हाल ही में जारी हुए शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों से पता चला है कि साल 2020-21 में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या 21 लाख (2019-20 ) से घटकर 19.21 लाख हो गई। उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (AISHE) 2020-21 रिपोर्ट के अनुसार, शैक्षणिक साल 2019-20 की तुलना में 2020-21 में भारत में उच्च शिक्षा के लिए नामांकन करने वाले मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या में काफी गिरावट आई है। हालांकि, पिछले चार शैक्षणिक सालों में मुस्लिम विद्यार्थियों के नामांकन की संख्या में लगभग 10 फीसद की बढ़त देखी गई थी। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016-17 में कुल 17.3 मुस्लिम विद्यार्थियों का नामांकन हुआ था, जो 2017-18 में बढ़कर 18.3 लाख, 2018-19 के बाद के साल में 19.5 लाख और 2019-20 में 21 लाख पर पहुंच गया। फिर 2020-21 में आंकड़ा सिकुड़कर 19.21 रह गया।
सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश (2.99 लाख) में मुस्लिम अल्पसंख्यक विद्यार्थियों की संख्या सबसे अधिक है, जबकि अन्य अल्पसंख्यक विद्यार्थियों की सूची में तमिलनाडु (1.62 लाख) सबसे ऊपर है। यूपी के अलावा, मुस्लिम विद्यार्थी बड़े पैमाने पर पश्चिम बंगाल (2.38 लाख), इसके बाद केरल (1.70 लाख), बिहार (1.53 लाख) और महाराष्ट्र (1.50 लाख) में हैं।
उत्तर प्रदेश और जम्मू और कश्मीर में सबसे तेज गिरावट
मुस्लिम विद्यार्थियों के उच्च शिक्षा में दाख़िले की संख्या में सबसे तेज गिरावट दर्ज करनेवाले राज्यों में उत्तर प्रदेश शामिल है। यहां मुस्लिम विद्यार्थियों का नामांकन 3.57 (2019-20 ) लाख से गिरकर साल 2020-21 में मात्र 2.99 लाख हो गया। जम्मू और कश्मीर में, मुस्लिम विद्यार्थियों का नामांकन 1.78 (2019-20 ) लाख से घटकर साल 2020-21 में 1.31 लाख हो गया है। मुस्लिम विद्यार्थियों के नामांकन में यह गिरावट तब आई है जब शैक्षणिक साल 2019-20 की तुलना में 2020-21 में देशभर में कुल छात्र नामांकन में 7.5% की बढ़त हुई है।
उच्च शिक्षा एक व्यक्ति के कुल व्यक्तित्व में सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को विकसित करने में एक व्यापक भूमिका निभाती है। अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से मुस्लिम, अभी भी सामाजिक-आर्थिक विकास के लगभग हर पैरामीटर में पीछे हैं। राजनीतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों और भेदभाव के चलते वे अभी भी शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं।
आंकड़ों के अनुसार, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों जैसे कि ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी के छात्र कुल छात्रों की संख्या का 2 प्रतिशत (8.29 लाख नामांकन) थे। पिछले साल यह आंकड़ा 2.3 फीसदी था। दिल्ली में भी उच्च शिक्षा में मुस्लिम समुदाय के नामांकन में गिरावट देखी गई है। शैक्षणिक साल 2020-21 में कुल 21,204 नामांकन हुए जबकि 2019-20 में दिल्ली में कुल 26,475 नामांकन हुए थे। पिछले पांच सालों में अब तक की यह सबसे बड़ी गिरावट है।
कुछ राज्यों में दाखिले में हुई है बढ़ोतरी
AISHE रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और केरल जैसे राज्यों में उच्च शिक्षा के लिए नामांकित मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है। पश्चिम बंगाल में, साल 2020-21 में लगभग 2.38 लाख मुस्लिम विद्यार्थियों ने उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया, जबकि साल 2019-20 में उच्च शिक्षा में शामिल होनेवाले मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या 2.35 लाख थी।
AISHE रिपोर्ट का यह आंकड़ा महीनों बाद सामने आया जब देश ने कर्नाटक सरकार के कक्षाओं में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के फैसले पर उथल-पुथल देखी, जिससे कई युवा मुस्लिम लड़कियों को अपने शैक्षणिक संस्थानों से बाहर कर दिया गया। नतीजतन बहुत सी लड़कियां अपने फाइनल एग्ज़ाम भी नहीं दे पाईं।
तेलंगाना में, साल 2020-21 में भी मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या 1.28 लाख हो गई जबकि साल 2019-20 में यह संख्या 1.20 लाख थी। इसी तरह, केरल में भी मुस्लिम समुदाय के विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई है। साल 2019-20 के शैक्षणिक साल में 1.66 लाख से यह संख्या बढ़कर 2020-21 के शैक्षणिक साल में 1.70 लाख तक पहुंच गई है।
अल्पसंख्यक छात्राओं की संख्या में बढ़त
AISHE रिपोर्ट द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों जैसे कि ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और इस रिपोर्ट में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में छात्रों की तुलना में छात्राओं की संख्या अधिक है। साल 2020-21 शैक्षणिक साल में मुस्लिम अल्पसंख्यक कुल छात्र 9.5 लाख की तुलना में कुल 9.6 लाख महिला मुस्लिम छात्राएं थीं और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के 3.81 लाख पुरुष छात्रों की तुलना में अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की 4.48 लाख छात्राएं थीं। इस तरह उच्च शिक्षा के लिए नामांकित हर 1,000 मुस्लिम विद्यार्थियों में लगभग 503 महिलाएं हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान मुसलमानों के कुल नामांकन में गिरावट के बीच उच्च शिक्षा में महिलाओं की हिस्सेदारी में बढ़त हुई है।
मुस्लिम विद्यार्थियों के उच्च शिक्षा में दाख़िले की संख्या में सबसे तेज गिरावट दर्ज करनेवाले राज्यों में उत्तर प्रदेश शामिल है। यहां मुस्लिम विद्यार्थियों का नामांकन 3.57 (2019-20 ) लाख से गिरकर साल 2020-21 में मात्र 2.99 लाख हो गया।
राज्यवार आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में राज्य में उच्च शिक्षा के लिए नामांकित मुसलमानों में 54% महिलाएं हैं। इसी तरह के निष्कर्ष वाले अन्य राज्य मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और राजस्थान हैं। इन सभी में मुस्लिम विद्यार्थियों के बीच 43 से 49.5% महिला हिस्सेदारी है।
AISHE रिपोर्ट का यह आंकड़ा महीनों बाद सामने आया जब देश ने कर्नाटक सरकार के कक्षाओं में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के फैसले पर उथल-पुथल देखी, जिससे कई युवा मुस्लिम लड़कियों को अपने शैक्षणिक संस्थानों से बाहर कर दिया गया। नतीजतन बहुत सी लड़कियां अपने फाइनल एग्ज़ाम भी नहीं दे पाईं। इसके खिलाफ कर्नाटक हाई कोर्ट में याचिका दायर की। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आखिरकार प्रतिबंध को बरकरार रखा। बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ अपील दायर की गई। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के खिलाफ़ दलीलों पर विचार करते हुए खंडित फैसला सुनाया।
शिक्षा सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का एकमात्र सबसे ज़रूरी माध्यम है। एक अच्छी तरह से शिक्षित आबादी, पर्याप्त रूप से ज्ञान और कौशल से लैस, न केवल आर्थिक विकास का समर्थन करने के लिए ज़रूरी है, बल्कि विकास के समावेशी होने की एक शर्त भी है। एक शिक्षित और कुशल व्यक्ति ही है जो रोजगार के अवसरों से सबसे अधिक लाभ उठाने के लिए खड़ा हो सकता है।
उच्च शिक्षा न केवल गहन ज्ञान और विशेषज्ञता का ज़रिया बनती है बल्कि एक व्यक्ति के कुल व्यक्तित्व में सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को विकसित करने में एक व्यापक भूमिका निभाती है। अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से मुस्लिम, अभी भी सामाजिक-आर्थिक विकास के लगभग हर पैरामीटर में पीछे हैं। राजनीतिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों और भेदभाव के चलते वे अभी भी शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। भारत में उच्च शिक्षा और असमानता को लेकर बड़े पैमाने पर अध्ययन किए जाते हैं। लेकिन यह अध्ययन केवल जेंडर और विद्यार्थियों की सामाजिक श्रेणी के आधार पर होते हैं जबकि एक निर्याणक कारक के रूप में विद्यार्थियों के परिवार की आय को भी इस स्टडी में शामिल करने की ज़रूरत है। अल्पसंख्यक समुदाय में शिक्षा की कमी का एक मुख्य कारण परिवार की आय का अच्छा होना नहीं है।
AISHE रिपोर्ट द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों जैसे कि ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और इस रिपोर्ट में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में छात्रों की तुलना में छात्राओं की संख्या अधिक है।
सरकार का काम देश के लोगों के बीच समानता लाना होता है ताकि सबका विकास हो सके। लेकिन सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले पांच सालों में शिक्षा बजट में की गई भारी कटौती ने अल्पसंख्यक समुदायों के विद्यार्थियों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति के लिए आवंटन को कम कर दिया है, जिससे शिक्षा प्रणाली में बने रहने की उनकी क्षमता और भी अधिक प्रभावित हुई है। इस साल के बजट में भी अल्पसंख्यक समुदाय के बजट में भारी कटौती की गई है। नतीजतन अल्पसंख्यक समुदायों को मिलने वाली छात्रवृत्ति में कमी आई है। बहुत से विद्यार्थियों की फीस का एक मात्र ज़रिया यही छात्रवृत्ति होती है।
साथ ही शिक्षण संस्थान भी फंडिंग की कमी से निपटने के लिए फीस में बढ़ोतरी कर रहे हैं। शिक्षा बजट में सुधार की ज़रूरत ऐसे समय में महत्वपूर्ण हो जाती है जब देशभर के संस्थान फंडिंग में कटौती से निपटने के लिए अपनी फीस बढ़ा रहे हैं, जिसे व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कई सालों से हमारे देश में धर्म के नाम पर होनेवाली राजनीति ने असमानता बढ़ा दी है। विभिन्न क्षेत्रों में असमानताओं के बीच, शिक्षा में असमानताएं और विशेष रूप से उच्च शिक्षा में असमानताओं को और अधिक नज़रअंदाज़ करने के लिए बहुत गंभीर रूप में देखा जाना चाहिए।