समाजकानून और नीति सुप्रीम कोर्ट ने भेजा राज्यों को नोटिस, क्या इससे बदल पाएगा पूर्वाग्रहों पर आधारित धर्मांतरण विरोधी कानून?

सुप्रीम कोर्ट ने भेजा राज्यों को नोटिस, क्या इससे बदल पाएगा पूर्वाग्रहों पर आधारित धर्मांतरण विरोधी कानून?

28 राज्यों में से 10 राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानूनों को लागू किया है। इसमें ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश शामिल हैं। सीजेपी 2021 से धर्मांतरण विरोधी कानूनों को लागू करने वाले अनेकों राज्यों के खिलाफ़ समय-समय पर याचिका दायर कर चुका है।

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) द्वारा दायर नई रिट याचिका और छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक के धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती देनेवाली अन्य याचिकाओं में भी नोटिस जारी किया है। इससे पहले भी सीजेपी द्वारा साल 2021 में दायर याचिका में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के धर्म परिवर्तन कानूनों को चुनौती दी गई थी। यह पूरी ख़बर आख़िर क्या है? इन धर्मांतरण विरोधी कानूनों को सीजेपी बार-बार चुनौती क्यों दे रही है? ये कानून किस विचारधारा से प्रेरित हैं? क्या ये संवैधानिक कानून हैं? इस लेख के ज़रिये इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढते हुए समझते हैं पूरे प्रकरण को।

क्या है पूरा मामला?

भारत में अब तक ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून लागू किए जा चुके हैं। गैर-सरकारी संस्था सीजेपी साल 2021 से धर्मांतरण विरोधी कानूनों को लागू करनेवाले इन राज्यों के खिलाफ़ समय-समय पर याचिका दायर कर चुकी है। हम सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के अलग-अलग नेताओं से धर्मांतरण, लव-जिहाद पर भड़काऊ, नफरती भाषण सुन चुके हैं। कह सकते हैं कि ये कानून उसी विचारधारा का परिणाम हैं। इस सोच के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रही संस्था सीजेपी का साफ़-साफ़ कहना है कि ‘लव जिहाद’ के भ्रम ने पुलिस और गैर-सरकारी तत्वों द्वारा हिंसा और डराने-धमकाने को बढ़ावा दिया है।

‘लव जिहाद’ की अवधारणा पर आधारित कानून असंवैधानिक, अल्पसंख्यक-विरोधी और स्त्रीद्वेषी मान्यताओं को वैधता प्रदान करता है। साथ ही यह सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। सीजेपी इन कानूनों को चुनौती दे रही है क्योंकि ये सहमति देनेवाले वयस्कों की निजता, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं। बेशक यह मुद्दा हमेशा से विवादित मुद्दा रहा है फिर भी सोचने की बात यह है कि धर्मांतरण विरोधी कानूनों की नींव कैसे पड़ी? एक कारण यह बताया जाता है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अति पिछड़ा वर्ग के लोग हिंदू धर्म से अन्य अल्संख्यक धर्मों में तेज़ी से धर्मांतरण कर रहे थे जिस कारण हलचल होने लगी। इसलिए हिंदू वर्ग का आंकड़ा बड़ा बना रहे, धर्मांतरण विरोधी कानून भारत में अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा लाए गए।

आज़ाद भारत में इन कानूनों को सबसे यह कहकर लागू किया गया था कि इसका मकसद धोखे से, जबरदस्ती कराए गए धर्म परिवर्तन के खिलाफ कार्रवाई करना था। लेकिन अब नये-नये राज्यों द्वारा अपनाए जा रहे इस कानून का मकसद अब कई गुना बर्बर है। वहीं, एक और कारण की ओर देखें तो साल 1977 में रेव स्टेनिसलास वर्सेज मध्य प्रदेश और ओडिशा केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने भी यह कह दिया था कि राज्य सरकारों के पास यह अधिकार है की वे धर्मांतरण पर कानून ला सकती हैं।

‘लव जिहाद’ की अवधारणा पर आधारित कानून असंवैधानिक, अल्पसंख्यक-विरोधी और स्त्रीद्वेषी मान्यताओं को वैधता प्रदान करता है। साथ ही यह सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। सीजेपी इन कानूनों को चुनौती दे रही है क्योंकि ये सहमति देनेवाले वयस्कों की निजता, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं।

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं करते हैं, जो ‘अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार’ की गारंटी देता है। साथ ही यह तर्क भी दिया कि हमारा संस्थापक दस्तावेज किसी को भी किसी अन्य व्यक्ति को अपने स्वयं के धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार नहीं देता है, बल्कि अपने धर्म को उसके सिद्धांतों की व्याख्या द्वारा प्रसारित या प्रसारित करने का अधिकार देता है। वहीं, केंद्र सरकार संसद में यह कह चुकी है कि फिलहाल वह देशभर में केंद्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून लागू नहीं करने जा रही है। लेकिन इस कानून को लागू करनेवाले राज्यों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है।

क्या कहते हैं धर्मांतरण विरोधी ये कानून

लगभग सभी राज्यों में जहां-जहां धर्मांतरण विरोधी कानूनों लागू किए गए हैं वहां अगर किसी महिला, नाबालिग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति का धर्म परिवर्तन किया जाता है तो इस अपराध के लिए जुर्माना, जेल दोनों का प्रावधान है। हाल ही में लागू हुए कानूनों में एक और प्रावधान है कि सरकार को धर्म परिवर्तन से पहले सूचित करना होगा।

उदाहरण के रूप में कर्नाटक में साल 2022 में लागू हुए कानून के अनुसार जो स्वयं की इच्छा से धर्म परिवर्तन कर रहा है उसे जिले के डीएम को पूर्व में बताना होगा। ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण कानून में है और दोनों में ही मास कनवर्जन (दो या दो से ज्यादा व्यक्ति का धर्म परिवर्तन) भी नहीं किया जा सकता है।

‘लव जिहाद’ की अवधारणा पर आधारित कानून असंवैधानिक, अल्पसंख्यक-विरोधी और स्त्रीद्वेषी मान्यताओं को वैधता प्रदान करता है। साथ ही यह सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। सीजेपी इन कानूनों को चुनौती दे रही है क्योंकि ये सहमति देनेवाले वयस्कों की निजता, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं।

हिमाचल प्रदेश में साल 2011 में ठीक ऐसे ही प्रावधान को नकारते हुए हाई कोर्ट ने कहा था “किसी व्यक्ति का विश्वास या धर्म उसके लिए बहुत ही व्यक्तिगत है। राज्य को किसी व्यक्ति से यह पूछने का कोई अधिकार नहीं है कि किसी की व्यक्तिगत आस्था क्या है। इसका एकमात्र औचित्य यह है कि सार्वजनिक आदेश के लिए नोटिस देना आवश्यक है। हमारा यह विचार है कि किसी व्यक्ति द्वारा अपना धर्म बदलने और तथाकथित पूर्वाग्रह से प्रभावित पक्षों को नोटिस जारी किए जाने की स्थिति में, परिवर्तित व्यक्ति को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक यातना के अधीन होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। राज्य द्वारा प्रस्तावित उपाय समस्या से ज्यादा हानिकारक साबित हो सकता है।”

हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट का यह स्टेटमेंट कि राज्य द्वारा प्रस्तावित समस्या से ज्यादा हानिकारक होता है आज के परिपेक्ष्य मैं एकदम सटीक हैय़ जब हम यह देखते हैं कि जुलाई 2022 तक ईसाई सभाओं पर 300 से अधिक हमलों का दस्तावेजीकरण किया गया। इन पर बिना किसी सबूत के जबरन धर्मांतरण का आरोप लगाया गया। वहीं, अकेले कर्नाटक में साल 2021 में चर्चों और ईसाई सभाओं पर करीब 39 हमले हुए हैं।

हमने उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण कानून ‘द उत्तर प्रदेश प्रोहिबिशन ऑफ़ अनलॉफुल कनवर्जन ऑफ़ रिलीजन ऑर्डिनेंस 2020’ को पढ़कर यह साफ़ कहा जा सकता है किसी भी तरह से धर्म परिवर्तन मुमकिन ही नहीं है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अति पिछड़ा वर्ग जो हिंदू धर्म से दूर जाना चाहते हैं उनके लिए हर तरह से दरवाजे बंद कर दिए गए हैं।

सरकारें यह दावा कर रही हैं कि वे जबरन, धोखे से किए गए धर्मांतरण को रोकना चाहती हैं लेकिन इस समस्या का निस्तारण वे अपने अनुसार अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए कर रही हैं। अल्पसंख्यकों को उनके मौलिक, संवैधानिक अधिकारों से दूर करते हुए संविधान की शक्ति को भी नागरिकों के जीवन से हटा रही हैं।

धर्मांतरण विरोधी कानून किस विचारधारा से प्रेरित हैं और कितने असंवैधानिक हैं?

“हिंदू खतरे में है”,”लव जिहाद”, … जैसी सांप्रदायिक सोच का ही नतीजा है कि एक व्यक्ति अगर अपनी मर्जी से भी किसी अन्य धर्म में जाना चाहता है तो नहीं जा सकता। यह उसके ‘राइट टू रिलीजन’ के मौलिक अधिकार की अवेलहना है। पुत्तुस्वामी केस में सुप्रीम कोर्ट ने ‘राइट टू प्राइवेसी’ का मत लेते हुए था कहा था कि धर्म की स्वतंत्रता किसी व्यक्ति को एक विश्वास चुनने और व्यक्त करने या सार्वजनिक रूप से ऐसे विकल्पों को व्यक्त करने की अनुमति नहीं देती है।

यह कानून व्यक्ति के धर्म के अधिकार जिसमें धर्म चुनने का भी अधिकार शामिल है, चयन का अधिकार, स्वायत्तता का अधिकार, निजता का अधिकार का हनन है। सरकारें यह दावा कर रही हैं कि वे जबरन, धोखे से किए गए धर्मांतरण को रोकना चाहती हैं लेकिन इस समस्या का निस्तारण वे अपने अनुसार अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए कर रही हैं। अल्पसंख्यकों को उनके मौलिक, संवैधानिक अधिकारों से दूर करते हुए संविधान की शक्ति को भी नागरिकों के जीवन से हटा रही हैं।


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