इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता का खेल है ‘शादी-परिवार की राजनीति में उलझी औरतों की ज़िंदगी’ | नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता का खेल है ‘शादी-परिवार की राजनीति में उलझी औरतों की ज़िंदगी’ | नारीवादी चश्मा

समाज की बनायी शादी, बच्चे और परिवार की राजनीति महिलाओं को उनके न्यूनतम अधिकार से भी वंचित कर देती है।

‘औरत की ज़िंदगी शादी, अच्छे और परिवार के बिना पूरी नहीं होती है।’

‘बच्चे और परिवार यही तो महिला की पहचान होती है।’

‘शादी के बिना एक औरत की ज़िंदगी किसी काम की नहीं है।’

आपने भी कभी न कभी ऐसी बातें ज़रूर सुनी होंगी। जो बार-बार हम औरतों के दिमाग़ से इस बात को निकलने नहीं देती कि पढ़ाई, नौकरी, अपनी पहचान जैसे सारी चीजों से सबसे ज़्यादा ज़रूरी औरत के लिए शादी, बच्चे और परिवार और इसके बिना किसी औरत का जीवन मानो संभव ही न हो। हाल ही में, जब मैं एक महिला कॉलेज में गयी तो वहाँ की छात्राओं में मेरे परिचय में मुझसे शादी, बच्चे और परिवार का परिचय पूछा। उनका ये सवाल मेरे लिए हैरान कर देने वाला था और इस सवाल ने मुझे पितृसत्ता की उस जड़ता की झलक दिखी, जो आज भी शिक्षा और विकास की चकाचौंध में मज़बूती से क़ायम है।

पितृसत्ता के नियम के अनुसार बचपन से ही हमारा समाज जेंडर कंडीशनिंग करता है, जिसके तहत लड़का और लड़की को समाज के नियम-क़ायदों में अपनी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए तैयार किया जाता है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि ये तैयारी इतनी सहज और स्वाभाविक होती है कि कहीं से भी थोपी या अलग से अपनायी हुई नहीं मालूम होती है, क्योंकि इसके लिए बनाया हुआ माहौल सदियों पुराना है। यही वजह है कि ‘औरत की ज़िंदगी का मतलब शादी, बच्चे और परिवार जैसी बातें बेहद सहज-सरल सी लगती है।’ आज अपने इस लेख में हम चर्चा करते है इस सहज दिखने वाली सीख की वास्तविकता और प्रभाव की।

औरत की पहचान बन जाती है ‘शादी व परिवार’  

आमतौर पर आज भी जब किसी पुरुष का परिचय होता है तो उसके परिचय में उसकी शिक्षा, विकास और उपलब्धि के बारे में पूछा जाता है। लेकिन वहीं जब किसी महिला का परिचय होता है तो उसमें उसकी वैवाहिक प्रस्थिति, परिवार और बच्चों के सवाल के बाद उनकी शिक्षा और उपलब्धि की बात की जाती है। पहचान का ये सिलसिला इतने साल पुराना है कि औरत की पहचान भी उसकी शादी और परिवार से की जाती है। वो शादी से पहले किसी की बेटी और बहन और शादी के बाद किसी की पत्नी, बहु, माँ या भाभी जैसे रिश्ते से ही जानी जाती है, इसका प्रभाव आज भी हम ग्रामीण क्षेत्रों में देख सकते है, जब महिलाओं से उनका परिचय देने को कहा जाता है कि उनके परिचय में उनके नाम से पहले उनके पति का नाम और उनके काम के बारे में बताया जाता है।  

पितृसत्ता के नियम के अनुसार बचपन से ही हमारा समाज जेंडर कंडीशनिंग करता है, जिसके तहत लड़का और लड़की को समाज के नियम-क़ायदों में अपनी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए तैयार किया जाता है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि ये तैयारी इतनी सहज और स्वाभाविक होती है कि कहीं से भी थोपी या अलग से अपनायी हुई नहीं मालूम होती है

पहचान किसी भी इंसान के लिए क्या मायने रखती है ये हम अच्छी तरह जानते है। वो पहचान ही है वो हमें स्वायत्ता और हमारे अधिकारों का एहसास दिलाती है। अपने सपनों और विचारों के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है, लेकिन जब किसी इंसान की पहचान ही धूमिल कर दी जाए तो उसकी ज़िंदगी के मायने ही बदल जाते है और उसे अपने अधिकार और विकास बारे में सोचना चाँद से भी ज़्यादा दूर दिखाई देने लगता है। महिलाओं के साथ शादी, बच्चे और परिवार की राजनीति भी इन्हीं मूल्यों पर तैयार की गयी है, जिससे महिलाएँ कभी भी अपने बारे में न सोचे और उन्हें समाज ‘महान और अच्छी’ औरत बता कर उन्हें उनकी अपनी पहचान से हमेशा दूर रखे।   

बिना शादी या असफल शादी वाली ‘औरतें ख़ारिज’ और स्त्रीद्वेष  

शादी के संदर्भ में इंग्लैंड के प्रसिद्ध समाजशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल ने साल 1869 में लिखी अपनी किताब ‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन’ में लिखा है कि ‘आज के युग में विवाह ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां दास प्रथा अब भी मौजूद है। हमारे विवाह कानून के माध्यम से पुरुष एक मनुष्य के ऊपर पूरा अधिकार प्राप्त करते हैं। हासिल करते हैं मालिकाना हक और हुकूमत। हासिल करते हैं तलाक और बहुविवाह जैसी अश्लीलता की पूरी छूट।‘ इसके बावजूद, आज भी अपने समाज में शादी को सबसे ज़रूरी बताया जाता है, ख़ासकर महिलाओं के संदर्भ में।

समाज में शादी की इस महत्ता का ख़ामियाज़ा उन महिलाओं को भुगतना पड़ता है, जो शादी नहीं करती या जिनकी शादी असफल हो जाती है। फिर वो सेक्सवर्क से जुड़ी महिलाएँ हों या फिर तलाक़शुदा या विधवा महिलाएँ हो। समाज अलग-अलग मानकों के आधार पर महिलाओं को दंडित करने की कोई कसर नहीं छोड़ता है। कभी वो उन्हें अपवित्र बताता है तो कभी अशुभ और डायन करार देता है। पर दुर्भाग्यवश ये नियम पुरुषों पर लागू नहीं किए जाते है।

ग़ौरतलब है कि शादी के ये प्रकार महिलाओं को आपस में भी कई ख़ेमों में बाँटने का काम करते है, जो हमेशा महिलाओं को एकजुट होने में रोड़ा बनती है। साफ़ है, पितृसत्ता हमेशा शादीशुदा और समाज के मूल्यों पर चलने वाली महिला को महान और अच्छी बताती है। ऐसे में जब बिना शादीशुदा या असफल शादी वाली महिलाओं की बात आती है तो समाज उन्हें बुरी औरत का ख़िताब देकर अलग कर देता है, जो स्त्रीद्वेष को बढ़ाने का काम करता है।

शादी के संदर्भ में इंग्लैंड के प्रसिद्ध समाजशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल ने साल 1869 में लिखी अपनी किताब ‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन’ में लिखा है कि ‘आज के युग में विवाह ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां दास प्रथा अब भी मौजूद है।

शादी-परिवार की राजनीति में क़ायम रहती है हिंसा

शादी-परिवार की पहचान के साथ ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर महिलाएँ हिंसा को लेकर भी इतनी अभ्यस्त कर दी जाती है कि उन्हें अपने साथ हो रही हिंसा का एहसास होने में भी कई बार सालों-साल का समय लग जाता है। और कई बार तो उनकी ज़िंदगी भी हिंसा का बिना एहसास हुए गुज़ार जाती है क्योंकि उन्हें समाज शादी-परिवार की राजनीति में इस कदर फाँसता है कि शुरू में ये महिलाओं को ज़िंदगी का लक्ष्य और उसके बाद एकमात्र रास्ता ही बन जाता है। ऐसे में हिंसा का शिकार हो रही महिलाओं को उस हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में लंबा वक्त लगता है और कई बार इसी वजह से हिंसा का सिलसिला क़ायम रहता है।

समाज की बनायी शादी, बच्चे और परिवार की राजनीति महिलाओं को उनके न्यूनतम अधिकार से भी वंचित कर देती है। इसका प्रभाव न केवल उनके विकास पर पड़ता है बल्कि ये पूरे समाज को प्रभावित करता है। यही वजह है कि विकास, शिक्षा और तकनीक के इस दौर में आज भी हमारे समाज में महिला हिंसा का स्तर जस का तस बना हुआ है, क्योंकि आज भी पितृसत्ता के मूल्य मज़बूती से क़ायम है। ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि जब हम सशक्तिकरण की बात करते है तो उसकी शुरुआत महिलाओं को दया-भाव से कुछ देने या कुछ नया सीखाने के दबाव से पहले उनकी पहचान से इसकी शुरुआत करें और उन्हें शादी, बच्चे और परिवार की राजनीति से दूर करें। हमें इस बात को अच्छी तरह समझना होगा कि परिवार-समाज इंसान की ज़रूरत है, लेकिन उसकी एकमात्र पहचान नहीं है।


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