समाजकानून और नीति तलाक के बाद भी महिला घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत मेंटेनेंस की हकदारः बॉम्बे हाई कोर्ट

तलाक के बाद भी महिला घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत मेंटेनेंस की हकदारः बॉम्बे हाई कोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट की सिंगल बेंच जज जस्टिस आर.जी. अवाचट ने पति को पत्नी को मेंटेनेंस के लिए हर महीने एक राशि भुगतान करने के लिए कहा है। हाई कोर्ट ने सेशन कोर्ट के मई 2021 के फैसले को बरकरार रखते हुए पुलिसकर्मी पति को कहा है कि वह अपनी पूर्व पत्नी को प्रति माह 6,000 रुपये का भुगतान करें।

भारतीय संविधान के तहत एक व्यस्क को शादी करने और उस शादी से अलग होने का पूरा अधिकार है। हालांकि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तलाक लेने को सही नहीं माना जाता है। खासतौर पर तलाकशुदा होना महिलाओं के लिए अधिक बुरा अनुभव होता है। शादी में महिला के घर संभालने वाली भूमिका के चलते तलाक के बाद उनके जीवन पर विशेषतौर पर भरण-पोषण का सवाल सामने आ जाता है।

भारतीय संविधान में इसी स्थिति को देखते हुए शादी से अलग हुए दंपत्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष दोनों के लिए मेंटेनेंस का प्रावधान किया है। हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक फैसला सुनाया है जिसके अनुसार तलाक के बाद भी महिला घरेलू हिंसा ऐक्ट के प्रावधानों के तहत मेंटेनेंस की हकदार कहा है। तलाक की कार्यवाही के दौरान महिला ने घरेलू हिंसा के तहत मेंनेटेंस की मांग की थी।

इस मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट की सिंगल बेंच जज जस्टिस आर.जी. अवाचट ने पति को पत्नी को मेंटेनेंस के लिए हर महीने एक राशि भुगतान करने के लिए कहा है। हाई कोर्ट ने सेशन कोर्ट के मई 2021 के फैसले को बरकरार रखते हुए पुलिसकर्मी पति को कहा है कि वह अपनी पूर्व पत्नी को प्रति माह 6,000 रुपये का भुगतान करे। हाई कोर्ट ने नोट किया है कि इस जोड़े की शादी मई 2013 में हुई थी और वे दोनों तीन महीने से भी कम समय तक साथ रहे थे।

आदेश देते समय क्या कहा कोर्ट ने

द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ बेंच ने ऑर्डर में नोट किया है कि याचिका एक सवाल उठाती है कि क्या तलाकशुदा पत्नी घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मेंटेनेंस का दावा करने की हकदार है। कोर्ट ने अपने आदेश में घरेलू संबंधों को परिभाषित किया है। अदालत ने कहा है कि ‘घरेलू संबंध’ शब्द की परिभाषा दो व्यक्तियों के बीच एक संबंध है जो किसी भी समय पर एक घर में रहते है (रहते थे), जब वे शादी या शादी जैसे रिश्ते की वजह से एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।

इससे आगे अदालत ने कहा है कि याचिकाकर्ता पति होने के नाते अपनी पत्नी को मेंटेनेंस देने के लिए वैधानिक दायित्व के तहत था। वह ऐसा करने में असफल रहा इसलिए प्रतिवादी/पत्नी के पास घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत आवेदन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मेंटेनेंस की सुनवाई के तहत जस्टिस अवाचट ने कहा है, ”यह आदमी भाग्यशाली था कि वह पुलिस सर्विस में था और महीने की उनकी तन्ख़्वाह 25,000 से ज्यादा होने के बावजूद भी उसे हर महीने केवल 6000 की राशि ही देने को कहा गया है।” 

फैमिली कोर्ट ने महिला की याचिका कर दी थी खारिज

याचिका के अनुसार पुरुष और महिला की शादी मई 2013 में हुई थी लेकिन वैवाहिक झगड़ों के बाद जुलाई 2013 से ही दोनों ने अलग रहना शुरू कर दिया था। उसके बाद इस दंपत्ति ने तलाक लिया था। तलाक के दौरान ही महिला ने घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत मेंटेनेंस की मांग की थी। हालांकि फैमिली कोर्ट ने महिला के आवेदन को खारिज कर दिया था। उसके बाद उसने सेशन कोर्ट का रूख किया और साल 2021 में उनकी याचिका स्वीकार हो गई थी। 

हाई कोर्ट में पति ने अपनी याचिका में दावा किया था कि उसकी पत्नी और उसका अब कोई वैवाहिक संबंध नहीं है इसलिए उसकी पत्नी घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत किसी भी राहत की हकदार नहीं थी। इससे आगे उसने यह भी कहा था कि शादी के खत्म होने की तारीख तक सभी मेंटेनेंस के बकाया को चुका दिया गया था। लेकिन महिला ने इस याचिका का विरोध किया और कहा था कि घरेलू हिंसा ऐक्ट का प्रावधान यह तय करता है कि एक पत्नी, जिसे तलाक दिया गया है या तलाक ले चुकी है, वह भी मेंटेनेंस और अन्य साहयता का दावा कर सकती है।

घरेलू हिंसा अधिनियम और मेंटेनेंस का अधिकार

साधारण शब्दों में कहे तो मेंटेनेंस का अर्थ शादी के रिश्ते से अलग हुए दंपत्ति में से एक व्यक्ति का अपने साथी से आर्थिक सहयोग पाना है। बुनियादी जीवन जीने के लिए तलाकशुदा दंपत्ति का किसी एक को जीवनयापन करने के लिए दिया जाने वाला आर्थिक भुगतान है। यह मुआवजा अलग धर्मों के लिए विशिष्ट वैवाहिक कानूनों पर भी निर्भर करता है। इनमें सिविल लॉ जैसे स्पेशल मैरिज ऐक्ट 1954 और सीआरपीसी की धारा 125 से 128 तक, प्रोटेक्शन ऑफ वीमन डोमेस्टिक वायलेंस ऐक्ट जैसे कानून शामिल हैं जिसके आधार पर मेंटेनेंस की मांग की जा सकती है।

अलग-अलग धर्म के विवाह के कानूनों के तहत मेंटेनेंस का प्रावधान है। इतना ही नहीं तलाक के मामले में यह बिल्कुल तय नहीं है कि केवल एक पत्नी को ही रख-रखाव के लिए आर्थिक सहयोग मिल सकता है, बल्कि पुरुष भी इसकी मांग कर सकते है। हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत पति और पत्नी दोनों में से कोई भी जो आर्थिक रूप से कमजोर है मेंटेनेंस की मांग कर सकता है। हिंदू मैरिज ऐक्ट, 1955 की धारा-24 के अनुसार जो एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है और जीवन जीने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है वो अपनी पत्नी से मेंटेनेंस की मांग कर सकता है अगर उसकी पत्नी ऐसा आर्थिक तौर पर उसकी मदद करने में सक्षम है।

घरेलू हिंसा के मामलों में मेंटेनेंस की चर्चा घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में मानिटरी रिलीफ टर्म के रूप में की गई है। धारा 2(k) के अन्तर्गत मुआवजे की बात कही गई है। मानिटरी रिलीफ से मतलब वह मुआवजा जो मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को आदेश दे सकता है कि वह इस ऐक्ट के तहत घरेलू हिंसा के परिणाम के तहत सर्वाइवर व्यक्ति को नुकसान होने की वजह से भुगतान करें। घरेलू हिंसा ऐक्ट 2005 में मानिटरी रिलीफ को विस्तृत तौर पर धारा 20(1) के तहत एक आवेदन की सुनवाई करते समय मजिस्ट्रेट आर्थिक राहत के भुगतान के लिए निर्देशित करता है। ताकि सर्वाइवर व्यक्ति या सर्वाइवर व्यक्ति के किसी भी बच्चे को होने वाले खर्चों और नुकसान को पूरा करने के लिए आर्थिक राहत मिलें। घरेलू हिंसा के मामलों में भी इस तरह की राहत शामिल हो सकती है।

साल 2010 में सविता भनोट बनाम लेफ्टिनेंट कर्नल वीडी भनोट मामले में 29.11.2016 में याचिकाकर्ता ने मजिस्ट्रेट के समक्ष घरेलू हिंसा ऐक्ट 2005 में महिला की सुरक्षा के लिए धारा 12 के तहत विभिन्न मांग के साथ याचिका दायर की थी। 8.12.2016 को आदेश देते हुए मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता को 6000 रूपये प्रति माह की अंतरिम राहत प्राप्त की थी।

तलाक के मामलों में भारत में कौन रखता है मेंटेनेंस का अधिकार

तलाक के मामलों में मेंटेनेंस से मतलब उस राशि से है जिसका भुगतान उस व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और जिस पर दूसरा व्यक्ति आर्थिक तौर निर्भर है। हितों की रक्षा के लिए और जीवन जीने के लिए अदालतें मेंटेनेंस देने का प्रतिवादी को आदेश देती है। अलग-अलग धर्म के विवाह के कानूनों के तहत मेंटेनेंस का प्रावधान है। इतना ही नहीं तलाक के मामले में यह बिल्कुल तय नहीं है कि केवल एक पत्नी को ही रख-रखाव के लिए आर्थिक सहयोग मिल सकता है, बल्कि पुरुष भी इसकी मांग कर सकते है।

हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत पति और पत्नी दोनों में से कोई भी जो आर्थिक रूप से कमजोर है मेंटेनेंस की मांग कर सकता है। हिंदू मैरिज ऐक्ट, 1955 की धारा-24 के अनुसार जो एक व्यक्ति जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है और जीवन जीने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है वो अपनी पत्नी से मेंटेनेंस की मांग कर सकता है अगर उसकी पत्नी ऐसा आर्थिक तौर पर उसकी मदद करने में सक्षम है। इसी ऐक्ट की धारा-25 पति को स्थायी गुजारा भत्ता और मेंटेनेंस की अनुमति देता है। यह पत्नी की आय और संपत्ति को देखते हुए पति के सहयोग के लिए अदालत की ओर से तय की जाती है।

कोर्ट ने अपने आदेश में घरेलू संबंधों को परिभाषित किया है। अदालत ने कहा है कि ‘घरेलू संबंध’ शब्द की परिभाषा दो व्यक्तियों के बीच एक संबंध है जो किसी भी समय पर एक घर में रहते है (रहते थे), जब वे शादी या शादी जैसे रिश्ते की वजह से एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।

भारतीय परिवारों की व्यवस्थाओं में पुरुषों के आर्थिक रूप से सक्षम होने की वजह से पत्नी अपने पति पर अधिक आर्थिक रूप से निर्भर होती है इसलिए मेंटेनेंस के मांग के मामले महिलाओं की ओर से अधिक होते हैं जिससे वे शादी के खत्म होने के बाद भी अपने जीवन को जी सके। हिंदू अडॉप्शन और मेंनेटेंस ऐक्ट 1956 के तहत पत्नी अपने पति से मेंनेटेंस की राशि की हकदार है। ऐक्ट की धारा 18(1) के तहत हिंदू पत्नी अपने पति से अलग होन आर्थिक मदद की मांग कर सकती है। जब पति ने उसे छोड़ा हो, पति क्रूरता के लिए उत्तरदायी हो, अगर उसने दूसरी शादी कर ली हो, जब पति, पत्नी की सहमति के बिना धर्म बदलवाता हो।

भारतीय कानून व्यवस्था में अलग-अलग धर्मों के विवाह संबंधी ऐक्ट में तलाक की स्थिति में मेंटेनेंस के प्रावधान है। इसमें मुस्लिम महिला (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स) ऐक्ट, 1986, मेंनेटेंस ऑर्डर इनफोर्समेंट ऐक्ट, 1921, स्पेशल मैरिज ऐक्ट-1952, डिवोर्स ऐक्ट-1869, पारसी मेरिज़ एंड डिवोर्स ऐक्ट-1936, क्रिश्चियन मैरिज ऐक्ट-1872, फॉरन मैरिज ऐक्ट-1969, कर्नवर्ट मैरिज डिसस्लूशंस ऐक्ट-1899 शामिल हैं। 


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