इंटरसेक्शनलहिंसा जब पितृसत्तात्मक समाज में अपराधी से अधिक महिलाओं के फैसलों पर उठाए जाते हैं सवाल

जब पितृसत्तात्मक समाज में अपराधी से अधिक महिलाओं के फैसलों पर उठाए जाते हैं सवाल

हर बार जब भी कोई महिला सामाजिक नियमों को तोड़ने का प्रयास करती है और अपनी मर्जी का कोई जीवनसाथी, रोज़गार या कुछ भी चुनने की कोशिश करती है तब उसे सामाजिक प्रताड़ना और घृणा का सामना करना पड़ता है।

दिल्ली में हाल ही में एक लड़की की उसके ही साथी द्वारा हत्या कर दी गई। आफताब नामक एक शख़्स ने श्रद्धा की हत्या कर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और इस अपराध को छिपाने के लिए दिल्ली के मैहरोली में अलग-अलग जगह पर शव के टुकड़े फैंक दिए। हमेशा की तरह इस घटना को लेकर भी लोग कई खेमों में बंट गए हैं। एक ओर समाज का वह खेमा है जो हर बार की तरह लैंगिक हिंसा के इस अपराध को भी मज़हबी चश्मे से देखकर उसे सांप्रदायिक बनाने का भरपूर प्रयास कर रहा है। वहीं, दूसरी ओर समाज के वह तथाकथित रक्षक हैं जो महिलाओं के ख़िलाफ़ होनेवाली हिंसा का ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ने को उत्साहित रहते हैं। 

इस पित्तृसत्तामक समाज में अक्सर हमें यह देखने को मिलता है कि जिस महिला के साथ हिंसा हुई है उसी महिला को समाज के ठेकेदार सवालों के कठघरे में लाकर खड़ा कर देते हैं। अगर किसी महिला के साथ लैंगिक हिंसा हुई है तो तथाकथित समाज के अनुसार उसका जिम्मेदार वह व्यक्ति नहीं है जिसने यह अपराध किया है बल्कि वह महिला खुद है। इसके अलग-अलग कारण यह समाज गिनवा देता है। इसी सोच के तहत इस मामले में भी दोषी श्रद्धा वालकर को ठहराया गया क्योंकि वह लिव-इन में रहती थी, एक दूसरे धर्म के व्यक्ति के साथ।

अब जब सारा दोष लिव-इन और अंतरधार्मिक रिश्तों पर मढ़ने का कार्यक्रम चल ही रहा है तो केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर ने सोचा कि इस कार्यक्रम का हिस्सा तो उन्हें भी बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाएं उन सभी लड़कियों के साथ ही हो रही हैं जो पढ़ी-लिखी हैं और सोचती हैं कि वे बहुत खुले विचारों की हैं, अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं। ऐसी लड़कियां लिव-इन में फंस जाती हैं। लड़कियों को ध्यान रखना चाहिए कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं।” इस तरह कौशल किशोर ने पढ़ी-लिखी लड़कियों को, उनकी सोच, उनकी शिक्षा को, उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार के लिए दोषी ठहरा दिया। आगे वह कहते हैं कि शिक्षित लड़कियों को ऐसे रिश्तों में नहीं आना चाहिए और ऐसी घटना से सीख लेनी चाहिए। उन्हें अपने माता-पिता की अनुमति के बिना किसी के साथ नहीं रहना चाहिए।

एक ओर समाज का वह खेमा है जो हर बार की तरह लैंगिक हिंसा के इस अपराध को भी मज़हबी चश्मे से देखकर उसे सांप्रदायिक बनाने का भरपूर प्रयास कर रहा है। वहीं, दूसरी ओर समाज के वह तथाकथित रक्षक हैं जो महिलाओं के ख़िलाफ़ होनेवाली हिंसा का ठीकरा उन्हीं के सिर पर फोड़ने को उत्साहित रहते हैं। 

जहां हमारा समाज वयस्कों के शादी से पहले साथ रहने से सहमत नहीं है और इसे सामाजिक दृष्टि में हीन भावना से देखा जाता है लेकिन हमारी न्याय व्यवस्था इसे अलग तरीके से देखती है। हमारे देश में लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर कोई अलग कानून नहीं है लेकिन कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग हाई कोर्ट्स ने इसे लेकर महत्वपूर्ण फैसले सुनाए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन को लेकर टिप्पणी की थी कि लिव-इन रिलेशनशिप न तो अपराध है और न ही पाप। लेकिन फिर भी देश में सामाजिक तौर पर इसे स्वीकार नहीं किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत लिव-इन रिलेशनशिप के लिए भी दिशानिर्देश तैयार किए।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, पहली बार 1978 में बद्री प्रसाद बनाम डायरेक्टर ऑफ कंसोलिडेशन के केस में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दी थी। कोर्ट के अनुसार यदि कोई व्यस्क व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप में है तो इसे कानून का उल्लघंन नहीं माना जाएगा। लिव-इन रिलेशनशिप कानूनी तौर पर संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है। लेकिन इसके साथ ही जो कानून की नज़र में सही होता है, ज़रूरी नहीं कि उसे सामाजिक मान्यता भी प्राप्त मिल जाए। ऐसा ही हमें लिव-इन के मामले में भी देखने को मिलता है।

साथ ही इस केस के बाद हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने फिर से वही बात दोहराई है कि अगर महिला अपने माता-पिता की अनुमति के बाद किसी व्यक्ति के साथ रहती है तो फिर उसके साथ कोई अपराध नहीं हो सकता। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। साल 2010 में दिल्ली में हुए इस अपराध की तरह ही देहरादून में भी इस तरह की घटना सामने आई। अनुपमा नाम की एक महिला को उसके ही पति राजेश गुलाटी द्वारा मार दिया गया। राजेश ने अपनी पत्नी के 72 टुकड़े कर उसे फ्रिज में रखा और उत्तराखंड की राजधानी में अलग-अलग जगहों पर फेंक दिया था।

हर बार जब भी कोई महिला सामाजिक नियमों को तोड़ने का प्रयास करती है और अपनी मर्जी का कोई जीवनसाथी, रोज़गार या कुछ भी चुनने की कोशिश करती है तब उसे सामाजिक प्रताड़ना, हिंसा और घृणा का सामना करना पड़ता है।

इसी तरह दिल्ली में साल 1995 में एक और ऐसा ही मामला सामने आया जिसमें सुशील शर्मा ने अपने पत्नी नैना सहानी की शक के चलते गोली मारकर हत्या की। नैना कांग्रेस की नेता थी और उनकी उम्र सिर्फ 29 साल थी। सुशील की हत्या कर, उसके शव को तंदूर में जलाने की कोशिश की। वहीं, हाल ही में उत्तर प्रदेश के मथुरा में एक 22 साल की महिला का शव यमुना एक्सप्रेसवे के पास सूटकेस में बंद मिला। पुलिस के मुताबिक उस महिला को उसके ही पिता ने अपनी ही बेटी को गोली मार कर हत्या कर दी। इस मामले में लड़की का दोष बस इतना था कि उसने अपनी मर्जी से अपने घरवालों को बिना बताए किसी दूसरी जाति के लड़के से शादी की थी।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने 25 नवंबर को मनाए जानेवाले ‘अंतरराष्ट्रीय महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन दिवस’ से पहले यह टिप्पणी की कि औरतों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा मानवाधिकारों का उल्लघंन है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि दुनियाभर में हर 11 मिनट में एक महिला या लड़की की हत्या उसके करीबी साथी या परिवार के सदस्य द्वारा की जाती है। ऐसे ही न जाने कितनी ही लड़कियां हैं जो अपने ही साथी या परिवार की इच्छा के विरुद्ध जाकर फैसले करने पर उन्हीं के हाथों जान गवा देती हैं या प्रताड़ित होती हैं। हर बार जब भी कोई महिला इन सामाजिक नियमों को तोड़ने का प्रयास करती है और अपनी मर्जी का कोई जीवनसाथी, रोज़गार या कुछ भी चुनने की कोशिश करती है तब उसे सामाजिक प्रताड़ना, हिंसा और घृणा का सामना करना पड़ता है।


Comments:

  1. Shivam Pachauri says:

    आपके इस कार्य की सरहाना करता हूं और अग्रिम भविष्य की शुभकामनाएं देता हूं।।

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