भारत में इस साल पड़ी भीषण गर्मी हो, पाकिस्तान में तबाह मचाने वाली बाढ़ हो या फिर यूरोप में मौसम का बदलता मिज़ाज ये सब जलवायु परिवर्तन के परिणाम हैं। पृथ्वी के भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन एक गंभीर समस्या है जिसके लिए दुनिया के दो सौ के करीब देश एक मंच पर इकट्ठा होकर उसके समाधान के लिए लगे हुए हैं। इस समय दुनियाभर के नीति-निर्माता, पर्यावरण कार्यकर्ता और वैज्ञानिक मिस्र के शर्म अल-शेख में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन कॉप-27 में हिस्सा ले रहे हैं। इस मंच पर मौजूदा जलवायु संकट के खतरे को खत्म करने के लिए अनेक समझौते और आर्थिक सहयोग के नाम पर रणनीति और जिम्मेदारी एक-दूसरे पर थोप रहे हैं।
इसी तरह दुनिया के अमीर देश, गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने के लिए वित्तीय सहायता देते हैं जिसे ‘क्लाइमेंट फाइनेंस’ कहा जाता है। इस लेख के माध्यम से हम समझने की कोशिश करेंगे कि क्लाइमेट फाइनेंस क्या है, क्यों जलवायु परिवर्तन के लिए पैसा इतना अहमियत रखता है।
क्लाइमेट फाइनेंस के तहत विशेष तौर पर विकसित देश, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद करने के लिए पैसे देते हैं यानी दुनिया के अमीर देश कम आय वाले देशों को जलवायु परिवर्तन के बदलाव को रोकने के लिए धनराशि देते हैं।
क्लाइमेट फाइनेंस क्या है?
क्लाइमेट फाइनेंस का मतलब है कि जलवायु समस्या के समाधान के लिए वित्तीय सहायता। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गतिविधियों के लिए आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के अनुसार क्लाइमेट फाइनेंस से मतलब ऐसे पैसे से है जिसका इस्तेमाल उत्सर्जन को कम करने, ग्रीन हाउस गैसों की सिंक बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन की वजह से मानव और पारिस्थितिक तंत्र पर पड़नेवाले असर को कम करने की दिशा में उठाए गए कदमों के लिए होता है।
क्लाइमेट फाइनेंस के तहत विशेष तौर पर विकसित देश, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद करने के लिए पैसे देते हैं यानी दुनिया के अमीर देश कम आय वाले देशों को जलवायु परिवर्तन के बदलाव को रोकने के लिए धनराशि देते हैं। अमीर देशों का यह मानना है कि गरीब देशों के पास इस संकट से उबरने के लिए पर्याप्त वित्तीय क्षमता नहीं है। जलवायु संकट को खत्म करने के इस दिशा में काम करने के लिए एडैप्टेशन (अनुकूलन) और मिटिगेशन (शमन) ज़रूरी है। इसके लिए गरीब देशों को मदद पहुंचाने के लिए आर्थिक साहयता दी जाती है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार बहुत से अमीर देश, विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस योगदान में गलत और भ्रामक आंकड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऑक्सफैम के आंकलन के अनुसार साल 2020 में क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 21-24.5 अरब डॉलर दिया गया लेकिन अमीर देशों द्वारा सार्वजनिक रिपोर्ट में 68.3 अरब डॉलर की राशि दिखाई गई है।
साल 2009 में कोपेहेगन में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के बाद से क्लाइमेट फाइनेंस के स्रोत और शासन को लेकर बड़े स्तर पर बहस हुई जहां औद्योगिक देशों ने हर साल 2020 तक सौ अरब (बिलियन) डॉलर की सालाना आर्थिक मदद देने के लिए तैयार हुआ था। चीजों को आगे बढ़ाने के लिए साल 2012 के आख़िर तक ‘फास्ट स्टार्ट’ के लिए 30 बिलियन डॉलर की मदद वादा किया गया था। हालांकि, साल 1992 के बाद से ही क्लाइमेट फाइनेंस को केंद्र में रखकर बातचीत होनी शुरू हो गई थी। बाद में 2010 में कैनकस समझौते के बाद क्लाइमेट फाइनेंस के सही वितरण के लिए नई संस्था ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ बनाई गई। पेरिस समझौता 2015 में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2025 तक की समय-सीमा तय की गई।
क्लाइमेट फाइनेंस की ज़रूरत क्यों पड़ी
जलवायु परिवर्तन के संकट को पैदा करने में दुनिया के अमीर देशों का सबसे ज्यादा योगदान है लेकिन उससे सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब देश हैं। गरीब देशों की भौगोलिक स्थिति और कम आय की वजह से जलवायु परिवर्तन का सामना करना उनके लिए अधिक कठिन हो जाता है। निम्न आय वाले देशों को सुरक्षित कृषि, समुद्र के बढ़ते जलस्तर के प्रभाव को रोकने के लिए, बुनियादी ढांचे को और लचीला बनाने के लिए, तकनीक को विकसित करने और क्षमता बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता की बहुत आवश्यकता है। लेकिन ऑक्सफैम की 2018 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि विकसित देश अपने वादे को पूरा करने में पिछड़ गए हैं। अमीर देशों का यह रवैया केवल एक कूटनीति बनकर ही रह गया है।
असल तस्वीर यह है कि एक तरफ तो अमीर देश केवल उदारता के नाम पर फंड और दान जैसी बात कर रहे हैं दूसरी ओर फंड में उनका योगदान लगातार गिरता जा रहा है। क्लाइमेट फंड के नाम पर दुनिया के विकसित देश, जलवायु परिवर्तन के संकट का जिम्मेदार और उससे उबरने का सारा भार केवल विकासशील और गरीब देशों पर लादते भी नज़र आते हैं।
लॉस एंजिल्स टाइम्स के अनुसार 2019 तक डोनर देश ने केवल 10.3 अरब डॉलर ही खर्च किए हैं। ग्रीन क्लाइमेट फंड ने दुनियाभर में केवल 111 परियोजनाओं के लिए 5.2 अरब डॉलर का भुगतान किया है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिकी योगदान बंद ही कर दिया था। ओबामा के कार्यकाल के दौरान ली गई शपथ के तीन अरब डॉलर में से अमेरिका ने केवल एक अरब डॉलर ही भेजा था।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार बहुत से अमीर देश, विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस योगदान में गलत और भ्रामक आंकड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऑक्सफैम के आंकलन के अनुसार साल 2020 में क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 21-24.5 अरब डॉलर दिया गया लेकिन अमीर देशों द्वारा सार्वजनिक रिपोर्ट में 68.3 अरब डॉलर की राशि दिखाई गई है। असल तस्वीर यह है कि एक तरफ तो अमीर देश केवल उदारता के नाम पर फंड और दान जैसी बात कर रहे हैं दूसरी ओर फंड में उनका योगदान लगातार गिरता जा रहा है। क्लाइमेट फंड के नाम पर दुनिया के विकसित देश, जलवायु परिवर्तन के संकट का जिम्मेदार और उससे उबरने का सारा भार केवल विकासशील और गरीब देशों पर लादते भी नज़र आते हैं।
क्लाइमेट फाइनेंस बना कर्ज
डाउन टू अर्थ के एक लेख में ऑक्सफैम की रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि गरीब देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस एक नयी समस्या बनता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के खतरों जैसे बाढ़, तूफान, सूखा, भुखमरी आदि से निपटने के लिए यह देश लंबे समय से अमीर देशों से मदद पा रहे हैं। मदद के नाम पर दिया जा रहा फंड इन देशों को कर्जदार बना रहा है, जिसको चुका पाना भी एक समस्या है। रिपोर्ट के अनुसार अमीर देशों ने 60 अरब डॉलर की रकम दी लेकिन उन देशों के पास केवल एक तिहाई ही पहुंच पाया। बाकी का पैसा ब्याज, पुनर्भुगतान और अन्य लागतों के रूप में काट दिया गया था।
ऑक्सफैम के आकलन के अनुसार 2020 में क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर 21-24.5 अरब डॉलर दिया गया लेकिन अमीर देशों द्वारा सार्वजनिक रिपोर्ट में 68.3 अरब डॉलर की राशि दिखाई गई है। असल तस्वीर यह है कि एक तरफ तो अमीर देश केवल उदारता के नाम पर फंड और दान जैसी बात कर रहे हैं दूसरी ओर फंड में उनका योगदान लगातार गिरता जा रहा है।
कॉप-27 और क्लाइमेट फाइनेंस
इस साल कॉप-27 में आर्थिक सहयोग पर विशेष तौर पर बातें हुई हैं। गरीब देश, अमीर देशों से जीवाश्म मुक्त (फॉसिल-फ्री) भविष्य की ओर ले जाने के लिए मदद मांग रहे हैं। इसके अवाला सम्मेलन में कम आय वाले देशों का यह भी कहना है कि धरती के बढ़ते तापमान जिसमें उनका योगदान बहुत कम है उससे उबरने के लिए उन्हें वित्तीय मदद चाहिए। डीडब्ल्यू में छपी ख़बर के अनुसार मिस्र में चल रहे कॉप-27 सम्मेलन में बारबाडोस के प्रधानमंत्री मिया मोटले ने कहा, “हम लोग ही थे जिनका खून, पसीना और आंसू, औद्योगिक क्रांति में खर्च हुआ है। क्या अब हमें, औद्योगिक क्रांति की वजह से निकली ग्रीनहाउस गैसों के एवज में कीमत चुकाकर दोहरी मार झेलनी होगी।” दरअसल विकसित देश औद्योगिक क्रांति की वजह से जलवायु परिवर्तन का सारा दोष विकासशील देशों पर थोप देते हैं।
रॉयटर्स की ख़बर के अनुसार कॉप-27 में जलवायु संकट से उबरने के लिए प्रदर्शनकारी भी बड़ी संख्या में क्लाइमेंट फंड की मांग कर रहे हैं। भारत ने भी 2024 तक क्लाइमेट फाइनेंस को और अधिक बढ़ाने की मांग की है। भले ही दुनियाभर के 198 देशों के नेता इस सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं लेकिन जलवायु संकट से उबरने मुद्दा केवल राजनीतिक और ताकत के मुद्दे तक सीमित रह गया है। जलवायु परिवर्तन की समस्या से उबरने के लिए राष्ट्रों और संस्थानों को ज्यादा प्रतिबद्धता दिखानी होगी। कथनी और करनी में फर्क से अलग पारदर्शिता अपनाने की ज़रूरत है। क्लाइमेट फाइनेंस में गड़बड़ी करनेवाले देशों को कड़ा संदेश देने की आवश्यकता है।