सीमित कर देने से यह आम स्त्रियों तक नहीं पहुंच सका। हालांकि, कुछ स्त्रियों तक नारीवाद शब्दों और विमर्शों में तो नहीं पहुंच पाया लेकिन कभी-कभी मौलिक रूप से यह झलकता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि लोकगीतों और मुहावरों में नारीवाद की बहस बहुत मुखर और वैज्ञानिक चेतना के साथ आती है लेकिन आगे जाकर यह बहस परंपरा, रीति-रिवाजों आदि में दब जाती है। नहीं तो अपना सत्य स्त्रियों ने लोकत्तियों और गीतों में खूब कहा। गंवई बोली में स्त्रियों ने खूब फटकार लगाई है पितृसत्ता को और कहीं-कहीं तो मर्दवादी समाज और उनके मुहावरों आदि को बड़ा ही वैज्ञानिक और सटीक जवाब दिया है।

ग्रामीण समाज में एक मर्दवादी, ब्राह्मणवादी और घोर रंगभेदी मुहावरा है जिसमें रंग और जाति पर बहुत घृणित टिप्पणी है। साथ ही यह एक बेहद स्त्रीद्वेषी मुहावरा है जिसमें संतान को लेकर स्त्रियों के चरित्रदोष बताए गए हैं कि ये संतानें अपने पिता की संतान नहीं होती, इसलिए ये विश्वास के लायक नहीं होते। ऐसी घृणित मान्यताओं से बने मर्दवादी मुहावरा के बरक्स स्त्रियों ने जो मुहावरा कहा वह कितना वैज्ञानिक और मौलिक है। वे कहती हैं “माई क कोख कोहारे क आवां,” मतलब जैसे कुम्हार के घड़े में कोई बर्तन ज्यादा पक जाते हैं कोई कम पकते हैं उसी तरह माँ की कोख की भी संरचना है जिसमें संतान का रंग कैसा भी हो सकता है। ये उनकी कितनी प्राकृतिक और रचनात्मक सोच है।

मैं कुछ घरेलू और नौकरी करती स्त्रियों को देखती हूं जो अक्सर कहती हैं कि अब एकदम से सब कुछ नहीं बदलेगा। इसमें उनका आशय यह रहता है कि ये सदियों की मज़बूत पितृसत्तात्मक व्यवस्था का चलन है, यही नियम-कायदे पवित्र और उपयोगी हैं इस व्यवस्था के लिए। शायद इसमें यह भी बात है कि वे उतनी ही आज़ादी को जानती हैं।

हो सकता है यह महज़ मेरी दृष्टि हो, मेरा अनुभव हो लेकिन इस आधार पर जितना देख पाती हूं, कहा जा सकता है कि नारीवाद अभी एक बड़ी आबादी की पहुंच से कोसों दूर है। लेकिन जो इसे नहीं जानते हैं उन्हें इस बारे में बताना होगा। उन्हें स्त्रियों की आज़ादी के लिए, स्त्रियों के किए गए संघर्ष को याद दिलाना होगा। बताना होगा कि आज जितनी आज़ादी हमें मिली है हमें वह हमसे पहले की स्त्रियों द्वारा लड़ी गई लंबी और कठिन लड़ाई के कारण मिली है। यह बहुत लंबी लड़ाई है जिसका क्षेत्र केवल स्त्री देह या मन नहीं बल्कि पूर्ण मनुष्य समझे जाने की एक मौलिक लड़ाई है।

आखिर में मैं बस यही कहना चाहती हूं कि नारीवाद की चेतना और जानने का यह चलन बने रहना चाहिए था। कहीं तो कोई दोष रह गए हैं हमारे कहने-सुनने में नहीं तो हमारी पुरखिनों ने तो कब से बोलने का आगाज़ कर दिया था लोकगीतों, किस्से-कहानियों और लोकत्तियों में। बाद में हम कहां चुके कि कहां यह लड़ाई सीमित हुई। आज ज़रूरत है कि संवाद-बहस का नजरिया स्त्रियों में स्थापित किया जाए और स्त्रियों के वास्तविक अधिकारों और अस्मिता से परिचय की ज़मीन तैयार हो और समाज निमार्ण व्यवस्था में उनकी अहम भूमिका को मज़बूती से चिन्हित किया जाए।


Comments:

  1. Ranendra kumar says:

    “जब शासकों की अवधारणा ही शोषितों की अवधारणा बन जाए तो समय ज्यादा कठिन होता है ।”
    अनुभव से उपजी वैचारिकी ज्यादा असरदार होती है । इस आलेख को पढ़ते हुए यह धारणा और भी मजबूत हुई । लेखिका को अशेष साधुवाद

  2. ErJKGautam says:

    अच्छा लेख है, नारीवाद का अभाव नारियों में बहुत है, ज़्यादातर महिलायें नारीवाद से अनभिज्ञ हैं। महिलाओं को उनके अधिकारों और आज़ादी के प्रयासों को और अधिक जानने की ज़रूरत है।

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