समाजमीडिया वॉच लैंगिक हिंसा की कवरेज और हिंदी मीडिया की असंवेदनशील भाषा| #GBVInMedia

लैंगिक हिंसा की कवरेज और हिंदी मीडिया की असंवेदनशील भाषा| #GBVInMedia

असंवेदनशील और सनसनीखेज़ भाषा ख़बर के मूल उद्देश्य को भटकाती है। अपराध और हिंसा को एक सनसनीखेज़ वारदात के रूप में पेश करती है। ऐसा करना लैंगिक हिंसा के प्रति पाठकों की पितृसत्तात्मक सोच को और मज़बूती देता है। 

एडिटर्स नोट: यह लेख हमारे अभियान #GBVInMedia के तहत प्रकाशित किया गया है। यह लेख हमारी रिपोर्ट लैंगिक हिंसा और हिंदी मीडिया की कवरेजका ही एक हिस्सा है। इस अभियान के अंतर्गत हम अपनी रिपोर्ट में शामिल ज़रूरी विषयों को लेख, पोस्टर्स और वीडियोज़ के ज़रिये पहुंचाने का काम करेंगे।

लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों की रिपोर्टिंग के दौरान रिसर्च में शामिल मीडिया संस्थानों द्वारा सनसनीखेज़ भाषा, हेडलाइंस और तस्वीरों का इस्तेमाल सबसे अधिक देखने को मिला। आज भी इन ख़बरों में इज्ज़त लुटना, तार-तार होना, हैवानियत का शिकार, चीरहरण, मुंह काला जैसे शब्दों का इस्तेमाल प्रमुखता से किया जाता है। इन पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी शब्दों की जगह बलात्कार, यौन हिंसा, लैंगिक हिंसा, रेप जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। साथ ही हमने यह भी पाया कि ज्यादातर ख़बरों में इस बिंदु को ही केंद्र में रखा गया था कि सर्वाइवर के साथ यह अपराध कैसे, कब और किन परिस्थितियों में हुआ।

इन ख़बरों में लैंगिक हिंसा की घटनाओं का विश्लेषण जिस असंवेदनशीलता के साथ किया गया उससे पता चलता है कि इन मुद्दों पर मीडिया की रिपोर्टिंग कितने पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों पर हिंदी मीडिया की रिपोर्टिंग पर हमें निम्नलिखित बिंदुओं को केंद्र में पाया। लैंगिक हिंसा से जुड़ी ज्यादातर ख़बरों के केंद्र में हमेशा हिंसा के सर्वाइवर होते हैं। उनके साथ क्या हुआ, घटना के वक्त वे कहां थे, क्या कर रहे थे, उन्होंने क्या पहना था इसे केंद्र बनाते हुए लैंगिक हिंसा की घटनाओं को रिपोर्ट किया जाता है। 

सनसनीखेज़ हेडलाइंस और भाषा का इस्तेमाल

लैंगिक/यौन हिंसा की ख़बरों की हेडलाइंस को सनसनीखेज़ बनाने की कोशिश रिसर्च में शामिल लगभग सभी मीडिया संस्थानों द्वारा की जाती है। ख़बरों की हेडलाइंस में भड़काऊ, सनसनीखेज़ शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों को रिपोर्ट किया जा सकता है। ऐसी भाषा ख़बर के मूल उद्देश्य को भटकाती है। अपराध और हिंसा को एक सनसनीखेज़ वारदात के रूप में पेश करती है। ऐसा करना लैंगिक हिंसा के प्रति पाठकों की पितृसत्तात्मक सोच को और मज़बूती देता है। 

दैनिक जागरण (वेबसाइट) द्वारा लैंगिक हिंसा को रिपोर्ट करने के लिए ‘मुंह काला’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह शब्द लैंगिक हिंसा के प्रति उसी रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक सोच को मज़बूती देते हैं कि बलात्कार के बाद सर्वाइवर के जीवन का कोई उद्देश्य नहीं रहता। ऐसे शब्दों की जगह सीधे तौर पर बलात्कार शब्द का इस्तेमाल आसानी से किया जा सकता है।

दैनिक जागरण की इस हेडलाइन में जिस तरीके से फेसबुक पर दोस्ती न करने को लेकर चेतावनी दी गई है उससे यही जताने की कोशिश की गई है कि चूंकि सर्वाइवर ने दोषी से फेसबुक पर दोस्ती की, इसलिए उसके साथ ऐसा हुआ। इस ख़बर की हेडलाइन ही सर्वाइवर को पहले कठघरे में खड़ा कर रही है, उससे सवाल पूछ रही है। इस ख़बर को पढ़नेवाले पाठकों को भी यही संदेश जाएगा कि अगर सर्वाइवर फेसबुक पर दोस्ती न करती तो उसके साथ ऐसा नहीं होता। इस हेडलाइन का इस्तेमाल कर घटना के पीछे की सारी वजह सर्वाइवर द्वारा फेसबुक इस्तेमाल करने तक सीमित कर दी गई। लैंगिक हिंसा के मामलों में ऐसी हेडलाइंस के ज़रिये अक्सर सर्वाइवर के कपड़ों, उनके चरित्र, अपराध के वक्त वे कहां, कब, किसके साथ थीं जैसे मुद्दों पर सवाल खड़े किए जाते हैं। इससे यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि ऐसी महिलाओं के साथ ऐसा ही होता है। इससे यह भी संदेश जाता है कि सर्वाइवर के साथ जो हुआ उसे वे ‘डिज़र्व’ करती थीं। दूसरी महिलाओं के लिए इसे एक नज़ीर की तरह पेश किया जाता है। साथ ही यह दिखाने की कोशिश भी की जाती है कि अगर महिलाएं ऐसी स्थिति में खुद को डाले ही न तो उनके साथ कोई अपराध होगा ही नहीं।

हिंदी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोंनो ही लैंगिक हिंसा के सर्वाइवर्स के प्रति असंवेदनशीलता और सनसनी का परिचय देते हैं। मीडिया सर्वाइवर का नाम, उम्र, पेशा और पता लिखने से भी नहीं हिचकिचाता। कभी-कभी सर्वाइवर्स की तस्वीरों के साथ घटना का पूरा ब्यौरा दे दिया जाता है। सर्वाइवर्स ने क्या पहना था, उसकी सेक्सुअल हिस्ट्री, घटना के वक्त वे कहां थे जैसी बातों का ज़िक्र मीडिया रिपोर्ट्स में किया जाता है। इसका परिणाम हमें विक्टिम ब्लेमिंग के रूप में देखने को मिलता है, जो दोषियों का समर्थन करता है। साथ ही विक्टिम ब्लेमिंग की मानसिकता लैंगिक हिंसा के सर्वाइवर्स को और अधिक अपमानित और भयभीत करने का काम करती है। हिंदी मीडिया का अधिकांश हिस्सा लैंगिक हिंसा को असंवेदनशीलता के साथ कवर करता है। इस कवरेज से समावेशी नज़रिया भी नदारद रहता है। वर्कशॉप्स, ट्रेनिंग प्रोग्राम, रेडियो टॉक, पैनल डिस्कशन आदी की मदद से लैंगिक हिंसा की रिपोर्टिंग और इससे जुड़े मुद्दे जैसे सर्वाइवर की सुरक्षा, निजता, सम्मान, सहमति की अवधारण, लैंगिक हिंसा पर मीडिया की गाइडलाइंस आदि मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है- प्रोफेसर विभूति पटेल

केंद्र में आरोपी/दोषी की जगह सर्वाइवर

दैनिक भास्कर की इस ख़बर में सर्वाइवर का वीडियो नहाते वक्त बनाया गया, इसे ही हेडलाइन का प्रमुख बिंदु बनाया गया है साथ ही घटना की शुरुआत कैसे हुई इसकी वजह बताते हुए ख़बर को सनसनीखेज़ बनाने की कोशिश की गई है। ऐसी हेडलाइंस यह इशारा करती हैं कि सर्वाइवर को नहाते वक्त अपनी सुरक्षा का ध्यान खुद रखना चाहिए था। साथ ही बदनामी के डर से चुप रहने की वजह को प्रमुखता से दिखाना सर्वाइवर को एक कमज़ोर और असहाय शख़्स के रूप में चित्रित करता है। 

अमर उजाला की इस ख़बर में भी लड़की की हत्या की बजाय उसके प्रेम संबंध को पहले जगह दी गई है। ख़बर का केंद्र बिंदु हत्या की जगह मृतक के प्रेम संबंध से नाराज़ भाई है। जबकि इस ख़बर को सामान्य तौर पर एक भाई द्वारा बहन की हत्या के अपराध के रूप में लिखा जा सकता था।

राष्ट्रीय सहारा की लैंगिक हिंसा की इस ख़बर में सर्वाइवर के साथ क्या हुआ इसकी जगह इसे वरीयता दी गई है कि वह जंगल से लौट रही थी। ऐसा करना पाठकों को यह संदेश देता है कि चूंकि सर्वाइवर जंगल गई थी इसलिए ऐसा हुआ। यहां सर्वाइवर का जंगल से लौटना हिंसा की कोई वजह नहीं है। साथ ही यहां उत्पीड़न और शारीरिक हिंसा के लिए छेड़खानी शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो हिंसी की गंभीरता को कम करता है।

अपराध कैसे हुआ, कब हुआ इसकी जानकारी को केंद्र में रखना

लैंगिक हिंसा से जुड़ी रिसर्च में शामिल ख़बरों में अधिकतर ख़बरों में हमने यही पाया कि हिंसा कैसे हुई, कब हुई, किन परिस्थितियों में हुई इसे केंद्र में रखा जाता है। 

यौन हिंसा की घटना पर नवभारत टाइम्स की यह रिपोर्ट बता रही है कि आरोपी ने सर्वाइवर के साथ बलात्कार कैसे किया, हिंसा की प्रक्रिया क्या रही। एक अपराध को सामान्य तरीके से रिपोर्ट करने की जगह यह हेडलाइन इस ख़बर को एक सनसनीखेज़ क्राइम थ्रिलर के एपिसोड की तरह पेश कर रही है। इस हेडलाइन को अपहरण के बाद बलात्कार की घटना के रूप में लिखा जा सकता था लेकिन इसकी जगह मीडिया ने इसे सनसनीखेज़ बनाना उचित समझा।

दैनिक जागरण की इस ख़बर की हेडलाइन में भी प्रमुखता इस बात को दी गई है कि सर्वाइवर एक छात्रा थी, अपराध एक चलती ट्रेन में हुआ और अपराध होने से पहले सर्वाइवर ने आरोपी सिपाही से दोस्ती कर ली थी। साथ ही यहां यौन हिंसा के लिए ‘घृणित काम’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इतना ही नहीं एक ख़बर जिसे संवेदनशील तरीके से लिखा जाना चाहिए उसे रहस्यमयी और सनसनीखेज़ तरीके से लिखा गया है ताकि पाठकों की दिलचस्पी इस बात में हो कि आखिर सर्वाइवर के साथ हुआ क्या था।

दैनिक जागरण की यौन हिंसा की इस रिपोर्ट में अपराध क्या है इसकी जगह इस बात को प्रमुखता दी गई है कि सर्वाइवर आरोपी को जानती थी। वह उसकी ‘दोस्त व प्रेमिका’ थी। ऐसे में यह हेडलाइन यहां यह जता रही है कि यहां अपराध इसलिए हुआ क्योंकि सर्वाइवर ने हिंसा करनेवाले पर भरोसा किया और वह उसके साथ होटल गई। ऐसे शब्दों और हेडलाइंस का चयन अपराध के लिए सर्वाइवर को ही दोषी ठहराती हैं। ऐसे मामलों में अपराध के मूल कारण ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, जाति, वर्ग, धर्म के विशेषाधिकार, पुलिस, न्यायपालिका और अन्य संस्थानों की कमियों, नीतियों की आलोचना की जगह, इनकी जवाबदेही तय करने की बजाय हमेशा लैंगिक हिंसा के लिए अधिकतर मामलों में सर्वाइवर की ही जवाबदेही तय की जाने लगती है।

यौन हिंसा की इस घटना के लिए दैनिक जागरण द्वारा ‘चीरहरण’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो बिल्कुल गैरज़रूरी था। साथ ही इसमें सर्वाइवर के साथ किस बर्बरतापूर्वक हिंसा की इसे भी विस्तार से बताया गया है। साथ ही बलात्कार की कोशिश के लिए ‘दुष्कर्म का असफल प्रयास’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। क्या हम बलात्कार की ख़बरों में बलात्कार का ‘सफल प्रयास’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं? 

ख़बरों की हेडलाइंस में भड़काऊ, सनसनीखेज़ शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों को रिपोर्ट किया जा सकता है। ऐसी भाषा ख़बर के मूल उद्देश्य को भटकाती है। अपराध और हिंसा को एक सनसनीखेज़ वारदात के रूप में पेश करती है। ऐसा करना लैंगिक हिंसा के प्रति पाठकों की पितृसत्तात्मक सोच को और मज़बूती देता है। लैंगिक हिंसा से जुड़ी ज्यादातर ख़बरों के केंद्र में हमेशा हिंसा के सर्वाइवर होते हैं। उनके साथ क्या हुआ, घटना के वक्त वे कहां थे, क्या कर रहे थे, उन्होंने क्या पहना था इसे केंद्र बनाते हुए लैंगिक हिंसा की घटनाओं को रिपोर्ट किया जाता है। सर्वाइवर की जगह आरोपी को केंद्र में रखकर खबर लिखी जानी चाहिए। अगर सर्वाइवर किसी हाशिये की पहचान से आते हैं तो वहां आरोपी/दोषी की सामाजिक पहचान भी महत्व रखती है।


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