समाजपर्यावरण ईको जेंडर गैप: पर्यावरण को बचाने के लिए कैसे हाशिये के जेंडर करते हैं अधिक प्रयास

ईको जेंडर गैप: पर्यावरण को बचाने के लिए कैसे हाशिये के जेंडर करते हैं अधिक प्रयास

जेंडर की बनाई अवधारणाएं, असमानता और सीमित संसाधनों में जीने वाली महिलाएं भले ही पर्यावरण की बिगड़ती सेहत के लिए कम जिम्मेदार हो लेकिन प्राकृतिक आपदाओं का उनपर गहरा असर है। इसके अलावा, महिलाएं वर्तमान में पर्यावरण की देखभाल का बोझ भी ज्यादा उठा रही हैं।

रमा, जब बाजार जाती हैं तो अपने साथ कपड़े का बना थैला लेकर जाती हैं। वह छोटी दूरी अक्सर पैदल तय करती हैं, लगभग चार साल पहले उन्होंने प्लास्टिक के सामान को कम खरीदने का विकल्प खुद के लिए तय किया था। ये कुछ आदतें हैं जो रमा जैसी आम महिलाएं अपनी रोज़मर्रा के जीवन में शामिल करती हैं। भले ही इन आम महिलाओं ने ऐसे फैसले बिना पर्यावरण से जुड़े किसी मुद्दे पर ठोस चर्चा के बाद नहीं लिए हो लेकिन उनका इस तरह का रहन-सहन प्रकृति संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही यह भी दिखाता है कि पर्यावरण को हानि पहुंचाने में महिलाओं की भूमिका कम है। 

जेंडर की बनाई अवधारणाओं, असमानता और सीमित संसाधनों के बीच जीनेवाली महिलाएं भले ही पर्यावरण की बिगड़ती सेहत के लिए कम जिम्मेदार हो लेकिन प्राकृतिक आपदाओं का उन पर गहरा असर है। इसके अलावा, महिलाएं वर्तमान में पर्यावरण की देखभाल का बोझ भी ज्यादा उठा रही हैं। इस वजह से ईको जेंडर गैप की अवधारणा भी अस्तित्व में आई। ईको जेंडर गैप क्या है, यह क्यों स्थापित हो गया और जलवायु परिवर्तन के लिए महिलाओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है आइए जानते हैं विस्तार से इस लेख के माध्यम से।

ईको जेंडर गैप क्या है

ईको जेंडर गैप से मतलब वास्तव में यह है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं पर पर्यावरण सरंक्षण का अधिक भार है। महिलाएं अधिक दोबारा इस्तेमाल होने वाले सामान का इस्तेमाल करती हैं। वे प्लास्टिक के इस्तेमाल करने से बचती है। तमाम रिपोर्ट व शोध में यह बात स्पष्ट हुई है कि महिलाओं का व्यवहार पर्यावरण के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। वे अपनी दैनिक आदतों में पर्यावरण के लिए ज्यादा फ्रिकमंद होती हैं। 

साल 2018 में ब्रिटिश मार्केट रिसर्च कंपनी मिंटेल के द्वारा जारी एक रिपोर्ट में विस्तृत तरीके से इस विषय पर चर्चा की गई। इसके अनुसार महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा नैतिक रूप से पर्यावरण के हित में जीवन जीने की कोशिश करती हैं। इस अध्ययन में पर्यावरण के मुद्दों और पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार को लेकर महिला और पुरुष के बीच संबंधों पर बात की गई। 71 प्रतिशत महिलाओं के मुकाबले केवल 59 प्रतिशत पुरुष ही नैतिक तौर पर संवेदनशील जीवन जीते हैं।

साल 2018 में ब्रिटिश मार्केट रिसर्च कंपनी मिंटेल के द्वारा जारी एक रिपोर्ट में विस्तृत तरीके से इस विषय पर चर्चा की गई। इसके अनुसार महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा नैतिक रूप से पर्यावरण के हित में जीवन जीने की कोशिश करती है। इस अध्ययन में पर्यावरण के मुद्दों और पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार को लेकर महिला और पुरुष के बीच संबंधों पर बात की गई। 71 प्रतिशत महिलाओं के मुकाबले केवल 59 प्रतिशत पुरुष ही नैतिक तौर पर संवेदनशील जीवन जीते हैं।

स्वीडन के एक अन्य अध्ययन के अनुसार सिंगल पुरुष, सिंगल महिलाओं की तुलना में अपनी जीवनशैली में उपभोग (कंजम्पशन) संबंधी ऊर्जा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। जिस वजह से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर असर पड़ता है। इस तरह का अंतर महिलाओं के पर्यावरण संरक्षण में बचाने में उनके योगदान को दिखाता है। साथ ही इसे ‘इको जेंडर गैप’ के रूप में गढ़ा गया जो पुरुष और महिलाओं के द्वारा किए गए नैतिक विकल्पों के बीच की असमानता है। 

महिलाओं का व्यवहार उन्हें बनाता है प्रकृति के करीब

क्या आपने कभी यात्रा पर जाने से पहले किसी महिला या पुरुष की तैयारियों को ध्यान से देखा है तो उनमें कई तरह के अंतर रहते हैं। आम महिलाएं दोबारा या बाहर जाकर चीजें खरीदने से ज्यादा मौजूदा चीजों के इस्तेमाल पर ध्यान में रखकर घर से बाहर निकलती हैं चाहे वह साथ में एक पानी की बोतल ही क्यों न हो। महिलाओं की सामाजिक स्थिति और उनके काम पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि महिलाएं व्यवहार से अधिक पर्यावरण संरक्षण में योगदान देती हैं।

 द गॉर्डियन में प्रकाशित ख़बर के अनुसार 90 के दशक के मध्य से लेकर 2000 तक के दशक की शुरुआत तक के कई अध्ययनों में महिलाओं की पर्यारवण के प्रति अधिक सहानुभूति और देखभाल करनेवाले व्यवहार को दिखाया गया है। शोध से पता चलता है कि महिलाएं दूसरों की देखभाल करने से लेकर सामाजिक रूप से अधिक जिम्मेदार होती है। उनका यही व्यवहार उन्हें पर्यावरण की परेशानियों की देखभाल और निवारण के लिए आगे बढ़ाता है। 

ईको जेंडर गैप क्यों है?

महिलाएं अपने व्यवहार और कार्यशैली की वजह से पर्यावरण के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं। निजी तरीके, घर के काम से लेकर बाहर काम करने के लिए अधिक सस्टेनबल तरीकों को शामिल करती हैं। वही, कई धारणाओं और विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर पुरुष पर्यावरण संरक्षण की भूमिका में खुद को शामिल करने से बचते हैं। अमेरिका में हुए एक सर्वे में के अनुसार अमेरिकी व्यस्कों का मानना है कि अधिक इको फ्रेंडली (ग्रीन) व्यवहार को अपनाना वास्तव में स्त्रीकरण है। जैसे ग्रोसरी बैग या पानी की बोलत को दोबारा इस्तेमाल करना, पैक्ड फूड से अलग खुद खाने की व्यवस्था करना आदि।

कई तरह के अध्ययनों में ये बात भी सामने आई है कि ईको-फ्रैंडली व्यवहार को एक तरह से स्त्रीत्व से जोड़ने की वजह से पुरुष पर्यावरण संरक्षण के लिए उठाए जानेवाले छोटे कदम से भी बचते हैं। आई वॉलटियर में प्रकाशित लेख के अनुसार अध्ययन में कहा गया है कि यह जुड़ाव पुरुषों और महिलाओं दोंनो के बीच सामाजिक निर्णय और आत्मधारणा को प्रभावित कर सकता है। साथ ही एक अन्य शोध में यह बात भी पता चलती है कि पुरुष अपनी यौनिक पहचान पर सवाल उठाने के डर की वजह से भी पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार करने से बचते हैं।

इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंज़वेशन ऑफ नेचर के अनुसार वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महिलाओं द्वारा महसूस किए जाने की संभावना अधिक होती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ जैसी हालात गरीबों को ज्यादा प्रभावित करते है और 70 प्रतिशत महिलाएं गरीब हैं।

इस अंतर की एक बड़ी वजह यह भी है कि घर के कामकाज और रखरखाव को अभी भी महिलाओं का काम माना जाता है। खाना बनाने से लेकर, घर की सफाई, बच्चों की जरूरत और इन क्षेत्रों में कचरे को खत्म करने का बोझ महिलाओं पर अधिक पड़ता है। महिलाएं अपने तरीके से पर्यावरण के अनुकूल होकर ये काम करती हैं। जब पुरुष इन घरेलू कामों को करते हैं तो जेंडर बाइनरी के तहत इसे अपमानजनक ज्यादा माना जाता है। लैंगिक रूढ़िवाद को रोककर जलवायु संकट के खतरे से और बेहतर तरीके से उबरा जा सकता है।

इंटरनैशनल यूनियन फॉर कंज़वेशन ऑफ नेचर के अनुसार वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महिलाओं द्वारा महसूस किए जाने की संभावना अधिक होती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से होनेवाली आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ जैसी हालात गरीबों को ज्यादा प्रभावित करते हैं। हमें यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि घर से लेकर बाजार तक केवल किसी एक जेंडर की पहचानवाले लोगों के संघर्ष को न बढ़ाकर सबको समान तरीके से समस्या के निवारण की ओर ध्यान देना चाहिए।

ईको जेंडर गैप एक ऐसा टर्म है जिसकी सहायता से समझा जा सकता है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए किस तरह से समावेशी कदम उठाने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन से धरती और उस पर रहनेवाले हर व्यक्ति का जीवन खतरे में बना हुआ है। चाहे स्त्री हो या पुरुष हर वर्ग और लिंग की पहचान रखनेवाले लोगों पर इसका गहरा असर पड़ रहा है। इसके समाधान के लिए हर वर्ग को अपने तरफ़ से प्रयास करने की ज़रूरत है। ख़़ासतौर पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने और अपनाने की ज़रूरत है। बिना ग्रीन वॉशिंग के तहत बाजार के प्रारूप से अलग ऐसे उत्पादकों के चलन को बढ़ाने की आवश्यकता है जिनके उपयोग से पर्यावरण को कम नुकसान हो।


स्रोतः

  1. The Guardian
  2. Refinery29
  3. I volunteer

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