इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत भारतीय पितृसत्तात्मक समाज जहां औरतों के साथ होनेवाले भेदभाव की कोई ‘सज़ा’ नहीं है

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज जहां औरतों के साथ होनेवाले भेदभाव की कोई ‘सज़ा’ नहीं है

ऐसी घटनाएं आए दिन हो रही हैं, सारी घटनाओं को दर्ज नहीं किया जा सकता है। आप यहां के अखबार उठाकर देख लीजिए जो लैंगिक हिंसा की खबरों से भरे होते हैं। स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों का चलन नया नहीं है लेकिन ये अपराध जो पहले से ही थे समाज में थे अब वे महिमामंडित हो गए हैं।

जैसा कि ये हमेशा से हुआ कि धर्म, मान्यता और लोक संस्कृति के नाम पर स्त्रियों को यहां पितृसत्ता की बनाई नीतियों पर चलने के लिए हर तरह से तैयार किया जाता है तो उनका इसमें शामिल होना बहुत अचरज़ की बात नहीं। अशिक्षा और कंडिशनिग इसमें दोनों काम करते हैं और जो शिक्षित हैं वे भी ज्यादातर तमाम पूर्वाग्रहों और कंडिशनिंग से निकल नहीं पातीं।

जिस कड़ी में हम बात कर रहे हैं उसी में मैंने एक घटना में देखा कि लड़का और लड़की दोनों हाशिये की पहचान से आते थे, एक-दूसरे से प्रेम करते थे, विवाह करना चाहते थे। लेकिन दोनों एक ही गाँव के थे इसलिए लड़की की हत्या हो जाती है और कहा जाता है कि उसने आत्महत्या कर ली। जबकि यह बात एकदम स्पष्ट थी कि कथित रूप से लड़की को रात में पिता और भाई ने मिलकर मार दिया था। इसमें यह देखना है कि समाज के लिए लड़की ने ‘कुकृत्य’ किया है इसलिए उसे मार देना गलत नहीं, इसलिए सबने हत्यारों का साथ दिया। इस तरह की हत्याओं को लोग अपनी ‘शान का प्रतीक’ मानते हैं। जैसा कि यह होता है ऐसे मामलों में यहां थाना, पुलिस कोर्ट कचहरी सब बिरादराना सहयोग करते हैं तो इस केस में भी कुछ नहीं हुआ। कोई साक्ष्य नहीं है हत्या का इसलिए कोई केस नहीं दर्ज हुआ है।

हैरानी इस बात की है कि यहां इतनी स्त्री हत्या हुई है लेकिन आज तक किसी को सज़ा नहीं मिली। यहां स्त्री हत्या के जुर्म में जेल में नहीं है। जब हत्या के लिये कोई जेल में नहीं है तो शारीरिक और यौन प्रताड़ना के लिए क्या ही सजा पाते। ऐसी घटनाएं आए दिन हो रही हैं, सारी घटनाओं को दर्ज नहीं किया जा सकता है। आप यहां के अखबार उठाकर देख लीजिए जो लैंगिक हिंसा की खबरों से भरे होते हैं। स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों का चलन नया नहीं है लेकिन ये अपराध जो पहले से ही थे समाज में थे अब वे महिमामंडित हो गए हैं।

आज भी यह हालत है कि अगर किसी को बेटा नहीं है और केवल बेटियां है तो उसे ‘निरबंसिया’ कहा जाएगा। कोई स्त्री मुखर होती है तो उसे इसी बात के लिए धिक्कारा जाएगा कि वह इतना क्यों बोलती है। यह तो उसका अधिकार ही नहीं है , यह अधिकार केवल पुरुष का है।

समाज में जो अपराध पहले आपसी रंजिश आदि के कारण कभी हो जाते थे, अब धार्मिक उन्माद में ‘संस्कृति की रक्षा’ के नाम पर हो जा रहे हैं। एक स्थानीय घटना, लोगों के कहे अनुसार, स्कूल कॉलेज जाती लड़कियों को एकअल्पसंख्यक समुदाय का लड़का परेशान करता था। उसकी एक दिन हत्या हो जाती है और किसी को सज़ा नहीं होती। अब देखना है कि क्या जिन लड़कों ने उसकी पीट-पीटकर हत्या की वे कभी लड़कियों को नहीं परेशान करते। वह लड़का अगर अपराध कर रहा था तो उसे पुलिस में क्यों नहीं दिया गया। ये लिंचिंग जैसी घटनाएं  इस बात का प्रमाण हैं कि समाज में किस तरह की असुरक्षा है। इस समाज में लड़की ‘छेड़ने’ के नाम पर हत्या हो जाना बताता है कि समाज में वही सर्वाइव कर सकता है जिसके पास समूह और पूंजी हो। कहने का अर्थ यहां यह है कि ऐसा नहीं है कि ये सारे संघर्ष सिर्फ स्त्री हिंसा या अस्मिता का ही है। मूल रूप से लड़ाई सत्ता की है, सांस्कृतिक और पूंजीवादी संरचनाओं से भिड़ना है।

सबसे ज्यादा समाज में कोई पक्षपाती व्यवस्था है तो वह है संपत्ति में बेटियों के अधिकार की व्यवस्था। अगर लड़की के पिता को बस कन्या संताने हैं भी तो सम्पत्ति में उनके अधिकार को कोई सहन नहीं कर पाता और अलग-अलग तरिके से उन्हें परेशान किया जाता है। 

यह सदियों के पूर्वग्रह का परिणाम है। इसमें स्त्री को इस तरह देखा जाता है कि उसमें कम बुद्धि है जो अपने लिए किसी तरह का फैसला नहीं ले सकत , जो अपने चयन को कहने के अधिकार से वंचित है और जिस पर हमेशा नैतिकता का बोझ डाला जाएगा।

संपत्ति के अधिकार की बात को भी मैं अपने सामने घटी एक घटना को बताकर शुरू करना चाहती हूं। हमारे गांव में नाली को लेकर एक विवाद हो रहा था। इन दोनों पक्षों में से एक पक्ष में कोई पुरुष संतान नहीं थी। उस परिवार की बेटी अपने पिता के पक्ष में बोलने के लिए सामने आई तो सबसे अधिक आपत्ति चारों तरफ से इस बात को लेकर हुई कि एक लड़की आखिर कैसे किसी मुद्दे को उठा सकती है। उसकी हिम्मत कैसे हुई। आज भी यह हालत है कि अगर किसी को बेटा नहीं है और केवल बेटियां है तो उसे ‘निरबंसिया’ कहा जाएगा। कोई स्त्री मुखर होती है तो उसे इसी बात के लिए धिक्कारा जाएगा कि वह इतना क्यों बोलती है। यह तो उसका अधिकार ही नहीं है , यह अधिकार केवल पुरुष का है।

यह जो एकतरफा हिंसा है, इसकी स्वीकृति समाज और थाना पुलिस में दिखती है। इस तरह की पुरुष हिंसा के दौरान समर्थन में पूरा सामंती ढांचा खड़ा हो जाया करता है। उसको यह लगता है कि अगर स्त्री पक्ष की बहुत बात की गई तो पुरुष केंद्रित सामंती संबंधों का फिर क्या होगा जहां स्त्री को नियंत्रित करने के कितने ही उपाय इजाद किए गए हैं। स्त्री पर शक करना, उसको नैतिकता का मूल संवाहक बना देना, उससे वक्त बेवक्त यौन-प्रत्याशा रखना, शयन कक्ष में उसकी इच्छा को लेकर मनमानी, ये तमाम ऐसे मसले हैं जो पुरुष की प्रतिहिंसा को जागृत करते हैं और स्त्री उत्पीड़न में सहायक होते रहते हैं।

यह सदियों के पूर्वग्रह का परिणाम है। इसमें स्त्री को इस तरह देखा जाता है कि उसमें कम बुद्धि है जो अपने लिए किसी तरह का फैसला नहीं ले सकती, जो अपने चयन को कहने के अधिकार से वंचित है और जिस पर हमेशा नैतिकता का बोझ डाला जाएगा। इस सबके चलते जरूरी है कि जो पुरानी परंपराएं हैं उनकी फिर से व्याख्या की जाए। 

जाहिर है कि इस परिदृश्य को आसानी से नहीं बदला जा सकता और कानून बनाकर तो बिल्कुल भी नहीं। कानून तो पहले से ही मौजूद हैं। दरअसल पूरा समाज ही पुरुष को केंद्र में रखकर संरचित किया गया है। वही कर्ता-धर्ता और हर्ता है तो यह एकतरफा समाज है। रीति रिवाज, पर्व त्यौहार, परंपराएं, धर्मशास्त्र, सभी में पुरुष सत्ता का गौरव गान दिखता है। स्त्री को  अपूर्ण और हीन पेश किया जाता है। इस स्त्री विरोधी दृष्टिकोण को बदलने की ज़रूरत है। यह काम निरंतर किए जाने का है  क्योंकि स्त्री विरोध की पूरी परंपरा सदियों के सामाजिक व्यवहार का नतीजा है। स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा समाज में बहुत गहराई से धंसी हुई है जिसको चिन्हित करना, करवाना बहुत मुश्किल है।

राज्य और समाज में एक वैज्ञानिक वैकल्पिक जीवन शैली को विकसित किए जाने की ज़रूरत है जो अधिक मानवीय, समावेशी और लोकतांत्रिक हो जहां से खड़े होने पर दिखे कि समाज में हर मनुष्य एक बराबरी की दुनिया में जी रहा हो।

अगर गाँव में ज़मीन, नाली आदि को लेकर कोई पैमाइश है तो पंचायत में आए कुछ लोगों की सर्वकालिक घोषणा होती है कि कोई स्त्री पंचायत में नहीं बोलेगी नहीं तो वे पंचायत नहीं करेंगे। ये कहां का न्याय है? स्त्री क्या मनुष्य नहीं है? अगर वह पंचायत में अपनी बात रख रही है तो उसे क्यों नहीं सुना जाएगा? महज इसलिए कि वह स्त्री है। कोई स्त्री हिम्मत करके चेहरे पर घुंघट डाले पंचायत में एकतरफ खड़ी भी है तो लोगों को खटकती रहती है। बहुत बार यहां देखा गया है कि पंचायत में स्त्री के बोलने पर क्रुद्ध कोई पंच हाथ भी उठा देते हैं गाली भी दे देते हैं। स्त्री सब सहकर भी अपनी बात कहती रहती है। यह तो बस एक दृश्य है इस समाज में अपराध की कड़ी में बाकी तो इस तरह की हिंसाओं की लंबी फेहरिस्त है।

महिलाओं की भागीदारी कैसे एक लैंगिक रूप से समान परिवेश बनाने में महत्वपूर्ण है इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में पहले स्कूलों में कोई महिला अध्यापक नहीं होती थी। एकाध जगह को छोड़ दें तो दो दशक पहले किसी प्राथमिक विद्यालय में कोई स्त्री टीचर नहीं थीं तो लड़कियों को स्कूल में शौचालय आदि को लेकर काफी दिक्कतें थीं। गंवई परिवेश और अपने संकोच के कारण बहुत सारी बच्चियां पीरियड्स आदि से जुड़ी दिक्कतें स्कूल में नहीं कह सकती थीं। अक्सर यह भी होता कि कभी इन्हीं वजहों से भी लड़कियां स्कूल छोड़ देती थीं। अब स्कूलों में खूब महिला टीचर्स होती हैं तो उनके लिए स्कूल का वातावरण सहज हो गया है पहले से कहीं अधिक। इस तरह अगर ऐसी तमाम जगहों पर स्त्रियों की भागीदारी रहे तो स्त्रियों के लिए समाज ज्यादा सहज और सुरक्षित हो सकता है और निरंतर बढ़ रहे अपराध भी कम हो सकते हैं। राज्य और समाज में एक वैज्ञानिक वैकल्पिक जीवन शैली को विकसित किए जाने की ज़रूरत है जो अधिक मानवीय, समावेशी और लोकतांत्रिक हो, जहां से खड़े होने पर दिखे कि समाज में हर मनुष्य एक बराबरी की दुनिया में जी रहा हो।


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