नारीवाद बात साल 2022 में हुए नारीवादी आंदोलनों, संघर्षों और उपलब्धियों की

बात साल 2022 में हुए नारीवादी आंदोलनों, संघर्षों और उपलब्धियों की

यूं तो साल 2022 लोगों के लिए उम्मीदों का साल रहा, पिछले दो वर्षों से लोग लगातार कोरोना महामारी की मार झेल रहे थे। जान और माल की हानि के साथ-साथ उनका जीवन भी चार दीवारी में कैद होकर रह गया था। साल 2022 इस कैद से बाहर निकलने वाला साल रहा। नई चुनौतियां और उपलब्धियों को लिए इस साल महिलाएं भी हर मोर्चे में आगे रहीं। महिलाओं के लिए यह साल कुछ मिला-जुला रहा। जहां एक ओर कुछ महिलाओं ने नाम और शोहरत दोंनो कमाए तो वहीं कुछ महिलाओं को अपने जीवन और बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ा। तो आइए जानते हैं इस लेख में साल 2022 में महिलाओं से जुड़े आंदोलन, संघर्षों और उनकी उपलब्धियों के बारे में।

1- आंगनवाड़ी महिलाओं का संघर्ष

तस्वीर साभारः The Wire

इस साल की शुरुआत में पूरी दिल्ली में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं ने अपने हक के लिए आवाज़ उठाई और 31 जनवरी को सभी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता मुख्यमंत्री केजरीवाल के आवास के बाहर जमा हुईं। उनकी मांग थी कि उनके वेतन को बढ़ाया जाए और उन्हें सरकारी कर्मचारी होने का दर्जा मिले। ये सब वे महिलाएं थी जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना कोरोना काल के दौरान लॉकडाउन में जनता को सेवाएं दी। इसके बावजूद सरकार की ओर से उन्हें समय पर वेतन तक नहीं दिया गया। इसकी वजह से उनको घर चलाने में परेशानियों का सामना करना पड़ा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं ने विरोध प्रदर्शन किया हो। पहले भी कई बार इन महिलाओं ने अपनी आवाज़ उठाई लेकिन सरकार द्वारा दिए गए झूठे आश्वासन के चलते इनके संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकला।

आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की हड़ताल तो इस साल मध्यप्रदेश में भी देखने को मिली जहां सैंकड़ों महिलाओं ने सरकारी वेतन भोगी घोषित होने की मांग की। वर्तमान समय में इन नारीवादी आंदोलनों और संघर्षों की भूमिका अन्य महिलाओं के लिए कई मायनों में प्रेरणादायक है। जहां हमेशा से ही हमारा समाज पुरुषों को ही आंदोलन का नेतृत्वकर्ता मानता हुआ आया है वहीं आज ये महिलाएं बड़े एवं सफल आंदोलनों के माध्यम से इस पुरुषवादी मानसिकता और नज़रिये को तोड़ती हुई दिखाई देती हैं। हालांकि, आज भी ये महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत हैं।

2-पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु, तस्वीर साभारः Hindustan Times

आजादी के इतने सालों के इतिहास में 2022 इस मामले में सौभाग्यशाली रहा कि देश में पहली बार कोई आदिवासी महिला शीर्ष पद पर विराजमान हुईं। हालांकि, लोग इसे एक चुनावी रणनीति के तौर पर देखते हैं लेकिन फिर भी समाज के किसी हाशिये के तबके से जब भी कोई व्यक्ति शीर्ष पदों पर विराजमान होता है तो कहीं न कहीं एक आशा की किरण तो अवश्य जगती है। उस तबके या वर्ग को भी ये आभास होने लगता है कि उनका भी कोई शीर्ष स्तर पर नेतृत्व कर रहा है भले ही वह सांकेतिक ही क्यों न हो। 

25 जुलाई 2022 के दिन द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली। वह देश की पहली आदिवासी महिला और भारत की 15वीं राष्ट्रपति हैं। इनका जन्म ओडिशा के मयूरगंज जिले के बैदपोसी गाँव में 20 जून 1958 को हुआ था। द्रौपदी एक संथाल आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं, उनके पिता एक किसान थे। किसान परिवार से होने की वजह से उनका बचपन बेहद गरीबी और अभाव में बीता। लेकिन इसके चलते उन्होंने कभी भी अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा एक आदिवासी स्कूल से ग्रहण की और स्नातक के लिए वह भुवनेश्वर चली गई। वहां उन्होंने रामा देवी वीमेंस कॉलेज से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और आगे चलकर एक शिक्षक के रूप में काम किया। 

उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत 1997 में हुई जब उन्होंने पहली बार ओडिशा के राइरांगपुर से पार्षद का चुनाव लड़ा। वर्ष 2000 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीती भी, इसके बाद 2002 में उन्हें ओडिशा सरकार में मत्स्य एवं पशुपालन विभाग का मंत्री भी बनाया गया। 2006 में उन्होंने भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पद संभाला और 2015 में उन्हें झारखंड का राज्यपाल बना दिया गया, राज्यपाल के रूप में 2021 तक उन्होंने अपनी सेवाएं दीं।

3-हिजाब पहनने के अधिकार को लेकर महिलाओं का संघर्ष

तस्वीर साभारः New Frame

इस साल की शुरुआत इस जहां शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने को लेकर विरोध होने लगा। यह मामला तब सामने आया जब कुछ छात्राओं को हिजाब पहनकर कैंपस में प्रवेश करने से रोका गया। इन लड़कियों ने कॉलेज प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन किया और इस मुद्दे को लेकर कोर्ट में भी गईं। कर्नाटक राज्य से शुरू हुआ यह मुद्दा धीरे-धीरे पूरे देश में फैलने लगा। मुस्लिम छात्राएं इस मामले को लेकर कर्नाटक हाई कोर्ट गईं लेकिन कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी। परंतु छात्राओं ने हार नहीं मानी और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस मुद्दे पर महिलाओं ने अपने अधिकार के लिए आवाज़ भी उठाई और उसके लिए जमकर लड़ीं भी। इस मामले के सामने आने के बाद यह बात भी उठती है कि यह एक महिला पर निर्भर है और उसका अधिकार होना चाहिए कि उसे क्या पहनना है, क्या चुनना है, किस तरह से जीवन जीना है आदि। महिलाओं के महज चयन के अधिकार को भी पितृसत्ता किस तरह से खत्म करती है।

4-इंटरनैशनल बुकर प्राइज़ से सम्मानित गीतांजलि श्री

गीताजंलि श्री, तस्वीर साभारः Indian Express

लेखिका गीताजंलि श्री को उनकी कृति ‘रेत समाधि’ के अनुवाद ‘टूम ऑफ सेंड’ के लिए साल 2022 का ‘इंटरनैशनल बुकर प्राइज़’ से सम्मानित किया गया हैं। यह पहली बार है जब किसी हिंदी के उपन्यास को यह पुरस्कार मिला है। यह पुरस्कार हर साल अंग्रेजी में अनुवादित और इंग्लैंड या आयरलैंड में छपी किसी एक अंतरराष्ट्रीय किताब को दिया जाता है। गीताजंलि श्री का लिखा यह उपन्यास उत्तर भारत की एक कहानी है जो 80 साल की एक महिला पर आधारित है। ये किताब धर्म, जेंडर और देश की सरहदों पर बात करती है। गीताजंलि श्री का लेखन वैचारिक रूप से बहुत स्पष्ट है जिस वजह से उन्होंने साहित्य जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। हिंदी साहित्य जगत में अपनी कहानियों और उपन्यास की वजह से विशिष्ट जगह बना चुकी गीताजंलि श्री कई सम्मानों से सम्मानित हो चुकी हैं। हिंदी अकादमी ने उन्हे साल 2000-01 में साहित्याकार सम्मान से सम्मानित किया था। गीताजंलि श्री स्कॉटलैंड, स्विट्जरलैंड और फ्रांस में राइटर इन रेजिडेंसी भी रही हैं।

5-यूएन के विशेष प्रतिवेदक के तौर पर नियुक्त पहली एशियाई दलित महिला अश्विनी के.पी

अश्विनी के.पी. तस्वीर साभारः The Quint

कर्नाटक के कोलार जिले की अश्विनी के. पी. जातिवाद, नस्लीय भेदभाव जैसे मुद्दों के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा विशेष प्रतिवेदक के रूप में नियुक्त होने वाली पहली दलित और एशिया की सबसे पहली महिला बनीं। इसके 3 साल के इस कार्यकाल की शुरुआत 1 नवंबर को हो चुकी है। द लीफलेट से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि नस्लवाद और असहिष्णुता को दूर करने के लिए एक विविध और समावेशी नज़रिये को अपनाना ज़रूरी है। साथ ही उन्होंने कहा हैं कि महिलाओं और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के मामलों को संबोधित करना बहुत ज़रूरी है। वह अपने कार्यकाल में इंटरसेक्शनैलिटी और जेंडर पर विशेष ध्यान देना चाहती हैं। अश्विनी के.पी का चयन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल के 51वें सेशन के दौरान नवंबर में हुआ था। अश्विनी के.पी एक सामाजिक कार्यकर्ता और असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन कार्य करती हैं। सामाजिक भेदभाव को खत्म करने के लिए वह कई संगठनों के साथ भी काम करती रही हैं।

लैंगिक भेदभाव की सदियों से चली आ रहे व्यवहार को खत्म करने के लिए महिलाओं का संघर्ष साल दर साल चलता आ रहा है। समय-समय पर इसमें घटनाएं जुड़कर असमानता को खत्म करने के दिशा में आगे बढ़ने का काम करती है। मौजूदा हालातों में ये कुछ आंदोलन, उपलब्धियां हैं जो पितृसत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष में सबको आगे बढ़ाने के लिए हौसला देने का काम करती है। मौजूदा हालात में महिला के संघंर्षों और उनके साथ होने वाले भेदभाव को बहुत ज्यादा समझने की आवश्यकता है क्योंकि हर जगह उनकी पहुंच होना अभी बाकी है।


नोट: यह लिस्ट पूरी नहीं है, ऐसे कई नारावादी संघर्ष और उपलब्धियां हैं जो हमारे आस-पास रोज़ दर्ज हो रही हैं।

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