त्वचा हमारे शरीर का बेहद अहम हिस्सा है। पितृसत्तात्मक समाज में त्वचा का रंग तथाकथित ‘शारीरिक खूबसूरती’ का एक बेहद ही ज़रूरी पैमाना है। अगर महिलाओं में यह खूबसूरती कम हो जाए तो उन्हें अनेक तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी ही एक चुनौती और शारीरिक बीमारी है विटिलिगो। विटिलिगो एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की त्वचा अपना पिगमेंट खोने लगती है। शरीर के जिस भाग में त्वचा अपना पिगमेंट खोने लगती है वह भाग सफेद पड़ने लगता है।
आमतौर पर विटिलिगो पुरुषों और महिलाओं दोंनो में देखने को मिलता है लेकिन इसके कारण पैदा होनेवाली सामाजिक हीनता के भाव का अधिक सामना महिलाओं को करना पड़ता है। हमारी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में त्वचा और रंग से जुड़े पैमाने महिलाओं पर लागू होते हैं जो उनपर खरा नहीं उतरती है उन्हें तिरस्कार का सामना करना पड़ता है।
किसी भी व्यक्ति को विटिलिगो की समस्या तब होती है जब त्वचा को रंगत देने वाली कोशिकाएं मेलेनोसाइट्स नष्ट होने लगती हैं। मेलेनोसाइट्स ही हमारी त्वचा को रंगत प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होती हैं। ये त्वचा की रंगत के लिए जिस पिगमेन्ट/वर्णक का निर्माण करती हैं उसे मेडिकल की भाषा में मेलेनिन कहा जाता है।
भारतीय में विटिलिगो के बारे में फैले मिथकों के कारण महिलाओं का जीना मुश्किल हो जाता है। लोग उनसे छुआछूत वाला व्यवहार करने लगते हैं। यहां तक कि लोग उनसे बात करना और उनके पास बैठना तक पसंद नहीं करते। उन्हें ‘कोढ़ी’ जैसी अपमानजनक उपमाएं दी जाती हैं। ये पितृसत्तात्मक समाज उनके लिए अमानवीय स्थिति पैदा कर देता है। वर्तमान समय में स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन कुछ सालों पहले तक ही ऐसी घटनाएं सामने आती थीं जहां किसी व्यक्ति को विटिलिगो होता था तो समाज उसके पूरे घर का बहिष्कार कर देता था।
आखिर क्यों होता है विटिलिगो?
किसी भी व्यक्ति को विटिलिगो की समस्या तब होती है जब त्वचा को रंगत देनेवाली कोशिकाएं मेलेनोसाइट्स नष्ट होने लगती हैं। मेलेनोसाइट्स ही हमारी त्वचा को रंगत प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होती हैं। यह त्वचा की रंगत के लिए जिस पिगमेंट/वर्णक का निर्माण करती हैं उसे मेडिकल की भाषा में मेलेनिन कहा जाता है।
इसलिए जब हमारे शरीर में मेलेनोसाइट्स नष्ट होने लगती हैं तो मेलेनिन का उत्पादन बंद हो जाता है और जिस भी भाग में यह समस्या पैदा होती है वहां हमारी त्वचा अपनी रंगत खो देती है और सफेद हो जाती है। यह शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है। कुछ लोगों में यह समस्या धीरे-धीरे तथा कुछ लोगों में यह कम समय में पूरे शरीर को ढक लेती है। इस बीमारी का इलाज दवाईयों के द्वारा संभव है और इसे नियंत्रित भी किया जा सकता है।
विटिलिगो और मानसिक तनाव
विटिलिगो वैसे तो त्वचा से जुड़ी एक समस्या है लेकिन इसके बारे में फैली अफवाहों और कुरीतियों के चलते यह मानसिक तनाव का एक बहुत बड़ा कारण बन जाती है। ख़ासतौर से इस समस्या से जूझ रही महिलाएं विटिलिगो की अपेक्षा समाज में व्याप्त इसके प्रति घृणा और अफवाहों से ज्यादा परेशान होती हैं। समाज और परिवार का उन्हें तिरस्कार और हीनता के भाव से देखना, उन्हें ताने देना, छुआछूत करना, अलग-थलग करने वाला व्यवहार उन्हें मानसिक तौर पर हानि पहुंचाने का काम करता है। इसके चलते वे खुद को कभी स्वीकार ही नहीं कर पाती और मानसिक तनाव से भी ग्रस्त हो जाती हैं।
विटिलिगो से जुड़े मिथक
विटिलिगो को लेकर हमारे समाज में कई प्रकार की अफवाएं और मिथक व्याप्त हैं। सबसे पहला मिथक इसे लेकर यह है कि यह एक संक्रामक रोग है और छूने से फैलता है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। विटिलिगो एक असंक्रामक रोग है और छूने से नहीं फैलता है। यह लेनोसाइट्स कोशिकाओं के नष्ट होने पर होता है। दूसरा लोग इसे लेप्रोसी भी समझने की गलती कर बैठते हैं।
दरअसल जानकारी और जागरूकता का अभाव होने के कारण लोग विटिलिगो और लेप्रोसी में भेद नहीं कर पाते हैं जबकि दोंनो समस्याओं में बहुत अंतर है। विटिलिगो एक ऑटोइम्यून रोग है जो असंक्रामक होता है। तीसरा इसे लेकर मिथक यह है कि कुछ प्रकार के खाने की चीजें से यह बढ़ जाता है। दूध और मछली साथ में खाने से, खट्टी चीजों के सेवन से, दही, मछली के तेल आदि खाने से यह होता है, ये सारी बातें भी एक मिथ हैं। इसके अलावा भी कई सारे मिथक हैं जो समाज में आज भी प्रचलित हैं।
सबसे पहला मिथक इसे लेकर यह है कि यह एक संक्रामक रोग है तथा छूने से फैलता है, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। विटिलिगो एक असंक्रामक रोग है और छूने से नहीं फैलता है।
हमारे सामने कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें महिलाओं ने विटिलिगो को स्वीकार किया और खुद का सहारा खुद बनीं। वह इस मेंटल ट्रॉमा से उभरीं भी और अपने जीवन में नए मुकामों को हासिल भी किया।आस्था शाह विटिलिगो के कारण कई बार स्कूल में हंसी का पात्र बनीं लेकिन बाद में उन्होंने खुद को स्वीकार किया और आज वह एक इंस्टाग्राम इन्फ़्लुएनसर हैं। ऐसा ही एक दूसरा नाम है मनीषा मलिक जो विटिलिगो से उत्पन्न असमानता से लड़ीं भी और जीतीं भी। वह आज एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर महिला हैं। इनके अलावा भी कई नाम हैं जो अपने आप में एक मिसाल हैं और जिन्होंने जीवन की इस लड़ाई में कभी हार नहीं मानी और विटिलगो के प्रति लोगों को जागरूक भी किया।