समाजकैंपस बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आती लड़कियां आखिर क्यों हो जाती हैं उच्च शिक्षा से गायब

बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आती लड़कियां आखिर क्यों हो जाती हैं उच्च शिक्षा से गायब

जैसे ही हम उच्च शिक्षा या नौकरी की बात करते हैं, तो हमें यहां से लड़कियां गायब होती नज़र आती हैं, जो चिंता का विषय है।

पिछले कुछ दशकों से भारत लड़कियों का प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा के नामांकन दर को सुधारने और सुनिश्चित करने में सफल रहा है। एजुकेशन इक्विटी यानी सभी को शिक्षा का अधिकार और समान अवसर की ओर यह पहला कदम है। केंद्र और राज्यों के दसवीं और बारहवीं के नतीजों की बात करें, तो सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकन्डेरी एजुकेशन (सीबीएसई) सहित लगभग सभी राज्य बोर्डों की परीक्षाओं में पिछले कई सालों से लड़कियां लगातार लड़कों से बेहतर कर रही हैं। लेकिन जैसे ही हम उच्च शिक्षा या नौकरी की बात करते हैं, तो हमें यहां से लड़कियां गायब होती नज़र आती हैं। शिक्षा का रोजगार तक पहुंच, अच्छे रोज़गार के अवसर, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, किसी भी प्रकार का अपराध, भुखमरी, कुपोषण, श्रम बल में लोगों की भागीदारी या बेरोजगारी जैसे कई बुनियादी समस्याओं से सीधा संपर्क है। इसलिए लड़कियों की उच्च शिक्षा में घटती संख्या ना सिर्फ चिंताजनक है बल्कि भविष्य के अन्य समस्याओं को बढ़ावा देना भी है। यह सोचने वाली बात है कि आबादी की आधी हिस्सेदारी के बावजूद महिलाएं क्यों अच्छे पदों पर आसीन नहीं होती और क्यों उनकी राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक भागीदारी कम है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा की जाने वाली साल 2018-19 की ऑल इंडिया सर्वे ऑन हाइयर एजुकेशन (आईशे) की रिपोर्ट बताती है उच्च शिक्षा में कुल नामांकन की संख्या 37.4 मिलियन है। इनमें 19.2 मिलियन पुरुष और 18.2 मिलियन महिलाएं हैं। महिलाओं का कुल नामांकन दर 48.6 प्रतिशत है। “लड़की हो, ज्यादा पढ़-लिख कर क्या होगा, शादी के बाज़ार में ठीक-ठाक लड़का मिल जाए इसके लिए थोड़ा तो पढ़ाना ही होगा, कोई ढंग का कोर्स करा देंगे तो अच्छा लड़का मिल जाएगा, अब पढ़ाते ही रहेंगे तो शादी के लिए पैसा कहां से आएगा।” ऐसी बातें आज समाज की सोच का आईना बन चुकी हैं। एक तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा हर गली और मोहल्ले में दीवारों पर लिखा नज़र आता है तो दूसरी ओर ऐसे बयानों से लोगों की सोच झलकती है। इससे पहले कि आप लड़कियों की बौद्धिक क्षमता पर संदेह करें, कुछ आंकड़ों पर गौर करना जरूरी है। मसलन, साल 2019 की सीबीएसई की बारहवीं के परिणाम में लड़कियों ने लड़कों की तुलना में 9 प्रतिशत तक बेहतर प्रदर्शन किया था। 88.7 प्रतिशत लड़कियों और 79.4 प्रतिशत लड़कों ने परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इस साल लड़कियों के 92.15 प्रतिशत के तुलना में केवल 86.19 प्रतिशत लड़कों ने परीक्षा उत्तीर्ण की।

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दसवीं के परिणामों की बात करें तो, साल 2019 में जहां 88 फीसदी लड़कियों ने परीक्षा उत्तीर्ण की वहीं लड़के 85 प्रतिशत पर थे। भारत में आईआईटी में विद्यार्थियों की हिस्सेदारी यानी बैचलर ऑफ टेक्नॉलजी (बीटेक) में नामांकन की बात करें, तो इसमें कुल 21.25 लाख छात्र-छात्राएं नामांकित हैं। इनमें 72 प्रतिशत पुरुष और सिर्फ 28 प्रतिशत माहिलाएं हैं। बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग में कुल 16.45 लाख विद्यार्थियों में 71.14 फीसदी छात्र पुरुष हैं। गौरतलब है कि ये आंकड़े टेक कॉलेजों में जेन्डर गैप को कम करने के लिए सुपर न्यूमरेरी कोटा के लागू होने के बाद के हैं। लड़कियों की उच्च शिक्षा में घटती संख्या का अर्थ है महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सहभागिता से दूरी, उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जाना और बाल विवाह, दहेज उत्पीड़न, यौन हिंसा जैसे अपराधों का अधिक सामना करना। लड़कियों की उच्च शिक्षा में घटती संख्या के पीछे पितृसत्तात्मक सोच, आर्थिक तंगी, महिलाओं के लिए असुरक्षित माहौल और बढ़ती हिंसा, लड़कियों की शादी में दहेज का प्रचलन या बाल विवाह जैसे कई कारण ज़िम्मेदार होते हैं।

आज लड़कियां स्नातक तो रही हैं, लेकिन कभी घर, तो कभी शादी, कभी उनके खिलाफ बढ़ते अपराध और असुरक्षित सामाजिक माहौल तो कभी पितृसत्तात्मक सोच के कारण वे आगे की उच्च शिक्षा, रोजगार और उच्च पदों में नौकरी से दूर हो जाती हैं।

लड़कियों को अकसर अपने लिए चुनाव करने की छूट नहीं होती। पुरुषों ने हमेशा से उनके लिए एक दायरा तय किया है। लड़कियों का आत्मनिर्भर होने की बजाय शादी का सपना देखना, यह समाज की उस मानसिकता की देन है। अव्वल आती लड़कियां आगे का रास्ता चुनने के जगह अगर सिर्फ घर बसाने की बात करती हैं, तो निश्चित ही उस व्यवस्था में खामियां हैं। महिलाओं को आर्थिक स्वाधीनता की सीख ना दे पाना समाज की सोची-समझी नीति है। अकसर महिलाएं समाज और घर की नैतिकता के पाठ के दबाव में पढ़ाई तो छोड़ देती ही हैं पर आगे अच्छी बेटी, बहु या पत्नी बनने के लिए खुद के स्वावलंबी बनने का सपना भी त्याग कर देती हैं। पितृसत्ता के अधीन पुरुषों को अपना वर्चस्व को बरकरार रखने का सबसे आसान तरीका होता है अपने समकक्ष को आगे ना बढ़ने देने की प्रक्रिया। इससे ना केवल उनका बोलबाला रहता है बल्कि साधारण तौर पर प्रतिद्वंद्विता की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के साल 1983 से 2008 के बीच के चार दौर के विश्लेषण इसका सीधा प्रमाण है। यह विश्लेषण बताती है कि इस बीच 90 मिलियन महिलाओं को शादी के लिए पलायन करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप पर्याप्त व्यावसायिक कौशल शिक्षा की कमी और घरेलू जिम्मेदारियों के बोझ के कारण श्रम बल में उनकी भागीदारी कम होती चली गई।

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बात साल 2019 की सिविल सेवा परीक्षा की करें तो, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय विदेश सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के लिए चयनित होने वाले कुल 829 उम्मीदवारों में से 632 पुरुष और मात्र 197 महिलाएं थीं। देश में मैनेजमेंट और लॉ की पढ़ाई में नामांकित छात्रों में भी पुरुषों की संख्या अधिक है। मेडिकल साइंस एक ऐसा क्षेत्र है जहां हमें थोड़ी अलग तस्वीर देखने को मिलती है जहां छात्राओं की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक है। भारत में किसी लड़की के युवा होते ही अकसर अपनी पढ़ाई को पूरी करने के दौरान घर के काम, घर की आर्थिक स्थिति से लेकर पीरियड पॉवर्टी और यौन हिंसा जैसी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ये समस्याएं कितनी विकट और गहरी हैं, यह मेरे जीवन की एक छोटी सी घटना से समझा जा सकता है। मैं ग्यारहवीं में थी जब हर दिन एक सहेली के साथ विज्ञान की ट्यूशन के लिए जाना होता था। उस कोचिंग सेंटर में शाम तक लड़कियों वाले बैचों को निपटा दिया जाता था। अधिकतर लड़कियां काफी दूर से अपनी साइकिलों पर आती थीं और घर लौटते हुए ज्यादा देर होने की आशंका रहती थी। गांव का माहौल देखते हुए शिक्षकों ने यही माकूल समझा कि ट्यूशन से जितनी जल्दी हो हमें छोड़ दिया जाए, बेहतर है। कभी-कभी लड़के वहां रुककर अपने विषय की अतिरिक्त शंकाएं दूर कर लेते थे लेकिन लड़कियां कभी भी इस सुविधा का लाभ उठा नहीं पाईं।

भारत में महिलाओं की श्रम बल की बात करें, तो ग्लोबल जेन्डर गैप 2021 की रिपोर्ट बताती है देश की 288 मिलियन पुरुष के मुकाबले मात्र 83 मिलियन महिलाएं किसी भी प्रकार की नौकरी कर रही हैं। तकनीकी भूमिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 29.2 प्रतिशत है। वहीं, वरिष्ठ पदों पर महिलाओं का नेतृत्व 14.6 प्रतिशत है। शहरी इलाकों के संगठित क्षेत्र के रोजगार में भी लैंगिक भेदभाव का प्रचलन है। इसलिए भारत का दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक होने के बावजूद महिलाओं की संख्या काफी कम है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) की साल 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की शीर्ष सूचीबद्ध कंपनियों के सभी स्थायी कर्मचारियों में केवल बीस प्रतिशत महिलाएं थी। वहीं 2019-20 में सभी सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड में महज आठ प्रतिशत से कुछ अधिक निदेशक महिलाएं हैं। देश की कंपनियों में सीईओ के पद पर सिर्फ 1.7 प्रतिशत महिलाएं आसीन हैं।

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राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें, तो साल 2019 के लोकसभा चुनावों में निर्वाचित सांसदों में सिर्फ 14 प्रतिशत महिला सदस्य थीं। यह अनुपात 2014 के चुनावों में 11 प्रतिशत, 2009 के चुनावों में लगभग 11 प्रतिशत और 2004 के चुनावों में 8 प्रतिशत था। बता दें कि साल 2008 में प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक जिसमें महिलाओं के लिए संसदीय सीटों की 33 प्रतिशत आरक्षित करने की मांग की गई थी, जो अभी भी लोकसभा में लंबित है। देश की न्यायालयों की स्थिति और भी गंभीर है। द प्रिन्ट में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 26 उच्च न्यायालयों में कुल 1079 न्यायाधीशों में केवल 82 महिला न्यायाधीश हैं। सुप्रीम कोर्ट में 34 स्वीकृत न्यायाधीशों की पदों में केवल एक महिला न्यायाधीश आसीन हैं।

हालांकि आज लड़कियां स्नातक तो रही हैं, लेकिन कभी घर, तो कभी शादी, कभी उनके खिलाफ बढ़ते अपराध और असुरक्षित सामाजिक माहौल तो कभी पितृसत्तात्मक सोच के कारण वे आगे की उच्च शिक्षा, रोजगार और उच्च पदों में नौकरी से दूर हो जाती हैं। नेशनल क्राइम रिपोर्ट्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार साल 2019 के दौरान पिछले साल की तुलना में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सभी मामलों में 7.3 फीसदी वृद्धि हुई। साल 2019 में दर्ज मामलों में सर्वाधिक 30.9 प्रतिशत पति या उनके रिश्तेदार द्वारा किए गए क्रूरता के मामले दर्ज हुए। एनसीआरबी के आंकड़ों को माने तो इस साल दहेज़ को लेकर कुल 7115 मृत्यु की की घटनाएं सामने आईं। भारत में महिलाओं की शिक्षा पर लड़ाई हम काफी हद तक जीत चुके हैं। इसका प्रमाण कई ग्रैजुएशन के कोर्सेज़ में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अधिक होना है। लेकिन दुखद है कि अब तक औसतन एक भारतीय महिला पूरी तरह कामकाजी महिला होने या कहलाने से कोसों दूर है। हालांकि महिलाओं ने लगातार घरेलू या असंगठित क्षेत्रों में पुरुषों से ज्यादा लंबे घंटे काम कर कड़ी मेहनत और स्थिरता का प्रमाण दे चुकी है। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज उन्हें केवल सेवा या देखभाल करने वाली की तरह स्वीकार कर पाया है। जरूरत है कि भारतीय समाज अपनी दकियानूसी सोच, रीति रिवाजों और कुप्रथाओं से मुक्त हो कर महिलाओं को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ने दे।    

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तस्वीर साभार: The Sentinel Assam

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