भारत परिवार नियोजन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू करनेवाला पहला देश था और भारत के परिवार नियोजन कार्यक्रम में अग्रणी भूमिका निभाने वालों में से एक थीं-अवाबाई वाडिया। इनका जन्म औपनिवेशिक सिलोन के कोलंबो में 18 सितंबर, 1913 में एक पारसी परिवार में हुआ था। इनका परिवार मूल रूप से गुजरात से संबंधित था। अवाबाई पन्द्रह साल की उम्र में अपनी मां के साथ ब्रिटेन चली गई। वहां उन्होंने लंदन के ब्रोंड्सबरी और किलबर्न हाई स्कूल में पढ़ाई की, जहां वह एकमात्र दक्षिण एशियाई छात्रा थीं।
अवाबाई बचपन से वकील बनना चाहतीं थीं, शायद इसीलिए वह केवल उन्नीस वर्ष की उम्र से ही इन्स ऑफ कोर्ट में भाग लेने लगी थीं। साल 1934 में उन्होंने अपनी पहली बार परीक्षा दी और सफल भी हुईं। वह यूनाइटेड किंगडम में बार परीक्षा उत्तीर्ण करनेवाली सीलोन की पहली महिला भी बनीं। उनकी सफलता के परिणामस्वरूप, कोलंबो के लॉ कॉलेज ने महिलाओं को भी पढ़ने का अधिकार दिया।
अवाबाई वाडिया ने अपनी आत्मकथा ‘द लाइट इज आवर‘ में 1920 और 1930 के दशक में ब्रिटेन में अपने प्रवास के दिनों का उल्लेख किया है। अपनी किताब में उन्होंने लंदन के स्कूल में एकमात्र दक्षिण एशियाई और कानून की छात्रा के रूप में अपना अनुभव और उन दिनों इंग्लैंड में रहनेवाले भारतीयों के बारे में बताया है। चूंकि वह वहां अल्पसंख्यक समुदाय से आती थीं, इसलिए उन्हें खुले और गुप्त भेदभाव का सामना करना पड़ता था। व्यक्तिगत आधार पर लोगों के मिलनसार और मददगार होने पर भी, सफेद और भूरे रंग की खाल के बीच अंतर बना रहता था। हालांकि, हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि वह एक उच्च वर्ग से आती थीं और संभव है कि उनके साथ अंग्रेज़ों द्वारा तुलनात्मक रूप से अच्छा व्यवहार किया गया था। उस समय लैंगिक और नस्लीय भेदभाव आज की तुलना में कहीं अधिक व्याप्त था। लेकिन उन्होंने सर्वव्यापी मर्दाना पूर्वाग्रह के बावजूद लंदन और कोलंबो दोनों जगहों पर काम किया।
1940 के दशक के अंत में जब उन्होंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया, तब परिवार नियोजन दुनियाभर में एक वर्जित विषय था। इसमें धार्मिक रूढ़िवादियों को भड़काने के अलावा नस्लवाद की भी बड़ी भूमिका थी। खुद अवाबाई वाडिया ने स्वीकारा है कि जब पहली बार उन्होंने ‘बर्थ कंट्रोल’ शब्द सुना, तो उन्होंने भी इसका विरोध किया था।
कानून के विद्यार्थी के रूप में, वह कॉमनवेल्थ कंट्रीज़ लीग और इंटरनैशनल अलायंस ऑफ़ विमेन का हिस्सा रहीं। साथ ही उन्होंने इस दौरान कई रैलियों और धरना-प्रदर्शनों में भाग लिया। उन्होंने महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू सहित भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य कई नेताओं से उनकी इंग्लैंड यात्रा के दौरान मुलाकात की। साल 1936-37 में उन्होंने लंदन के उच्च न्यायालय में वकालत की। साल 1939 में वह कोलंबो वापस लौट आई और 1939-1941 तक उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में कानूनी प्रैक्टिस की।
1941 में अवाबाई के पिता सेवानिवृत्त हो गए और उन्होंने भारत लौटने का फैसला किया। मुंबई में अवाबाई अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में शामिल हो गई और एक नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गर्भनिरोध के क्षेत्र में काम किया। उन्होंने साल 1949 में ‘फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया‘ (FPAI) नामक एक गैर-सरकारी संगठन की स्थापना की और करीब 34 सालों तक इसका नेतृत्व किया। इस संगठन का उद्देश्य यौन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन को बढ़ावा देना था। इसके अंतर्गत गर्भनिरोध के तरीकों को बढ़ावा देने से लेकर प्रजनन सेवाएं प्रदान करने तक का काम किया गया।
1940 के दशक के अंत में जब उन्होंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया, तब परिवार नियोजन दुनियाभर में एक वर्जित विषय था। इसमें धार्मिक रूढ़िवादियों को भड़काने के अलावा नस्लवाद की भी बड़ी भूमिका थी। खुद अवाबाई वाडिया ने स्वीकारा है कि जब पहली बार उन्होंने ‘बर्थ कंट्रोल’ शब्द सुना, तो उन्होंने भी इसका विरोध किया था।
अपनी आत्मकथा में वह लिखती हैं, “मैं बॉम्बे में एक महिला डॉक्टर से बहुत प्रभावित हुई, जिन्होंने कहा कि मौजूदा समय में महिलाएं गर्भावस्था और स्तनपान के बीच तब तक झूलती रहती हैं, जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो जाती। बस यही वह समय था, जब सामाजिक बहिष्कार के डर के बावजूद, यह तय कर लिया कि परिवार नियोजन की दिशा में काम करना ही है।” अवाबाई ने 26 अप्रैल 1946 को बोमनजी खुर्शेदजी वाडिया से शादी की थी, लेकिन 1952 में उनका गर्भपात हो गया, जिसके बाद जल्द ही दोनों अलग हो गए, लेकिन कानूनी रूप से कभी तलाक नहीं हुआ लेकिन उन्होंने साथ रहने के लिए कोई प्रयास भी नहीं किया।
दक्षिण कोरियाई माँओं के क्लब जिन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार नियोजन की व्यापक स्वीकृति को बढ़ावा दिया की सफलता से प्रेरित होकर अवाबाई ने कई समूहों का आयोजन किया। जहां वह दहेज से लेकर राजनीति में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व तक जैसे सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करती थीं। सुदूर भारतीय गांवों, शहरी गरीबों और अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ काम करते हुए उन्होंने परिवार नियोजन तक ही सीमित न रहकर; शिक्षा, कौशल विकास, संचार में सुधार आदि माध्यमों से भी महिलाओं के उत्थान के लिए काम किया। इन महिलाओं के साथ संवाद के लिए वह भक्ति गीत जैसी रचनात्मक तकनीकों का सहारा लिया करतीं थीं। इस समुदाय-आधारित दृष्टिकोण ने उन्हें और उनकी संस्था को समाज के उस बड़े वर्ग तक पहुंचने में मदद की जो इन मुद्दों से पूरी तरह से अनजान थे।
उनकी नवीन शैलियों ने उल्लेखनीय परिवर्तन लाए और परिवार नियोजन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को कई लोगों में बढ़ावा दिया। साथ ही, वह इंटरनैशनल प्लांड पैरेंटहुड फेडरेशन की एक प्रमुख शख्सियत बन गई। यह वाडिया के प्रयासों का ही नतीजा था कि भारत सरकार, 1951-52 में परिवार नियोजन नीतियों को आधिकारिक रूप से बढ़ावा देने वाली दुनिया की पहली सरकार बन गई।
अपनी आत्मकथा में वह लिखती हैं, “मैं बॉम्बे में एक महिला डॉक्टर से बहुत प्रभावित हुई, जिन्होंने कहा कि मौजूदा समय में महिलाएं गर्भावस्था और स्तनपान के बीच तब तक झूलती रहती हैं, जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो जाती। बस यही वह समय था, जब सामाजिक बहिष्कार के डर के बावजूद, यह तय कर लिया कि परिवार नियोजन की दिशा में काम करना ही है।”
अवाबाई के मिशन में किसी पर जबरन परिवार नियोजन की अवधारणा थोपना नहीं था। वह चाहती थीं कि लोग खुद सामने आए। 1975 से 1977 के आपातकाल के दौरान, जब भारत सरकार द्वारा जबरन नसबंदी सहित, कुछ राज्यों में खास समुदाय के लोगों को चिन्हित कर जबरदस्ती परिवार नियोजन कैंप ले जाया गया तब वाडिया ने इसकी निंदा की। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक परिवार नियोजन कार्यक्रमों में जबरदस्ती के खिलाफ चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा था कि परिवार नियोजन कार्यक्रमों में भागीदारी पूरी तरह स्वैच्छिक होनी चाहिए। साथ ही अफ़सोस जताया कि आपातकाल ने पूरे कार्यक्रम को बदनाम कर दिया।
साल 2000 में, जब महाराष्ट्र में दो बच्चों के मानदंड को लागू करने के लिए राशन और मुफ्त प्राथमिक शिक्षा तीसरे बच्चे के जन्म के बाद छीनने का विचार किया गया, तब अवाबाई ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि हम उन प्रोत्साहनों का समर्थन नहीं कर सकते हैं जो बुनियादी मानवाधिकारों को बरकरार नहीं रखते हैं।
अवाबाई के मिशन में किसी पर जबरन परिवार नियोजन की अवधारणा थोपना नहीं था। वह चाहती थीं कि लोग खुद सामने आए। 1975 से 1977 के आपातकाल के दौरान, जब भारत सरकार द्वारा जबरन नसबंदी सहित, कुछ राज्यों में खास समुदाय के लोगों को चिन्हित कर जबरदस्ती परिवार नियोजन कैंप ले जाया गया तब वाडिया ने इसकी निंदा की। परिवार नियोजन कार्यक्रमों में जबरदस्ती के खिलाफ चेतावनी देते हुए कहा कि परिवार नियोजन कार्यक्रमों में भागीदारी पूरी तरह स्वैच्छिक होनी चाहिए। साथ ही अफ़सोस जताया कि आपातकाल ने पूरे कार्यक्रम को बदनाम कर दिया।
11 जुलाई 2005 को अवाबाई वाडिया हमारे बीच नहीं रहीं लेकिन उनके द्वारा किए गए प्रयासों से यौन स्वास्थ्य और परिवार नियोजन के क्षेत्र में कई सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं। साथ ही आज जब कुछ सरकारें विभिन्न जनसंख्या नियंत्रण कानून के तहत लोगों को डराने और उनके अधिकारों से उन्हें वंचित करने का असफल प्रयास कर रही हैं, तब अवाबाई के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है।
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