करीब तीन महीने पहले राजस्थान के सुराणा गांव में रहनेवाले एक दलित छात्र इंद्र की ‘सांस्थानिक हत्या’ हुई थी। दरअसल इस छात्र ने स्कूल में रखे मटके से पानी पी लिया था जिसके चलते तथाकथित ऊंची जाति से आनेवाले टीचर ने उसकी पिटाई कर दी थी। इंद्र को जब उसके परिजन अस्पताल ले गए तो मालूम हुआ कि शिक्षक द्वारा की गई पिटाई के चलते बच्चे के कान की नस फट गई। अहमदाबाद के अस्पताल में कुछ दिनों तक इलाज चलने के बाद छात्र ने 13 अगस्त को दम तोड़ दिया। 9 साल का इंद्र मेघवाल सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ता था। इंद्र के पिता देवाराम के मुताबिक दलित होने के कारण उनके बच्चे के साथ मारपीट की गई थी। उनके मुताबिक 20 जुलाई को इंद्र स्कूल गया था। प्यास लगने पर उसने स्कूल में रखे एक मटकी से पानी पी लिया, इसके बाद शिक्षक छैल सिंह ने उसकी पिटाई करने के साथ-साथ जातिसूचक शब्दों का भी प्रयोग किया।
इस घटना से यह साफ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज भी समाज से जातिगत भेदभाव की रूढ़िवादी, ब्राह्मणवादी जड़ें खत्म नहीं हो पाई हैं। इस वजह से आज भी दलित छात्रों को बाबा भीमराव आंबेडकर की तरह अपनी बुनियादी और अधिकारिक चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने का मानना था कि दलितों के उत्थान के लिए राजनीति और शिक्षा ही एकमात्र ज़रिया है। यही वह मार्ग है जिसके जरिए दलित वर्ग अपना विकास कर सकता है। शिक्षा के बिना किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का विकास हो पाना संभव नहीं। इसलिए संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों में से एक है शिक्षा का अधिकार जिसके तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी लिंग या समुदाय से आता हो उसे शिक्षा पाने का अधिकार है। लेकिन वर्तमान में कानून और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद दलित, बहुजन जातियों के व्यक्तियों के साथ भेदभाव, हिंसा और अपमानजनक व्यवहार किया जाता है। आए दिन देशभर के कई शिक्षा परिसरों से ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं, जिससे मालूम होता है कि आज भी जाति व्यवस्था शिक्षा व्यवस्था पर भारी है।
जो शिक्षण संस्थान समाज का आधार तैयार करते हैं, भविष्य के लिए नये युग की पीढ़ी को सामाजिक कुरीतियां समेत शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की सीख देते हैं वही संस्थान जाति के आधार पर विद्यार्थियों के साथ भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा करते नज़र आते हैं। उत्तर प्रदेश के जिला अमेठी से एक ऐसा ही मामला पिछले महीने सामने आया था जहां संग्रामपुर इलाके के गडेरी गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय की प्रिंसिपल कुसुम सोनी पर आरोप लगाया गया था कि वह दलित समुदाय के बच्चों के साथ भेदभाव करती हैं। स्कूल में मिड-डे मील देते समय उन बच्चों की अलग लाइन लगवाई जाती है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक वहां की कई महिलाओं सहित बच्चों ने जातिगत आधार पर भेदभाव, मिड डे मील के दौरान अलग-अलग लाइन लगवाना, बच्चों को मारने-पीटने जैसी शिकायतें की थीं। इस आधार पर प्रिंसिपल को निलंबित कर उन पर एफ़आईआर दर्ज कराई गई। यूपी के ही मैनपुरी से भी एक ऐसी ही घटना सामने आयीजहां दलित समुदाय के बच्चों को खाना खाने के बाद उनसे बर्तन अलग रखवाया जा रहा था। लोगों की शिकायतों के बाद अधिकारियों ने बेवर प्रखंड स्थित इस स्कूल का दौरा किया और शिकायत सही मिलने पर स्कूल की प्रिंसिपल गरिमा राजपूत को निलंबित कर दिया गया।
तकरीबन दो महीने पहले गुजरात से एक घटना सामने आई थी। जहां मोरबी स्थित एक स्कूल में दलित महिला ‘रसोइया’ द्वारा बनाया गया मिड डे मील स्वर्ण समुदाय के छात्रों ने खाने से इनकार कर दिया। 147 छात्र गुजरात स्कूल में, मिड डे मील कार्यक्रम के तहत परोसा जानेवाला खाना इसलिए नहीं खा रहे थे क्योंकि इसकी रसोइया एक दलित महिला थी। गौरतलब है कि छात्र ही नहीं उनके अभिभावक भी दलित महिला रसोइया के खिलाफ हो गए। राजनीति में हो रहे जातिवाद का नतीजा सरकारी स्कूलों के बच्चे लगातार भुगत रहे हैं। इसी साल उत्तर प्रदेश के चित्रकूट से छूआछूत का एक मामला सामने आया था जहां मानिकपुर तहसील के अमरपुर गांव में हुई एक घटना से दलित समुदाय के बच्चों ने स्कूल जाना ही बंद कर दिया।
शिक्षा परिसरों में हो रहे जाति आधारित भेदभाव को लेकर फेमिनिज़म इन इंडिया ने दलित-बहुजन छात्रों से बात की। एमए की छात्रा राधिका कहती हैं, “स्थिति भले ही पहले से सुधरी है, लेकिन आज भी अधिकतर ग्रामीण इलाकों में दलित समुदाय के लोगों से भेदभाव किया जाता है। ग्रामीण इलाकों के कुछ शिक्षा परिसरों मे अधिकतर दलित छात्र जाति व्यवस्था का शिकार हो रहे हैं, जाति भेदभाव दलित छात्रों को उनके गरिमापूर्ण जीवन से वंचित कर रहा है, ऐसे में दलित छात्रों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहने की जरूरत है।”
अमरपुर गांव के रहनेवाले दलित समुदाय के किशन ने आरोप लगाते हुए कहा कि उनके बच्चे काजल, गोविंद, संगीता और मुकेश अमरपुर के ऊंंचाडीह पूर्व माध्यमिक में पढ़ने के लिए जाते हैं, लेकिन विद्यालय में उनके बच्चों के साथ भेदभाव करते हुए उनको अलग से बैठने के लिए कहा जाता है। किसी स्वर्ण जाति के बच्चों को छू लेते हैं तो उनके साथ मारपीट की जाती थी। दलित छात्रों को विद्यालय के पास लगे सरकारी हैंडपंप से पानी पीने तक नहीं दिया जाता। दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले के संदर्भ में उन्होंने कई बार स्कूल के प्रधानाध्यापक से बात की लेकिन उल्टा उन्हें ही फटकार पड़ी। इसके बाद बच्चों ने निराश होकर विद्यालय जाना ही बंद कर दिया है।
शिक्षा परिसरों में हो रहे जाति आधारित भेदभाव को लेकर फेमिनिज़म इन इंडिया ने दलित-बहुजन छात्रों से बात की। दिल्ली में रहकर यूपीएससी की तैयारी कर रहे रॉबिन बताते हैं कि जाति भेदभाव वाली मानसिकता लोगों के अंदर अभी भी बरकरार है। सामाजिक स्तर पर पिछड़ा यह समुदाय वर्तमान में भी जाति भेदभाव की पीड़ा से मुक्त नहीं हो सका है। वहीं, इग्नू से एमए की पढ़ाई कर रही राधिका कहती हैं, “स्थिति भले ही पहले से सुधरी है, लेकिन आज भी अधिकतर ग्रामीण इलाकों में दलित समुदाय के लोगों से भेदभाव किया जाता है। ग्रामीण इलाकों के कुछ शिक्षा परिसरों मे अधिकतर दलित छात्र जाति व्यवस्था का शिकार हो रहे हैं, जाति भेदभाव दलित छात्रों को उनके गरिमापूर्ण जीवन से वंचित कर रहा है, ऐसे में दलित छात्रों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहने की ज़रूरत है।”
जो शिक्षण संस्थान समाज का आधार तैयार करते हैं, भविष्य के लिए नये युग की पीढ़ी को सामाजिक कुरीतियां समेत शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने की सीख देते हैं वही संस्थान जाति के आधार पर विद्यार्थियों के साथ भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा करते नज़र आते हैं।
वहीं, नीतू ने फेमिनिज़म इन इंडिया को बताया कि अभी भी दलितों को कई स्थानों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। थोड़ी-बहुत परिस्थितियां ज़रूर बदली हैं, लेकिन समय-समय पर शोषण करनेवाले तत्व सामने आते हैं जिनके कारण शिक्षण संस्थानों में भी जातिगत भेदभाव नजर आता है। दलित होना एक अलग चीज है लेकिन उससे पहले इंसान को इंसान समझा जाए तो शायद स्थिति बेहतर हो सकती है।
वंचित समुदायों के साथ होनेवाली हिंसा, भेदभाव और उत्पीड़न से निपटने और उनके अधिकारों के लिए संविधान में कई कानून बनाए गए हैं। अस्पृश्यता की घटनाओं के समाधान के संदर्भ में मूल अधिकारों की व्यवस्था संविधान में की गई है। भेदभाव की स्थिति को रोकने व इससे निपटने के लिए समानता का अधिकार सभी नागरिकों को दिया गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15, 17 और 46 भारतीय समुदाय के कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक हितों की रक्षा करता है।
दिल्ली में रहकर यूपीएससी की तैयारी कर रहे रॉबिन बताते हैं कि जाति भेदभाव वाली मानसिकता लोगों के अंदर अभी भी बरकरार है। सामाजिक स्तर पर पिछड़ा यह समुदाय वर्तमान में भी जाति भेदभाव की पीड़ा से मुक्त नहीं हो सका है।
संविधान का अनुच्छेद 46 स्पष्ट करता है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आर्थिक एवं शैक्षिक विकास के लिए राज्य उत्तरदायी है। राज्य सरकार खास तौर से अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों तथा समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षिक तथा आर्थिक हितों को विशेष ध्यान के साथ उन्नत करेगा। यही नहीं, इन वर्गों की सामाजिक अन्याय सहित सभी तरह के शोषण से इनकी रक्षा करेगा। हालांकि, इन नियम -कानूनों, संवैधानिक अधिकारों के बावजूद शिक्षा परिसर में दलितों का शोषण होता आया है।
नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955, इस कानून के अंतर्गत किसी भी रूप में अस्पृश्यता यानी छुआछूत का आचरण करने वाले को दंड देने का प्रावधान दिया गया है। हालांकि इलायापेरूमल समिति की सिफारिशों के आधार पर 1976 में इसमें व्यापक संशोधन किये गए तथा इसका नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया।
कानूनों की इसी श्रृंखला में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 भी आता है। यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के प्रति होने वाले अपराधों को रोकने, ऐसे अपराधों के लिये विशेष न्यायालय बनाने और अपराधों के शिकार लोगों के पुनर्वास के लिये प्रावधान करने वाला एक अधिनियम है।