समाजकैंपस जातिवादी व्यवहार सिर्फ देश के ही नहीं विदेशी कैंपसों में भी बकरार है

जातिवादी व्यवहार सिर्फ देश के ही नहीं विदेशी कैंपसों में भी बकरार है

समाज के मुख्यधारा से ही निकलकर लोग किसी संस्थान में जाते हैं, इसलिए बिना अपने प्रिविलेज को समझे और फिर उसे निजी-सार्वजनिक रूप से तोड़े बिना, लोग किसी विशिष्ट पद पर पहुंचकर भी वैसे ही व्यवहार के शिकार रह जाते हैं। 

अपनी किताब ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ मनु’ की शुरुआती वाक्यों में शर्मिला रेगे लिखती हैं, “आज भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा ज्यादातर नहीं होता है कि समाजविज्ञान और राजनीतिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में डॉक्टर बीआर आंबेडकर की लेखनी पढ़ने को मिले। यह भयावह लगता है कि बिना कभी डॉक्टर आंबेडकर के भाषण या उनका लिखा पढ़े विद्यार्थी और मेरे जैसे शिक्षक/शिक्षकाएं स्नातकोत्तर पूरा कर लेते हैं। सामाजिक विज्ञान के रिसर्च के काम में लग जाते हैं और अकादमिक दुनिया में स्त्री-अध्ययन (वीमन स्टडीज़) प्रैक्टिस करते हैं।” वह लिखती हैं कि ‘स्त्री-अध्ययन’ के अंतर्गत दो समूहों के बीच एक ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ (peaceful coexistence) नज़र आता है। एक जो जातिवादी हैं, एक जो नहीं हैं, मानो कि जाति आधारित पहचान एक विकल्प हो उनके लिए जो जेंडर निभा रहे हैं।

अब चलिए आपको लेकर चलते हैं भारतीय मूल के 80 से अधिक प्रोफ़ेसरों द्वारा लिखे एक खुले ख़त की तरफ। यह ख़त इन प्रोफेसर्स ने अमरीका के सबसे बड़े विद्यालयों में से एक कैल्फोर्निया स्टेट विश्वविद्यालय को संस्थान के अहम फैसले के बाद लिखा। कैल्फोर्निया स्टेट विश्वविद्यालय ने अपनी भेदभाव-विरोधी नीतियों में जातिगत भेदभाव को शामिल किया था। उनकी नीतियों में किसी के साथ होने वाले भेदभाव के आधार की सूची में नस्ल और निर्जतीयता पहले से शामिल थे। इस सूची में जातिगत भेदभाव को एक उपवर्ग के तौर पर जोड़ा गया था। इसके विरोध में इन प्रोफेर्स ने यह चिट्ठी लिखी थी।

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बीते दिनों में हमने भारत के अकादमिक दुनिया में जातिवादी भेदभाव के कई उदाहरण देखे हैं। आईआईटी कानपुर की सीमा सिंह का मामला हो या दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नीलम के साथ हुई बदसलूकी, ये वे घटनाएं हैं जो बाहर आ पाई। ये बताती हैं कि कैसे प्रोफेर्स भी जाति आधारित पहचान के कारण होनेवाले व्यवहार से बच नहीं पाते हैं।

प्रोफेसर्स ने यूनिवर्सिटी की इस नीति को गुमराही अतिवादी दृष्टि बताया है। उन्होंने छात्र संघ और विश्वविद्यालय के बीच एक अनुबंध की मांग की है, जिसे मंजूरी तभी मिलेगी जब ‘जाति’ को भेदभाव-विरोधी सूची से हटाया जाएगा। उन्होंने इस फैसले को भेदभाव बढ़ाने वाला बताया। उनके अनुसार इस नीति के फलस्वरूप भारतीय और दक्षिण एशियाई हिन्दू शक्ति के ख़िलाफ़ भेदभाव बढ़ेगा। आंबेडकरवादी नागरिक अधिकार संस्थान इक्वैलिटी लैब्स की स्टडी के आधार पर नीति बदलाव किया गया था। चिट्ठी में इस स्टडी को ‘अवैज्ञानिक और एक पक्षीय’ तक कहा गया है। अमेरिका में स्थित संस्था ‘द हिंदू-अमेरिकन फाउंडेशन‘ ने भी विश्वविद्यालय के ट्रस्टी और कुलपति जोसेफ़ केस्ट्रो को इसी तरह की एक चिट्ठी लिखी है। जवाब में इक्वैलिटी लैब्स की संस्थापक थेमोज़ही सौन्दरराजन ने कहा है कि यह संस्था जातिवादी व्यवहार करता है। जातिगत आधार पर शोषित समूहों और सामाजिक बराबरी के ख़िलाफ़ रहता है। इसका नेतृत्व तथाकथिक उच्च जातियों के हाथ में है।

बीते दिनों में हमने भारत के अकादमिक दुनिया में जातिवादी भेदभाव के कई उदाहरण देखे हैं। आईआईटी कानपुर की सीमा सिंह का मामला हो या दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नीलम के साथ हुई बदसलूकी, ये वे घटनाएं हैं जो बाहर आ पाई। ये बताती हैं कि कैसे प्रोफेर्स भी जाति आधारित पहचान के कारण होनेवाले व्यवहार से बच नहीं पाते हैं। चाहे वह भेदभाव करने की बात हो या भेदभाव का शिकार होने की। भारतीय मूल के इन प्रोफेर्स की चिट्ठी इस बात को दोबारा स्थापित करती है कि वैश्विक परिदृश्य में भारतीय संदर्भों से ‘जाति’ और जातिगत पहचान के कारण होने वाले शोषण को ढकने-छिपाने की कोशिश बनी रहेगी।

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फेमिनिज़म इन इंडिया को दिए गए एक इंटरव्यू में साहित्य अकादमी विजेता यशिका दत्त ने बातचीत के दौरान बताया था कि वह अमरीका में भारतीय लोगों, यहां तक साउथ एशियन लोगों के समूहों से दूर रहती हैं, क्योंकि अक्सर ऐसी संभावना बनी रहती है कि उनसे उनकी जातिगत पहचान पूछी जाए। वह भारत से बाहर जिस वंशीय आघातों (एन्सट्रल ट्रामा) से बचने के लिए गईं थीं, उस तक वापस नहीं जाना चाहती हैं। इसी तरह की बातें मुझसे गार्गी (बदला हुआ नाम) ने भी साझा की थीं। गार्गी फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर हैं और क्राउड फंडिंग के ज़रिय मास्टर्स करने हॉग नीदरलैंड्स गई हैं। वह बताती हैं कि वहां एक आंटी ने उनके सरनेम और राज्य जानने के बाद गार्गी की कास्ट गेस कर रही थीं। वहां अक्सर भारतीय लोग ऐसे हैं क्योंकि ज्यादातर लोग तथाकथित ऊंची जाति और वर्ग से हैं तो उनका व्यवहार यहां भी वही है जो भारत में था।

भारत के सेलिब्रिटी जैसे प्रियंका चोपड़ा कई जाने-माने प्लेटफार्म पर स्त्रीवादी दृष्टिकोण से बात करते हुए, ब्राउन होने के कारण झेले गए भेदभाव पर बात करते दिखते-सुनाई देती हैं। लेकिन भारतीय समाज के ताने-बाने में घर किये हुए जाति पर बात करने से बचती रही हैं। समाज के मुख्यधारा से ही निकलकर लोग किसी संस्थान में जाते हैं, इसलिए बिना अपने प्रिविलेज को समझे और फिर उसे निजी-सार्वजनिक रूप से तोड़े बिना, लोग किसी विशिष्ट पद पर पहुंचकर भी वैसे ही व्यवहार के शिकार रह जाते हैं। 

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गार्गी फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर हैं और क्राउड फंडिंग के ज़रिय मास्टर्स करने हॉग नीदरलैंड्स गई हैं। वह बताती हैं कि वहां एक आंटी ने उनके सरनेम और राज्य जानने के बाद गार्गी की कास्ट गेस कर रही थीं। वहां अक्सर भारतीय लोग ऐसे हैं क्योंकि ज्यादातर लोग तथाकथित ऊंची जाति और वर्ग से हैं तो उनका व्यवहार यहां भी वही है जो भारत में था।

इस चिट्ठी का लिखा जाना कोई नयी बात नहीं है। ‘स्त्री, दलित और जातीय दंश’ में मुद्राराक्षस लिखते हैं, “पेरियार की मूर्ति लखनऊ में लगाने के मुद्दे पर ब्राह्मणवादी संगठनों ने जबरदस्त प्रतिक्रिया दी। मायावती ने अपने पिछले कार्यकाल में जब परिवर्तन चौक पर पेरियार की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी, इसकी प्रतिक्रिया में ब्रह्मणपंथी संगठनों ने घोषणा की कि वे इस मूर्ति को नष्ट कर देंगे। इस तरह हम देखते हैं कि कैसे जातिवादी व्यवस्था पर सवाल करने और उसके ख़िलाफ़ खड़े रहनेवालों के साथ मुख्यधारा और हिंदूवादी संगठनों का रवैया कैसा रहा है। जाति आधारित भेदभाव पर सवाल करनेवालों को इतिहास में भी अलगाववादी दिखाने की भरपूर कोशिश की गई है। ऐसी ही बात इस चिट्ठी में भी दर्ज़ है।

पेरियार या अन्य लोग जिन्होंने जाति व्यवस्था पर प्रहार किया है, ने बड़े ही विस्तृत ढंग से अपने अनुभव और अपने विचार लिखें हैं, ताकि उनके बाद लोगों के बीच ‘अनलर्निंग’ के बौद्धिक संसाधन रहें। डॉक्टर वीरमणि द्वारा संकलित ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ पेरियार‘ में लिखा है, कैसे जब पेरियार काशी पहुंचे और उन्होंने देखा कि उन्हें कई बार खाना मुफ़्त नहीं मिला, क्योंकि यह व्यवस्था केवल ब्राह्मण जाति के लिए थी। इस अनुभव ने उन्हें बदल दिया। ‘जेनेसिस ऑफ सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट’ में पेरियार अपने अनुभव दर्ज़ करते हुए बताते हैं कि उनके स्कूल के दिनों में पानी पीने के लिए जाति की वर्गीकरण के अनुसार अलग-अलग बर्तन थे। आज के समय में भी जाति आधारित भेदभाव को ढकने की कोशिश सामाजिक न्याय को गौण करने जैसा है। यह पहले की तरह ही वैसे ही एकदम खुला हुआ है।

अकादमिक दुनिया बौद्धिकता, संवाद, तार्किकता की दुनिया मानी जाती है, असल में इस दुनिया का स्वरूप होना भी ऐसा ही चाहिए। लेकिन जाति को अदृश्य करने की कोशिश अकादमिक जगत भी करता रहता है। डॉक्टर आंबेडकर ने सोशल रिफॉर्म पार्टी के सामाजिक सुधार आंदोलन की विफलता का उदाहरण देते हुए कहा था, पार्टी ने परिवार के मूल्यों को सुधारने पर काम किया लेकिन सामाजिक सुधार इस संदर्भ में नहीं किया जिससे कि जाति व्यवस्था टूटे। कई बार जाति व्यवस्था को बचानेवाले लोग इसे श्रम जा वर्गीकरण कहते हैं, और जोड़ते हैं कि हर प्रकार का श्रम जरूरी है और उसे इज़ मिलनी चाहिए। लेकिन डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं, “श्रम का वर्गीकरण और श्रमिकों का वर्गीकरण दो अलग बातें हैं। जाति व्यवस्था प्रशिक्षित रूप से कोई काम के कारण नहीं बल्कि माता-पिता की सामाजिक पहचान पर टिकी होती है।”

जैसा कि रेगे ने लिखा था, डॉक्टर आंबेडकर, पेरियार, सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले जैसे नाम और समाज से पूछे गए उनके सवाल और संघर्षों को जाने बिना क्लासरूम में बैठे विद्यार्थी किसी भी विषय को सामाजिक न्याय के चश्मे से कैसे देख पाएंगे? उनके साथ किसी तरह का भेदभाव होता है तो उस ट्रॉमा को कैसे पहचान पाएंगे या उस पर बात कर पाएंगे? चूंकि हर संस्था में पहले से जो लोग हैं वे ज्यादातर तथाकथित उच्च जाति से हैं, कारण उन्हें संसाधन सालों पहले मिले, उनके मुख्यधारा नैरेटिव और अनुभवों से इतर किसी भी तरह की नीति में बदलाव, अकादमिक काम करने में शोषित पहचान वाले विद्यार्थियों को हमेशा संघर्षरत रहना पड़ता है।

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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