समाजकैंपस जेंडर स्टीरियोटाइप और भेदभाव के कारण दुनियाभर में गणित में पिछड़ रही हैं लड़कियां

जेंडर स्टीरियोटाइप और भेदभाव के कारण दुनियाभर में गणित में पिछड़ रही हैं लड़कियां

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) द्वारा नयी रिपोर्ट "सॉल्विंग द इक्वेशन: हैल्पिंग गर्ल्स एंड बॉयज लर्न मैथामेटिक्स” से पता चला है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों में गणित में कमज़ोर होने की धारणा केवल एक मिथक मात्र है। यह सोच स्कूल के शिक्षकों के मस्तिष्क में बैठे लिंग भेद की उपज है।

आप लोगों में कई लोग ऐसे होंगे जो मैथ्स से डरते होंगे। यह एक बेहद सामन्य सी बात है, शायद इसलिए कुछ लड़कियों को भी मैथ्स विषय में दिलचस्पी नहीं होगी। लेकिन इस कारण लोगों के बीच यह धारणा बन गई है कि लड़कियां गणित में कमज़ोर होती हैं। लेकिन गणित में कमज़ोर होने का कारण लड़कियों का जेंडर नहीं बल्कि उनके साथ होनेवाला लैंगिक भेदभाव है। शिक्षा के क्षेत्र में विश्व भर में अनेक सुधार हुए हैं लेकिन आज भी स्थिति यह है कि जब बात लड़कियों की शिक्षा की आती है तो आंकड़े एक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। वहीं, जब बात गणित विषय की हो तो इसमें लड़कियां लड़कों से पिछड़ती नज़र आती हैं।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की नयी रिपोर्ट “सॉल्विंग द इक्वेशन: हैल्पिंग गर्ल्स एंड बॉयज लर्न मैथामेटिक्स” से पता चला है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों में गणित में कमज़ोर होने की धारणा केवल एक मिथक मात्र है। यह सोच स्कूल के शिक्षकों के दिमाग में बैठे लैंगिक भेदभाव और रूढ़िवादी सोच की उपज है।

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रिपोर्ट के मुख्य बिंदु

  • यूनिसेफ की यह रिपोर्ट दुनियाभर के 100 से भी अधिक देशों और क्षेत्रों के आंकड़ों के विश्लेषण को शामिल करते हुए तैयार की गई है।
  • रिपोर्ट में बताया गया कि लड़कियों की तुलना में लड़कों में गणित को समझने की संभावना करीब 1.3 गुना अधिक है।
  • रिपोर्ट में निम्न और मध्यम आय वाले 34 देशों के आंकड़ो का अध्ययन किया गया है। इन 34 देशों में गणित विषय में लड़कियां, लड़कों से पीछे हैं।
  • चौथी कक्षा में पढ़ने वाले तीन चौथाई स्कूली बच्चे बुनियादी संख्यात्मक कौशल हासिल करने में समर्थ नहीं हैं।
  • मध्यम और उच्च-आय वाले 79 देशों के डाटा के मुताबिक एक तिहाई से अधिक 15 वर्ष के बच्चों ने अभी तक गणित में न्यूनतम निपुणता भी प्राप्त नहीं की है।

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की नयी रिपोर्ट “सॉल्विंग द इक्वेशन: हैल्पिंग गर्ल्स एंड बॉयज लर्न मैथामेटिक्स” से पता चला है कि लड़कों के मुकाबले लड़कियों में गणित में कमज़ोर होने की धारणा केवल एक मिथक मात्र है। यह सोच स्कूल के शिक्षकों के मस्तिष्क में बैठे लैंगिक भेदभाव और रूढ़िवादी सोच की उपज है।

जेंडर ज़िम्मेदार या लैंगिक भेदभाव

“गणित को समझने में लड़कियां जन्म से ही असमर्थ होती हैं और इसके पीछे उनका जेंडर ज़िम्मेदार है,” शिक्षकों, अभिभावकों और हमारे समाज की यह रूढ़िवादी, पितृसत्तात्मक सोच इस असमानता की खाई को और चौड़ा कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार यह दकियानूसी सोच लड़कियों में आत्मविश्वास की कमी को जन्म देती है, जिसके चलते वे असफलता की ओर चली जाती हैं। अगर इस नज़रिये में बदलाव आए तो यह संकट तीव्र गति से दूर किया जा सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में बड़े परिवर्तनों में से एक होगा।

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फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत करते हुए दिल्ली की झिलमिल कॉलनी के एक सरकारी स्कूल की मैथ्स टीचर नेहा बताती हैं, “लकड़ियां मैथ्स में बेहतर नहीं कर सकतीं, ऐसा आप उनके जेंडर के आधार पर नहीं कह सकते हैं। सबसे पहली बात तो मैथ्स ही क्या किसी भी सब्जेक्ट को आप किसी भी जेंडर के आधार पर बांट नहीं सकते हैं। मैं यह मानती हूं कि लड़कियों के साथ भेदभाव होता है, मुझे तो लगता है भारत की संस्कृति ही ऐसी है। लड़कियों की पढ़ाई परिवार पर ज्यादा निर्भर रहती है। परिस्थितियों के ऊपर होता है। जैसे अगर पैसे कम हैं तो कई परिवार तो सोचते हैं कि लड़के आगे चलकर कमाएंगे, इसलिए लड़के को अच्छी शिक्षा, अच्छा ट्यूटर समेत सारी सुविधाएं दी जाती हैं। हमारे भारतीय समाज में लड़के पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है, लड़की की तरफ कम। यकीनन भेदभाव तो है इसी के कारण मैथ्स की कोई भी प्रॉब्लम सॉल्व करने में लड़की- लड़के में अंतर किया जाता है। जाहिर सी बात है किसी एक इंसान को अगर अधिक सुविधाएं मिलेंगी तो उनका परिणाम भी बेहतर ही होगा।”

“गणित को समझने में लड़कियां जन्म से ही असमर्थ होती हैं और इसके पीछे उनका जेंडर ज़िम्मेदार है,” शिक्षकों, अभिभावकों और हमारे समाज की यह रूढ़िवादी, पितृसत्तात्मक सोच इस असमानता की खाई को और चौड़ा कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार यह दकियानूसी सोच लड़कियों में आत्मविश्वास की कमी को जन्म देती है, जिसके चलते वे असफलता की ओर चली जाती हैं।

नेहा आगे कहती हैं कि लड़कियां ही मैथ्स में कमज़ोर होती हैं, ऐसा नहीं हैं। लड़कियों को ज़रूरी सुविधाएं नहीं दी जाती, उन पर दबाव दिया जाता है कि उन्हें घर भी संभालना है, भाई-बहन को भी देखना है। जिम्मेदारियां देकर लड़कियों को इतना भटका दिया जाता है कि छोटी सी लड़की भी पढ़ाई पर पूरा ध्यान नहीं दे पाती है। सरकारी स्कूलों में ऐसा अक्सर दिखाई देता है। सरकारी स्कूलों में थोड़ा अभिभावक भी पक्षपाती हो जाते हैं। लड़के को वे घर का मुख्य सदस्य मानकर चलते हैं। सोचते हैं कि आगे चलकर पैसे कमाकर वही उनकी मदद करेगा, इसलिए उसे ही अच्छी शिक्षा देते हैं। लोगों की सोच ऐसी है कि बेटा उनके घर का चिराग है। उसको जितनी अच्छी शिक्षा मिलेगी वह उतनी ही अच्छी कमाई करेगा।

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यूनिसेफ की इस रिपोर्ट के उलट हाल ही में यूनेस्को द्वारा ही 2022 में जारी की गई ‘डीपनिंग द डिबेट ऑन दोस स्टिल लेफ्ट बिहाइंड’में बताया गया था कि लड़कियां गणित में स्कूल में लड़कों की तरह ही बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संगठन की यह रिपोर्ट शिक्षा क्षेत्र में प्राइमरी और सेकंडरी लेवल पर कराए गए अध्ययन का नतीजा है। रिपोर्ट के मुताबिक शुरुआती वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में काफी सुधार आया है। गणित के मामले में लड़कियां, लड़को की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन जब बात लैंगिक असमानता की आती है तो सेकंडरी स्तर पर फिर वहीं स्थिति देखने को मिलती है। रिपोर्ट बताती है कि भले ही शुरुआत में लड़कियां गणित में बेहतर प्रदर्शन करती हैं लेकिन अधिक संभावना इस बात की बनी रहती है कि लड़कों को गणित में बेहतर प्रदर्शन करते हुए दिखाया जाए।

दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में मैथ्स पढ़ानेवाली शिक्षक नेहा बताती हैं कि लड़कियां ही मैथ्स में कमज़ोर होती हैं, ऐसा नहीं हैं। लड़कियों को ज़रूरी सुविधाएं नहीं दी जाती, उन पर दबाव दिया जाता है कि उन्हें घर भी संभालना है, भाई-बहन को भी देखना है। जिम्मेदारियां देकर लड़कियों को इतना भटका दिया जाता है कि छोटी सी लड़की भी पढ़ाई पर पूरा ध्यान नहीं दे पाती है।

दिल्ली के ही एक प्राइवेट स्कूल की टीचर अंकिता के मुताबिक, “लास्ट ईयर मैथ्स में लड़कियां टॉपर रही हैं। दूसरी बात लोग कहते हैं लड़कियों को मैथ्स नहीं आती है। वे इसमें कमज़ोर होती हैं क्योंकि कई जगहों पर लड़कियों से केवल घर के काम करवाए जाते हैं। पैसे से जुड़े काम लड़कों को दिए जाते हैं। इसलिए जो प्रैक्टिकल लाइफ के अनुभव होते हैं वे लड़कियों को नहीं मिलते और मान लिया जाता है कि उन्हें मैथ्स नहीं आता है। जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें वे सुविधाएं ही नहीं मिलती हैं कि वे अपनी स्किल्स को बेहतर कर सकें। क्लास में ही कई जगहों पर लड़कियों को अधिक अवसर नहीं दिए जाते हैं। कई बार टीचर्स भी लड़कियों के लिए लैंगिक रूप से समान वातावरण नहीं दे पाते। इसलिए ऐसा नहीं हो सकता लड़कियां मैथ्स में कमज़ोर हैं और लड़के तेज। यह सिर्फ धारणा बन गई है जिसे लोग आज भी आगे बढ़ा रहे हैं।”

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गणित पढ़ना क्यों ज़रूरी

यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक कैथरीन रसैल रिपोर्ट के निष्कर्षो पर कहती हैं कि लड़का-लड़की दोनों मे गणित सीखने की योग्यता समान होती है। लेकिन कौशल पाने के लिए समान मौकों की कमी है। साथ ही उन्होंने कहा कि ज़रूरत है कि जो रूढ़िवादी सोच लड़कियों को पीछे करती है, उसे दूर किया जाए। बुनियादी कुशलता हासिल करने में बच्चों को भरपूर सहयोग दिया जाए। इसके लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करने होंगे ताकि बच्चे सफलता हासिल कर सकें।

दिल्ली के ही एक प्राइवेट स्कूल की टीचर अंकिता के मुताबिक, “लोग कहते हैं लड़कियों को मैथ्स नहीं आती है। वे इसमें कमज़ोर होती हैं क्योंकि कई जगहों पर लड़कियों से केवल घर के काम करवाए जाते हैं। पैसे से जुड़े काम लड़कों को दिए जाते हैं। इसलिए जो प्रैक्टिकल लाइफ के अनुभव होते हैं वे लड़कियों को नहीं मिलते और मान लिया जाता है कि उन्हें मैथ्स नहीं आता है। जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें वे सुविधाएं ही नहीं मिलती हैं कि वे अपनी स्किल्स को बेहतर कर सकें।”

रिपोर्ट कहती है कि गणित सीखने से बच्चों की मेमोरी पावर और विश्लेषण क्षमता का विकास होता है। बच्चों की रचनात्मक योग्यता में बढ़ोतरी होती है। रिपोर्ट में चेतावनी भी दी गई कि है कि जिन बच्चों को जोड़-घटा और अन्य मूलभूत विषयों का सही ज्ञान नहीं होता है तो उन्हेंं तार्किक क्षमता जैसे जरूरी बौद्धिक विकास के मामले में संघर्ष का सामना करना पड़ता है।

कोरोना से भी शिक्षा के क्षेत्र पर बुरा असर पड़ा है। इसलिए शिक्षा क्षेत्र में निवेश की आवश्यकता है जिससे एक बार फिर बच्चे स्कूल जा सकें और उनकी मौजूदगी बरकरार रखी जा सके। इन कमियों को दूर करने के लिए अभिभावकों और शिक्षकों का प्रयास और समर्थन भी महत्वपूर्ण है। बता दें कि इन दोनों रिपोर्ट्स में केवल उन बच्चों को केंद्र में रखा गया है जो अभी स्कूल में पढ़ रहे हैं।

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