समाजकानून और नीति “क्या एक लोकतंत्र में हिजाब पहनने की मांग बहुत ज्यादा है?”

“क्या एक लोकतंत्र में हिजाब पहनने की मांग बहुत ज्यादा है?”

हिजाब मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ द्वारा की जा रही थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया इस मामले की सुनवाई कर रहे थे। दोनों जजों ने इस मामले में अलग-अलग फैसला सुनाया। जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, वहीं दूसरी ओर जज जस्टिस सुधांशु धूलिया ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए फैसला सुनाया।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस सुधांशु धूलिया ने बीते 13 अक्टूबर को कर्नाटक के हिजाब प्रतिबन्ध फैसले की याचिका पर फैसला देते हुए टिप्पणी की कि सभी याचिकाकर्ता हिजाब पहनना चाहती हैं। क्या लोकतंत्र में यह मांग बहुत ज्यादा है? जस्टिस धूलिया ने पसंद की प्रधानता के आधार पर कर्नाटक हाई कोर्ट के विवादास्पद आदेश को रद्द कर दिया। अपने फैसले में उन्होंने कहा कि कर्नाटक हाई कोर्ट का आदेश संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 25 के प्रावधानों को पारित नहीं करता है।

हिजाब मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ द्वारा की जा रही थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया इस मामले की सुनवाई कर रहे थे। दोनों जजों ने इस मामले में अलग-अलग फैसला सुनाया। जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, वहीं दूसरी ओर जज जस्टिस सुधांशु धूलिया ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए फैसला सुनाया।

जस्टिस हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर 26 अपीलों को खारिज कर दिया। साथ ही कहा था कि वर्दी लागू करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है बल्कि यह समानता के अधिकार को पुष्ट करता है। कर्नाटक सरकार के आदेश का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि वर्दी के मामले में विद्यार्थियों के बीच समानता हो। यह केवल स्कूलों में एकरूपता को बढ़ावा देने और एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण को प्रोत्साहित करने के लिए था। यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत अधिकार के अनुरूप है। इसलिए, धर्म और अंतःकरण की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों को अनुच्छेद 25(1) के तहत निर्धारित भाग III (मौलिक अधिकार) के अन्य प्रावधानों के साथ-साथ पढ़ा जाना चाहिए।

सुनवाई के दौरान जस्टिस धुलिया ने कहा कि यह कोर्ट अपने आप में यह भी प्रश्न रखेगा कि क्या हम एक लड़की को शिक्षा से वंचित करके उसके जीवन को बेहतर बना रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वह हिजाब पहनती है।

साथ ही उन्होंने कहा कि कोई भी विद्यार्थी स्कूल में धार्मिक कर्तव्य निभाने नहीं जा रहा है। इसलिए राज्य के पास एक धर्मनिरपेक्ष स्कूल परिसर के भीतर हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति है। धार्मिक विश्वास को राज्य के धन से बनाए गए एक धर्मनिरपेक्ष स्कूल में नहीं ले जाया जा सकता है। वर्दी का प्रवर्तन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है, बल्कि समानता के अधिकार को मजबूत करता है।

अपनी राय में भिन्नता व्यक्त करते हुए, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। साथ ही कहा कि आवश्यक धार्मिक अभ्यास की पूरी अवधारणा विवाद के लिए आवश्यक नहीं थी। एक प्री-यूनिवर्सिटी की छात्रा को अपने स्कूल के गेट पर हिजाब उतारने के लिए कहना, उसकी निजता और गरिमा पर हमला है। छात्रा को स्कूल के गेट पर हिजाब हटाने के लिए कहना “स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।”

वहीं, जस्टिस हेमंत गुप्ता ने टिप्पणी की कि धार्मिक विश्वास को राज्य के धन से बनाए गए धर्मनिरपेक्ष स्कूल में नहीं ले जाया जा सकता। उन्होंने हिजाब को सिखों के आवश्यक धार्मिक प्रथाओं (पगड़ी पहनना और कृपाण रखना) से तुलना करने पर कहा कि सिख धर्म के अनुयायियों की आवश्यक धार्मिक प्रथाओं को इस्लामिक आस्था के अनुयायियों द्वारा हिजाब / हेडस्कार्फ़ पहनने का आधार नहीं बनाया जा सकता। जस्टिस गुप्ता द्वारा दिया गया फैसला लड़कियों की मांग (हिजाब पहनने की अनुमति) के विपरीत है। जस्टिस धूलिया का फैसला याचिकाकर्ता लड़कियों के पक्ष में आया। जस्टिस धूलिया ने अपना फैसला सुनते हुए कई टिप्पणियां की। इनमें से कुछ टिप्पणियां निम्नलिखित हैं:

“क्या हम हिजाब पर प्रतिबंध लगाकर एक लड़की के जीवन को बेहतर बना रहे हैं?”

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जस्टिस धुलिया ने कहा कि आज भारत में सबसे अच्छी तस्वीरों में से एक है, एक बच्ची जो सुबह स्कूल जाती है, उसका स्कूल बैग उसकी पीठ पर होता है। वह हमारी आशा है, हमारा भविष्य है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह बहुत कुछ है। एक लड़की के लिए अपने भाई की तुलना में शिक्षा प्राप्त करना अधिक कठिन होता है। भारत में गांवों और अर्ध शहरी क्षेत्रों में एक लड़की के लिए अपना स्कूल बैग पकड़ने से पहले घर के कामों में अपनी माँ की सफाई और धुलाई के रोज़मर्रा के कामों में मदद करना आम बात है। एक लड़की शिक्षा प्राप्त करने में जिन बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करती है, वह एक लड़के की तुलना में कई गुना अधिक होती है। इसलिए इस मामले को एक लड़की के अपने स्कूल तक पहुंचने में पहले से ही आने वाली चुनौतियों के परिपेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। इसलिए यह कोर्ट अपने आप में यह भी प्रश्न रखेगा कि क्या हम एक लड़की को शिक्षा से वंचित करके उसके जीवन को बेहतर बना रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वह हिजाब पहनती है।

“हिजाब सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के खिलाफ कैसे है?” 

प्रतिवादी पक्ष ने यह तर्क दिया था कि हिजाब सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के खिलाफ है। इस तर्क पर जस्टिस धूलिया ने कहा कि सभी याचिकाकर्ता हिजाब पहनना चाहते हैं। क्या लोकतंत्र में यह मांग बहुत अधिक है? यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य या यहां तक ​​कि शालीनता या संविधान के भाग III के किसी अन्य प्रावधान के खिलाफ कैसे है? कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले में इन सवालों के पर्याप्त जवाब नहीं दिए गए हैं। राज्य सरकार ने 5 फरवरी 2022 के सरकारी आदेश में या हाई कोर्ट के समक्ष जवाबी हलफनामे में कोई संभावित कारण नहीं बताया है। यह मेरे तर्क या कारण के अनुकूल नहीं है कि कैसे एक लड़की जो एक कक्षा में हिजाब पहनती है, एक सार्वजनिक व्यवस्था की समस्या है या यहां तक ​​कि कानून-व्यवस्था की समस्या भी है। इसके विपरीत इस मामले में उचित समायोजन एक परिपक्व समाज का संकेत होगा जिसने अपने मतभेदों के साथ रहना और समायोजित करना सीख लिया है।

जस्टिस धूलिया ने टिप्पणी की कि हिजाब प्रतिबंध का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह होगा कि हम एक लड़की को शिक्षा से वंचित कर देंगे। एक लड़की जिसके लिए अपने स्कूल के गेट तक पहुंचना अभी भी आसान नहीं है। इसलिए इस मामले को ऐसे भी देखा जाना चाहिए। एक लड़की को अपने स्कूल तक पहुंचने में पहले से ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

आगे उन्होंने कहा कि लड़कियों के हिजाब पहनने का अधिकार स्कूल गेट पर नहीं रुकता/ख़त्म होता है। एक लड़की को अपने घर में या अपने घर के बाहर हिजाब पहनने का अधिकार है, और यह अधिकार उसके स्कूल के गेट पर नहीं रुकता है। स्कूल के गेट के अंदर, अपनी क्लास में होने पर भी बच्ची अपनी गरिमा और अपनी निजता को बनाए रखता है। वह अपने मौलिक अधिकारों को बरकरार रखती है। यह कहना कि ये अधिकार कक्षा के भीतर डेराइव्ड (व्युत्पन्न) अधिकार बन जाते हैं, पूरी तरह गलत है। हम एक लोकतंत्र में और कानून के शासन के तहत रहते हैं। हमारे संविधान के कई पहलुओं में से एक है विश्वास। हमारा संविधान भी भरोसे का दस्तावेज़ है। यह वह भरोसा है जो कि अल्पसंख्यकों ने बहुसंख्यकों पर जताया है।

“विविधता से संबंधित तर्क ‘खोखली बयानबाजी’ नहीं हैं” 

जस्टिस धूलिया ने कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा याचिकाकर्ताओं की विविधता से संबंधित तर्कों को “खोखली बयानबाजी” के रूप में खारिज करने पर कहा किविविधता और आउटरीच बहुल संस्कृति का प्रश्न हमारे वर्तमान मामले के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। हमारे स्कूल, विशेष रूप से हमारे प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज एक आदर्श संस्थान हैं जहां हमारे बच्चे जो अब एक प्रभावशाली उम्र में हैं, और इस राष्ट्र की समृद्ध विविधता के प्रति जाग रहे हैं। उन्हें परामर्श और मार्गदर्शन की ज़रूरत है, ताकि वे सहिष्णुता और आवास के हमारे संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात कर सकें। जो एक अलग भाषा बोल सकते हैं, अलग खाना खा सकते हैं, या यहां तक ​​कि अलग-अलग कपड़े पहन सकते हैं या यह समय उनमें विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति संवेदनशीलता, सहानुभूति और समझ को बढ़ावा देने का है। यही वह समय है जब उन्हें हमारी विविधता से घबराना नहीं बल्कि इस विविधता का आनंद और जश्न मनाना सीखना चाहिए। यही वह समय है जब उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि विविधता में ही हमारी ताकत है।

“हिजाब प्रतिबंध का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम बेटियों की शिक्षा से इनकार होगा” 

मौजूदा सरकार का नारा है कि “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” लेकिन जब बेटी पर इस तरह के प्रतिबंध लगाए जाएंगे तो वे कैसे पढ़ पाएगी और फिर कैसे बच पाएगी, यह सवाल अधिक महत्वपूर्ण है। हमारे देश में बेटियों की पैदाइश पर आज भी बहुत अधिक खुशियां नहीं मनाई जाती हैं। बेटियां आज भी बोझ के समान मानी जाती हैं। ऐसे में उनके आदर्शों को ताक पर रखकर इस तरह के मनमाने आदेश उन्हें उनकी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित कर देंगे।

जस्टिस धूलिया ने इसी बिंदु को ध्यान में रखते हुए टिप्पणी की कि हिजाब प्रतिबंध का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह होगा कि हम एक लड़की को शिक्षा से वंचित कर देंगे। एक लड़की जिसके लिए अपने स्कूल के गेट तक पहुंचना अभी भी आसान नहीं है। इसलिए इस मामले को ऐसे भी देखा जाना चाहिए। एक लड़की को अपने स्कूल तक पहुंचने में पहले से ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यह अदालत खुद के सामने यह सवाल रखेगी कि क्या हम एक लड़की की शिक्षा से इनकार करके उसके जीवन को बेहतर बना रहे हैं क्योंकि वह हिजाब पहनती है।

पूरी तरह से विपरीत निर्णय देने के बाद, उपर्युक्त पीठ ने कहा कि बेंच द्वारा व्यक्त किए गए अलग-अलग विचारों को देखते हुए, एक उपयुक्त बेंच के गठन के लिए मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाए। अब आगे देखना यह है कि यह मुद्दा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष कब रखा जाएगा और इस पर कब अंतिम निर्णय आएगा।


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