छवि, एक निजी फर्म में काम करती थीं लेकिन कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन में उनका ऑफिस बंद हुआ। शुरू में कुछ तनख्वाह मिली, बाद में यह पूरी तरह से बंद हो गई। लंबे समय तक तालांबदी और बाज़ार में गिरावट के कारण उनकी नौकरी चली गई। इसके बाद वह दोबारा काम पर नहीं जा पाई। परिवारवालों ने भी घर को वरीयता देने के चलते उन्हें नौकरी करने से मना कर दिया। छवि दुनिया की उन लाखों-करोड़ों महिलाओं में शामिल हैं जिन्होंने कोविड-19 के चलते अपनी नौकरी गंवा दी और उसके बाद कई वजहों से वे दोबारा काम पर नहीं लौट सकीं। रोज़गार छिन जाने से इन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है।
हाल ही में ऑक्सफैम की ओर से जारी एक रिपोर्ट में भी यह निष्कर्ष सामने निकलकर आया है कि कोविड-19 के चलते 2020 के मुकाबले 2021 में महिलाओं को कम रोज़गार मिला है। ऑक्सफैम की ‘द असॉल्ट ऑफ ऑस्टेरिटी’ नाम से जारी हुई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी से उबरने की कोशिश के लिए सरकारें मितव्ययिता के उपायों को लागू कर रही है जो लोगों को अलग तरह से प्रभावित कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 85 फीसदी आबादी 2023 तक मितव्ययिता के उपायों की चपेट में रहेगी। इसका असर अधिकांश महिलाओं, लड़कियों और गैर-बाइनरी लोगों पर होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कई सरकारों ने जलापूर्ति जैसी सार्वजनिक सेवाओं में कटौती की है। इससे दुनियाभर में महिलाओं और लड़कियों को पानी की व्यवस्था के लिए अधिक समय देना पड़ेगा। यही नहीं, सरकारें मातृत्व और बच्चों की सुरक्षा पर भी बहुत कम खर्च कर रही हैं। सार्वजनिक सेवाओं में कटौती का असर महिलाओं पर कई तरीके से पड़ता है। महिलाओं को ज़रूरी सार्वजनिक सेवाओं में कटौती के चलते शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे उन पर ज्यादा निर्भर करती हैं। पानी हर इंसान के लिए बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन महिलाओं को अपनी निजी ज़रूरतों के अलावा घर के कामों को पूरा करने के लिए भी उसकी व्यवस्था करनी पड़ती है। सार्वजनिक जलपूर्ति में कमी की वजह से हर साल 800,000 महिलाएं और लड़कियां अपनी जान गंवा देती हैं। यही नहीं साल 2021 में तीन में से एक महिला ने वैश्विक स्तर पर भोजन की अनिश्चिता का सामना किया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि मितव्ययिता केवल एक जेंडर नीति नहीं है बल्कि यह रोजमर्रा की जिंदगी में लैंगिक प्रक्रिया भी है। इस वजह से सीधे महिलाओं का दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है। यह उनकी जीविका, उनकी सुरक्षा जिम्मेदारियां, ज़रूरी सुविधाओं तक उनकी पहुंच जैसे पानी, स्वास्थ्य, परिवहन, और उनकी लैंगिक हिंसा से सुरक्षा की पहुंच को कठिन करती है।
सरकारों द्वारा महामारी से उबरने के लिए इस तरह की मितव्ययिता से मतलब उन कटौतियों से हैं जो सरकार द्वारा सरकारी खर्च और सार्वजनिक कर को कम करने के लिए करती है। मितव्ययिता के ऐसे उपायों को सरकार तब लागू करती है जब सरकार कर भुगतान से चूक करने वाली होती है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक व्यवस्था को बेहतर करने के लिए दुनिया के 54 फीसदी से ज्यादा देश सामाजिक सुरक्षा के बजट में लगातार कटौती कर रहे हैं। मितव्ययिता के ऐसे उपाय महिलाओं की पहले से ही उच्च अवैतनिक देखभाल की जिम्मेदारी को और अधिक बढ़ाते है, उनकी मजदूरी अर्जित करने की क्षमता को कम करते हैं और उन्हें पहले से और गरीब बना रहे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि मितव्ययिता केवल एक जेंडर नीति नहीं है बल्कि यह रोजमर्रा की जिंदगी में लैंगिक प्रक्रिया भी है। इस वजह से सीधे महिलाओं का दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है। यह उनकी जीविका, उनकी सुरक्षा जिम्मेदारियां, ज़रूरी सुविधाओं तक उनकी पहुंच जैसे पानी, स्वास्थ्य, परिवहन, और उनकी लैंगिक हिंसा से सुरक्षा की पहुंच को कठिन करती है। रिपोर्ट में कहा है कि 132 देशों में सरकारें जो सेना पर खर्च करती है उसका केवल दो प्रतिशत लैंगिक हिंसा को खत्म कर सकता है। सरकारों को महिलाओं और लड़कियों की ज़रूरतों को प्राथमिकता देना ज्यादा आवश्यक है। रिपोर्ट में मितव्ययिता को लैंगिक हिंसा का ही एक रूप कहा है।
बबीता का कहना है, “बाजार खुलने के बाद पति दोबारा काम पर वापस आ गए थे लेकिन मैं उस समय तुरंत गांव से नहीं आ सकी थी। बहुत समय गुजरने के बाद वापस आने पर मुझे स्कूल में काम नहीं मिला। उसके बाद भी कोई सही काम नहीं मिला फिर मैंने कुछ दिन एक जनरल स्टोर की दुकान पर भी काम किया लेकिन वह भी सही नहीं रहा। अब घर और परिवार को ही संभाल रही हूं। कुछ छोटा-मोटा और कपड़ों में बटन लगाना, तुरपाई करना या अन्य काम मिलता है वह कर लेती हूं।”
कटौतियां और महिलाओं पर असर
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में महिलाएं कुल रोजगार का 39.4 प्रतिशत हिस्सा थी जो 2019-22 में भुगतान रोजगार का केवल 21 प्रतिशत है। 2020 में स्कूल और डेकेयर बंद होने की वजह से वैश्विक स्तर पर महिलाओं ने 512 बिलियन घंटो का अतिरिक्ति अवैतनिक काम किया। 2022 में 1.7 बिलियन महिलाएं और लड़कियों प्रतिदिन का 5.50 अमेरिकी डॉलर से भी कम पर गुजारा करती हैं। भारत की स्थिति की बात करे तो अजीज प्रेमजी यूनिवर्सटिी की सेंटर फॉर संस्टेनबल एम्पलॉयमेंट रिपोर्टे के अनुसार 2020 में पहले लॉकडाउन के चलते 7 प्रतिशत पुरुषों की नौकरियां गई थी वहीं इसके मुकाबले 47 प्रतिशत महिलाएं 2021 में अपने काम पर वापस नहीं लौट पाई थीं। अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं के रोज़गार की स्थिति और भी खराब रही है।
महामारी के धीरे-धीरे उबरने में महिलाओं और समाज में पहले से हाशिये पर रहने वाले लोगों को सबसे ज्यादा वक्त लग रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली बबीता का भी रोज़गार और उसे पाने को लेकर दुनिया की लाखों महिलाओं जैसा ही अनुभव है। लॉकडाउन से पहले बबीता एक प्ले स्कूल में काम करती थी। स्कूल बंद होने के बाद उनका काम बंद हो गया था हालांकि स्कूल प्रशासन ने दोबारा स्कूल खोलने पर नौकरी पर रखने का आश्वासन दिया था। उसी बीच पति की भी दिहाड़ी मज़दूरी बंद होने की वजह से वह परिवार के साथ गांव लौटने पर मजबूर हो गई थी। बबीता का कहना है, “बाजार खुलने के बाद पति दोबारा काम पर वापस आ गए थे लेकिन मैं उस समय तुरंत गांव से नहीं आ सकी थी। बहुत समय गुजरने के बाद वापस आने पर मुझे स्कूल में काम नहीं मिला। उसके बाद भी कोई सही काम नहीं मिला फिर मैंने कुछ दिन एक जनरल स्टोर की दुकान पर भी काम किया लेकिन वह भी सही नहीं रहा। अब घर और परिवार को ही संभाल रही हूं। कुछ छोटा-मोटा और कपड़ों में बटन लगाना, तुरपाई करना या अन्य काम मिलता है वह कर लेती हूं।”
महिलाओं पर बढ़ा है अवैतनिक काम का बोझ
ऑक्सफैम से अलग कई रिपोर्ट इस बात पर तस्दीक करती है कि कोरोना की वजह से महिलाओं के काम में बहुत कमी आई है, उनपर अवैतनिक श्रम का भार बढ़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमान के अनुसार अवैतनिक काम महिलाओं को कार्यबल से दूर रखने और इसमें शामिल होने में सबसे बड़ी बाधा है। ओआरएफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाएं अपने जागने के बाद के समय का 48 प्रतिशत अवैतनिक कामों में लगाती है जो पुरुष के समय का आठ गुना है। आज भी भारत में भले ही महिलाएं शिक्षित और कुशल ट्रेनिंग प्राप्त हो बावजूद इसके उनसे घर के काम संभालने के लिए ही उपयुक्त माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लड़कियों और महिलाओं पर सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का लंबे समय तक प्रभाव रहता हैं जबतक विशेषतौर पर उनसे उबरने के लिए महिलाओं को केंद्र में रखकर नीतियां का निर्माण नहीं किया जाता। अगर नीतियों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाएगी तो कार्यस्थल और श्रम के क्षेत्र में उनकी अनुपस्थिति स्थायी हो सकती है। यह स्थिति लैंगिक समानता की प्राप्ति और जीडीपी दोंनो को ही उलट सकती है।
ऑक्सफैम ने जेंडर बजट में कटौती और महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए रिपोर्ट में कुछ सिफ़ारिशें भी जारी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी सरकारों से मितव्ययिता को खत्म करने और नारीवादी बजट को बढ़ाने और आसान कर-पद्धति के नये विकल्प को अपनाने को कहा है। जहां करों को सार्वभौमिक और सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक सुरक्षा में विशेष तौर पर महिलाओं, लड़कियों और नॉन-बाइनरी लोगों की आवश्यकताओं को केंद्र में रखा जाए। रिपोर्ट में आईएमएफ को कटौती की कमजोर नीतियों को आगे बढ़ाने से मना और मौजूदा मितव्ययिता आधारित शर्तों को खत्म करने को कहा गया है।