स्वास्थ्यमानसिक स्वास्थ्य मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा कैसे है| नारीवादी चश्मा

मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा कैसे है| नारीवादी चश्मा

आज अपने इस लेख में हम ये समझने की कोशिश करते है कि मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा कैसे है?

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अक्टूबर 2019 में दिए गए एक डेटा के मुताबिक़ भारत की कुल आबादी का लभगभ 7.5 फ़ीसद भाग किसी न किसी तरह के मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझता है। साल 2020 को लेकर लगाए गए अनुमान में कहा गया कि यह आंकड़ा बढ़कर 20 फ़ीसद हो जाएगा। दुनियाभर के कई रिसर्च में ये पाया गया है कि दुनियाभर में अकेले साल 2020 में ही चिंता (एंग्जायटी) के सामान्य से 76 मिलियन और अवसाद के 53 मिलियन ज़्यादा मामले सामने आए हैं।

किंग्स कॉलेज लंदन की रिपोर्ट के मुताबिक कोविड के चलते मेंटल हेल्थ के मरीजों में मृत्यु की दर भी काफी बढ़ गई है। पर्सनैलिटी डिसऑर्डर या डिमेंशिया के मरीजों की मृत्यु दर में चार गुना बढ़त देखी गई है। यह रिपोर्ट विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के लिए तैयार की गई जिसका इस साल मुख्य ‘थीम’ है: ‘असमान दुनिया में मेंटल हेल्थ।’ अक्सर मानसिक स्वास्थ्य और नारीवाद के संदर्भ में ये सवाल आते है कि कैसे मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा है? तो आज अपने इस लेख में हम ये समझने की कोशिश करते है कि मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा कैसे है?

मानसिक स्वास्थ्य नारीवादी मुद्दा कैसे है?

भारत हैप्पी प्लेनेट इंडेक्स के कुल 149 देशों की लिस्ट में अपने नागरिकों को लंबा और खुशहाल जीवन देने में भारत 139 स्थान पर है।कहने को तो भारतीय अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, लेकिन वास्तविक बेरोज़गारी और महंगाई जैसी समस्याओं ने भारतीय जनता के दिखाए जाने वाले उल्लास और खुशहाली अपने भीतर एक गहरा राज छिपाया हुआ है।

भारत में पाँच करोड़ से ज़्यादा मेंटल हेल्थ से पीड़ित है। इसमें 82 फ़ीसद लोग कम आमदनी और मिडिल इनकम कंट्रीज से है, दुनिया की कुल जनसंख्या में 13 फ़ीसद लोग प्रभावित है। डिप्रेशन की विकरालता, जिसकी कोई साफ़ वजह नजर नहीं आती। ये रोग दिमाग पर कब्ज़ा कर बैठता है, व्यक्तित्व को खा जाता है और जीवन को नष्ट कर देता  है। मेंटल हेल्थ को आज भी अपने देश में कोई ख़ास मुद्दा नहीं माना जाता है और जब इसकी बात हाउसवाइफ़ के संदर्भ में होतो ये मुद्दा और भी छोटा बन जाता है। हाल ही में जारी हुए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को देखें, तो साल 2021 में आत्महत्या से होने वाली महिलाओं की मौत में 51.5 फीसद गृहिणियां थी। बीते साल कुल 45,026 महिलाओं की मौत आत्महत्या से हुई जिसमें से 23,178 गृहणियां शामिल थीं।

मानसिक स्वास्थ्य का तात्पर्य किसी समुदाय में रहने वाले लोगों की इच्छा, चाहत, अनुभूति, शारीरिक विकास और जीवन में उनके लक्ष्य के संदर्भ में है।

इंडियास्पेंड की रिपोर्ट में राष्ट्रीय आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित खबर के मुताबिक, साल 2001 से भारत में हर साल 20,000 से अधिक गृहिणियों की मौत की वजह आत्महत्या रही है। पिछले कुछ सालों में आत्महत्या के मामले में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या में इजाफा होने के अलावा हाउसवाइफ्स की संख्या सबसे ज्यादा रही है। भारत में आज चार महिला में से एक महिला और दस में से एक पुरुष डिप्रेशन का शिकार है, जिसमें 67 फ़ीसद पीड़ितों में आत्महत्या की प्रवृति देखी गई।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े ये सभी रिपोर्ट और आंकड़े यह बतलाते है कि मौजूदा समय में मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा मुद्दा है जो समाज में दबे पांव अपनी पैठ बढ़ाते जा रहे है और जब ये महिलाओं के साथ जुड़ता है तो स्थिति और भी ज़्यादा गंभीर होती है। जब ये किसानों और गरीब तबके तक पहुंचता है तो आत्महत्या के रूप में सामने आता है।

मानसिक स्वास्थ्य के बारे में प्रसिद्ध मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता रत्नाबोली रे कहती है कि ‘मानसिक स्वास्थ्य को बीमारी की बजाय इंसान के विकास के संदर्भ में देखने और समझने की ज़रूरत है। मेरे अनुसार मानसिक स्वास्थ्य का तात्पर्य किसी समुदाय में रहने वाले लोगों की इच्छा, चाहत, अनुभूति, शारीरिक विकास और जीवन में उनके लक्ष्य के संदर्भ में है। ये हमारे जीवन से जुड़ा एक अहम हिस्सा है, जो एक प्रक्रिया के तहत हमें हर पल प्रभावित करता है। इसलिए अगर सरल शब्दों में कहें तो मानसिक स्वास्थ्य महिलाओं और समाज के हाशिएबद्ध समुदाय को प्रभावित करता है इसलिए ये नारीवादी मुद्दा है।

मानसिक स्वास्थ्य पर चुप्पी से बिगड़ता मानसिक स्वास्थ्य

हमारे समाज में आज भी मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने के लिए कोई सेफ़ स्पेस नहीं होता है। आमतौर पर आज भी हम मानसिक स्वास्थ्य को सिर्फ़ पागल हो जाने के फ़्रेम से ही देखते है, जो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सालों से हमारे दिमाग़ पर एक नकारात्मक छवि का निर्माण किए हुए है। इसी वजह से आज भी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को कोई ख़ास मुद्दा नहीं माना जाता है और इसपर बात करना ग़लत समझा जाता है।

इसके बारे में रत्नाबोली कहती हैं कि ये सिर्फ भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है। इसका प्रमुख कारण है मानसिक स्वास्थ्य को सीधेतौर पर चिकित्सा के संदर्भ में देखा जाना। इसके चलते हम यह उम्मीद करते हैं कि इस विषय पर बात किसी एक्सपर्ट के माध्यम से हो और वो एक्सपर्ट चिकित्सा जगत से जुड़ा हो और ये चलन बढ़ावा देते है मानसिक स्वास्थ्य को चिकित्सा के सीमित दायरों में समेटने के लिए। यहां यह भी समझना ज़रूरी है कि ज्ञान में बेहद ताकत होती है और जब ज्ञान किसी विशेष हाथों में हो तो उस क्षेत्र के दायरे चंद मानकों के तहत परिभाषित कर समेटे जाते है।

जैसा मानसिक स्वास्थ्य और मनोचिकित्सक के संदर्भ में भी देखा जा सकता है।  वहीं दूसरी तरफ मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में बोली जाने वाली चिकित्सीय भाषा की राजनीति भी इसे चिकित्सा के संदर्भ में समेटने के लिए जिम्मेदार है। इस बात ऐसे समझा जा सकता है कि जब भी हम मानसिक स्वास्थ्य शब्द सुनते हैं तो तुरंत हमारे दिमाग में इससे जुड़ी बिमारियों के नाम, मनोचिकित्सालय की तस्वीर और मीडिया के ज़रिये दिखाई जाने वाली इलेक्ट्रिक शॉक ट्रीटमेंट की तस्वीरें सामने आने लगती है। इसका सीधा ताल्लुक हमारी भाषा से है, क्योंकि हम आमतौर पर अपने विचार या मनोभाव के संदर्भ में मानसिक स्वास्थ्य शब्द का इस्तेमाल नहीं करते हैं।

इसी कड़ी में अब इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य कि समाज की चर्चित व लोकप्रिय हस्तियां भी जब भी मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में अपने अनुभव साझा करती है तो उसके केंद्र में होती है चिकित्सीय भाषा में परिभाषित की गयी किसी बीमारी का नाम। इनका इस्तेमाल जैसे उनकी बात की प्रमाणिकता के लिए किया जाता है। ये अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में हमारी समझ को चिकित्सा की भाषा में समेटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। इसलिए ज़रूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बनी इस चुप्पी को ख़त्म कर बात शुरू की जाए।


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