पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा पॉक्सो से संबंधित एक केस में टिप्पणी गई कि दो वयस्कों की सहमति से प्यार पाने की चाहत में कोई दखल नहीं दे सकता। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस संजय कुमार सिंह ने कहा है कि दो सहमति देनेवाले वयस्कों के बीच जीवनसाथी की पसंद, व्यक्तिगत अंतरंगता की इच्छा और मानवीय रिश्ते में प्यार और पूर्णता पाने की इच्छा में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। हाई कोर्ट की इस टिप्पणी ने पॉक्सो ऐक्ट के अंतर्गत शब्द ‘बच्चे’ पर और सहमति से बनाए गए संबंध में ‘उम्र’ पर फिर से सवाल खड़े कर दिए हैं। इस फैसले ने फिर से स्वतंत्र सहमति से दो किशोर युवाओं के बीच बनाए गए शारीरिक संबंधों की वैधता पर एक बहस छेड़ दी है।
भारत में नाबालिगों के साथ यौन कृत्यों से संबंधित कानून को पिछले एक दशक से यौन अपराधों के खिलाफ बच्चों के संरक्षण ऐक्ट, 2012 पॉक्सो के साथ विशेषीकृत किया गया है। इससे पहले, भारतीय दंड संहिता, 1860 आईपीसी, जो सामान्य ठोस आपराधिक कानून से संबंधित है, का इस्तेमाल बच्चों के खिलाफ अपराध करनेवाले अभियुक्तों को दंड देने के लिए किया जाता था। बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की समस्या से निपटने के लिए भारत में पारित किए गए पहले कानून के रूप में इसकी प्रशंसा हुई, जिसे कई लोगों ने महसूस किया कि यह लंबे समय से अपेक्षित था।
लेकिन इसने किशोरों के बीच और किशोरों और युवा वयस्कों के बीच यौन और रोमांटिक संबंधों को भी प्रभावी रूप से अपराध बना दिया। इस ऐक्ट के अंतर्गत 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को बच्चा माना जाता है। दस साल बाद, आम सहमति बन रही है कि ऐसे रिश्तों में युवाओं और किशोरों को इस कानून के तहत संपार्श्विक क्षति (कोलैट्रल डैमेज) के रूप में भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में स्वतंत्र सहमति से दो लोगों के बीच की होनेवाली यौन गतिविधि को इस ऐक्ट के तहत अपराध न माना जाए।
किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंध अपराध कैसे?
पॉक्सो ऐक्ट की धारा 2(डी) तहत, एक ‘बच्चे’ को किसी भी ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसकी उम्र 18 साल से कम है। इसके परिणामस्वरूप, ऐक्ट नाबालिग किशोरों के बीच या उनके साथ किसी भी प्रकार की सहमति से हुई यौन गतिविधि की संभावना को मान्यता नहीं देता है। एनसीआरबी के आंकड़ों को और उन पर किए गए शोध को देखने से पता चलता है कि पॉक्सो ऐक्ट के तहत दर्ज किए गए मामलों में एक बड़ा हिस्सा उन मामलों का है जब लड़कियां अपने पुरुष पार्टनर्स के साथ घर छोड़ रही होती हैं। ये मामले आमतौर पर इन लड़कियों के माता-पिता द्वारा दर्ज किए जाते हैं जो बेटी की गुमशुदगी की शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते हैं। बाद में, छानबीन के बाद यह पता चलता है कि लड़की और उसके साथी के बीच सहमति से यौन संपर्क रहा है और वे साथ रहना चाहते हैं। इसके बावजूद पॉक्सो ऐक्ट के तहत पुरुष पार्टनर्स पर आरोप लगाए जाते हैं।
बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की समस्या से निपटने के लिए भारत में पारित किए गए पहले कानून के रूप में इसकी प्रशंसा हुई, जिसे कई लोगों ने महसूस किया कि यह लंबे समय से अपेक्षित था। लेकिन इसने किशोरों के बीच और किशोरों और युवा वयस्कों के बीच यौन और रोमांटिक संबंधों को भी प्रभावी रूप से अपराधी बना दिया। इस ऐक्ट के अंतर्गत 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को बच्चा माना जाता है।
अगर देखा जाए तो तथ्य यह है कि 15-18 साल के बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के बहुत सारे मामले सालभर में पुलिस को रिपोर्ट किए जाते हैं और ये मामले आमतौर पर लड़की के माता-पिता के कहने पर रिपोर्ट किए जाते हैं, क्योंकि वे किशोरों के फैसले को अस्वीकार करते हैं। इसलिए, सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या इस उम्र की एक किशोर लड़की या लड़के में ‘स्वतंत्र सहमति’ देने की क्षमता है। इस उम्र वर्ग में ज्यादातर मामलों में लड़कियां घरवालों के खिलाफ हो जाती हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि किशोरावस्था एक ऐसा चरण है जहां यौन भावनाएं पैदा होती हैं और उभरती हैं।
कोई यह नहीं कह सकता है कि यह 18 साल या 16 साल की उम्र के बाद पैदा होती हैं, या यह पहले पहले हो सकती हैं। कोई भी विद्वान बच्चों, विशेषरूप से किशोरों की विकसित हो रही शारीरिक रचना की रक्षा करने और पहचानने के बीच की रेखा कैसे खींच सकता है? यह एक पेचीदा मामला है, क्योंकि इसमें हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार की संभावना होती है और सहमति धोखाधड़ी या ज़बरदस्ती, या बहला-फुसला कर प्राप्त की जा सकती है। ऐसे में 15 या 16 साल से ऊपर की उम्र के वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध कैसे माना जाए?
क्या उम्र के मुद्दे पर विधायी सुधार की ज़रूरत है?
कानून के कुछ अन्य प्रावधान भी इस स्थिति के लिए प्रासंगिक हैं। सबसे पहले, हमारे देश का कानून 7 साल से कम उम्र के बच्चे द्वारा किए गए किसी भी कृत्य को अपराध नहीं मानता है। दूसरा, भले ही बच्चा 7 और 12 साल की उम्र के बीच का हो, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उसने अपने आचरण/कृत्य की प्रकृति और परिणामों को समझने और उनके बीच न्याय करने के लिए पर्याप्त परिपक्वता प्राप्त नहीं की है, इसीलिए उसके कार्य को अपराध नहीं माना जाएगा। 7-12 साल की उम्र वर्ग के ग्रे क्षेत्र को छोड़कर, यह निहित है कि 12 साल से अधिक उम्र का बच्चा अपराध की पर्याप्त समझ विकसित करता है। परिणामस्वरूप, चार साल के अतिरिक्त मार्जिन के साथ परिपक्वता प्राप्त करने की यह धारणा जैसा कि अभी माना जा रहा है ‘स्वतंत्र सहमति’ देने के मामलों में भी लागू हो सकती है? एक ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि बाल श्रम (निषेध और विनियमन) ऐक्ट एक बच्चे को 14 साल से कम उम्र के व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है।
ऐसे में सवाल यह है कि सहमति से बनाए जानेवाले यौन संबंध के लिए किशोरों/वयस्क की उम्र 18 ही क्यों?
हाल के कुछ सालों में भारत के अलग-अलग हाई कोर्ट्स ने 18 साल से कम उम्र के किशोर-किशोरियों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंधों पर एक लचीला रवैया अपनाया हुआ है। भारतीय न्यायालयों द्वारा कई फैसले ऐसे आए हैं जो सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध नहीं मानते हैं और पॉक्सो के अंतर्गत दी गई बच्चे की 18 साल की उम्र की सीमा पर विधायी सुधार की बात करते हैं।
एनसीआरबी के आंकड़ों को और उन पर किए गए शोध को देखने से पता चलता है कि पॉक्सो ऐक्ट के तहत दर्ज किए गए मामलों में एक बड़ा हिस्सा उन मामलों का है जब लड़कियां अपने पुरुष पार्टनर्स के साथ घर छोड़ रही होती हैं। ये मामले आमतौर पर इन लड़कियों के माता-पिता द्वारा दर्ज किए जाते हैं जो बेटी की गुमशुदगी की शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते हैं।
दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस जसमीत सिंह की एकल न्यायाधीश पीठ ने पिछले महीने पोक्स ऐक्ट, 2012 के तहत अपराध के आरोपी व्यक्ति को ज़मानत देते हुए कहा कि यह ऐसा मामला नहीं था जहां लड़की को मजबूर किया गया था। साथ ही कहा कि 17 साल की लड़की खुद आरोपी के साथ रहना चाहती है और उसने आरोपी के साथ सहमति से संबंध बनाए हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि पॉक्सो ऐक्ट का मकसद 18 साल से कम उम्र के बच्चों को यौन शोषण से बचाना था। इसका मतलब कभी भी युवा वयस्कों के बीच सहमति से बने रोमांटिक रिश्तों को अपराध नहीं बनाना था। हालांकि, इसे प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से देखा जाना चाहिए क्योंकि ऐसे मामले हो सकते हैं जहां यौन अपराधों के सर्वाइवर दबाव या आघात में हो, उन्हें समझौता करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले साल इस बात की जांच करने का फैसला किया था कि क्या सहमति से संबंध बनाने वाले नाबालिगों पर पॉक्सो ऐक्ट के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। हालांकि, अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं आया है।
18 साल से कम उम्र के व्यक्तियों के लिए सभी यौन व्यवहारों को अपराधी बनाना समस्याग्रस्त हो सकता है। उदाहरण के लिए, 17 साल की उम्र के एक बच्चे को सश्रम कारावास के योग्य अपराधी के रूप में मानना, क्योंकि उसने 17 साल के एक अन्य व्यक्ति के साथ सहमति से यौन संबंध बनाए थे, यह एक उचित उपाय नहीं है। यहां तक कि इस प्रकार के मामले में पॉक्सो जैसे नेकनीयत कानूनों के भी अनपेक्षित नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।
केरल हाई कोर्ट ने पॉक्सो के एक मामलें में एक आदेश जारी करते हुए, यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण ऐक्ट (पॉक्सो ), 2012, और भारतीय दंड संहिता (IPC), 1856 में यौन गतिविधि और बलात्कार में सहमति के बीच अंतर नहीं करने की गलती को माना। न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि ये कार्य किशोरों की शुद्ध जिज्ञासा से पैदा होते हैं और रूढ़िवादी कानून के स्वरूप के कारण किशोरों के लिए कठोर परिणाम होते हैं।
साल 2019 में, मद्रास हाई कोर्ट के एक फैसले में, जस्टिस वी. पार्थिबन ने इस मुद्दे की पहचान करने और इसे संबोधित करने के लिए, इससे निपटने के लिए कुछ सिफारिशें भी दी थीं। यह सुझाव दिया गया था कि, सबसे पहले पॉक्सो ऐक्ट के तहत सहमति की उम्र को घटाकर 16 साल किया जाना चाहिए और दूसरा, एक निकटता खंड पेश किया जाना चाहिए। एक निकटता खंड की ज़रूरत इसलिए है कि अपराधी और सर्वाइवर की उम्र के बीच ज्यादा अंतर नहीं होना चाहिए-उदाहरण के लिए, पांच साल। यह किशोर जोड़े को ऐक्ट के दायरे में लाए जाने से बचाने के लिए एक तंत्र के रूप में काम करेगा।
भारतीय न्यायालयों द्वारा कई फैसले ऐसे आए हैं जो सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध नहीं मानते हैं और पॉक्सो के अंतर्गत दी गई बच्चे की 18 साल की उम्र की सीमा पर विधायी सुधार की बात करते हैं।
पॉक्सो ऐक्ट, हालांकि, 18 साल से कम उम्र के व्यक्तियों के लिए सभी यौन व्यवहारों को आपराधिक घोषित करता है। आज के समय और उम्र में, नाबालिगों के बीच सहमति से यौन संबंध एक सामान्य तथ्य है। इसके बावजूद, हमारे देश का कानून समय के साथ तालमेल बिठाने में धीमा रहा है। इसलिए 18 साल से कम उम्र के व्यक्तियों के लिए सभी यौन व्यवहारों को अपराधी बनाना समस्याग्रस्त हो सकता है। उदाहरण के लिए, 17 साल की उम्र के एक बच्चे को सश्रम कारावास के योग्य अपराधी के रूप में मानना, क्योंकि उसने 17 साल के एक अन्य व्यक्ति के साथ सहमति से यौन संबंध बनाए थे, यह एक उचित उपाय नहीं है। यहां तक कि इस प्रकार के मामले में पॉक्सो जैसे नेकनीयत कानूनों के भी अनपेक्षित नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं।
कई देशों में सहमति की उम्र 16 साल या उससे कम है। अधिकांश अमेरिकी राज्य, यूरोप, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, चीन और रूस इस श्रेणी में आते हैं। भारत में भी पॉक्सो ऐक्ट लागू होने से पहले, यौन संबंध के लिए सहमति की उम्र 16 साल थी। जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति रिपोर्ट जो कि आपराधिक कानून में संशोधन पर 2013 में आई थी ने भी कहा कि सहमति की उम्र कम करके 16 साल की जानी चाहिए। कर्नाटक हाई कोर्ट के जस्टिस सूरज गोविंदराज और जी. बसवराज ने सहमति से बनाS गए यौन संबंधों के मामले में कहा कि 16 साल से अधिक उम्र की नाबालिग लड़कियों का घर छोड़ने के बाद सहमति से लड़के के साथ यौन संबंध बनाने से संबंधित कई मामलों के सामने आने के बाद, हमारा मानना है कि लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया को उम्र मानदंड पर पुनर्विचार करना होगा ताकि जमीनी हकीकत को ध्यान में रखा जा सके।