इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ पितृसत्तात्मक जेंडर बाइनरी को खत्म करने के लिए पब्लिक स्पेस का ‘जेंडर न्यूट्रल’ होना क्यों है ज़रूरी

पितृसत्तात्मक जेंडर बाइनरी को खत्म करने के लिए पब्लिक स्पेस का ‘जेंडर न्यूट्रल’ होना क्यों है ज़रूरी

 आप जब भी पब्लिक स्पेस में जाते हैं तो जेंडर के आधार पर केवल स्त्री और पुरुष इन दो पहचानों के लिए ही सुविधाएं देखते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी संस्थाएं हमें जेंडर के आधार पर तय एक बाइनरी का अभयस्त बनाती हैं। स्त्री-पुरुष से अलग लैंगिक पहचान को लेकर न तो समाज में स्वीकार्यता है और नहीं उनको ध्यान में रखकर उस ढ़ाचे का निर्माण किया गया है। बात अगर शहरों के डिजाइन की करे तो शहर पूरी तरह पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किए गए है। इसमें भी केवल स्वस्थ, युवा और सिस-जेंडर शामिल है। इस वजह से पब्लिक प्लेस में ट्रांसजेंडर समुदाय, विकलांगता की पहचान रखने वाले लोगों की जगह नहीं है। जेंडर के बनाए नियमों से परे किसी भी व्यक्ति के लिए समावेशी समाज की स्थापना के लिए जेंडर न्यूट्रल पब्लिक स्पेस को बनाना ही इस असमानता को दूर कर सकता है। 

हाल ही में मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु में पब्लिक स्पेस में मौजूदा जेंडर के आधार पर बने टॉयलेट के अलावा जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट बनाने की मंजूरी दी है। द न्यूज मिनट में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ अदालत ने एक ट्रांस पर्सन के द्वारा दायर की गई जनहित याचिका का जवाब देते हुए कहा है कि जेंडर नॉन-कर्नफॉर्मिंग व्यक्तियों के लिए पब्लिस प्लेस में टॉयलेट की कमी होने की वजह से मुख्यधारा के समाज से उन्हें अलग कर दिया है। इस दिशा में राज्य सरकार से एक हफ्ते में जवाब मांगते हुए पूरे राज्य में विकलांग शौचालयों को जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट के रूप में बदलने का प्रस्ताव दिया है। अगर इसको मंजूरी मिलती है कि तो किसी भी जेंडर के व्यक्ति को पीडब्लयूडी शौचालय के इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाएगी। जस्टिस टी राजा और डी. भारत चक्रवर्ती की पीठ ने यह आदेश सुनाया है। 

याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा था कि जेंडर नॉन-कनफर्मिंग, ट्रांसजेंडर, नॉन-बाइनरी, क्वीर और अन्य व्यक्तियों के लिए शौचालय सुविधाओं की कमी है। याचिकारर्ता ने तर्क देते हुए कहा है कि शौचालय एक बुनियादी ज़रूरत है। जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट बनाने से एक समावेशी समाज बनाने में मदद मिलेगी। यह याचिका कई आधारों पर दायर की गई थी जिसमें जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट की कमी ट्रांसजेंडर (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम, 2019 के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है जो कानून के समक्ष समानता देता है। इससे पहले साल 2017 में मद्रास हाई कोर्ट ने ट्रांसजेंडर के लिए टॉयलेट और बाथरूम की उपलब्धता के लिए सर्वे के लिए भी कह चुका है। हालांकि इस सिलसिले में अबतक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

जेंडर न्यूट्रल पब्लिक स्पेस क्या है

जेंडर न्यूट्रल स्पेस से मतलब है कि जहां किसी भी लैंगिक पहचान का कोई भी व्यक्ति बिना किसी असहजता के एंट्री कर सकता है। उस जगह को जेंडर की तय बाइनरी के अनुसार किसी लैंगिक पहचान के आधार पर किसी निशान से चित्रित न किया गया हो। ऐसी जगह जो सबके लिए समान हो और सुरक्षित हो। वर्ल्ड बैंक के तहत हैंडबुक फॉर जेंडर इनक्लूसिव अर्बन प्लानिंग एंड डिजाइन के अनुसार पहुंच, गतिशीलता, हिंसा से सुरक्षा, स्वास्थ्य और सफाई, क्लाइमेट रिजिलिएंस और उपयोग के दौरान सुरक्षा ये सभी छह मुख्य विषय है जो जेंडर इनक्लूसिव शहर बनाने के लिए ज़रूरी है। जेंडर इनक्यूसिव शहर की योजनाओं में सार्वजनिक स्पेस और महिलाओं के लिए सुरक्षित परिवहन को बनाने से अलग है। इस तरह के हस्तक्षेप कुछ खास या सीमित जेंडर तक नहीं बल्कि सबके लिए होने चाहिए।

कई शोधों से यह पता चला है कि ऑल जेंडर बाथरूम या टॉयलेट होने की वजह से हाशिये से आने वाले लोगों के साथ हिंसा होने की घटना कम हो जाती है। लोगों की अधिक चहल-पहल होने की वजह से किसी भी तरह की शिकायतों और हिंसा की वारदातें नहीं मिली है।  

आज की दुनिया में बहुत सी कुरीतियों में से एक है लैंगिक भेदभाव। जहां केवल एक जेंडर को प्रमुखता दी जाती है। इस असमानता को खत्म करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि हमें अपने स्पेस को जेंडर न्यूट्रल तरीके से बनाकर सभी लोगों को समान हक दें। जेंडर न्यूट्रलिटी को एक ऐसे विचार की तरह से भी परिभाषित किया जा सकता है जो समाज को सेक्स और जेंडर के आधार भूमिकाओं को बांटने से रोकता है। इसके आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म किया जा सकता है। स्त्री-पुरुष से अलग पहचान रखने वाले ट्रांस समुदाय के लोगों को भी समाज में समान भागीदारी मिल सकें। लिंग के आधार पर पहचान को लेकर हम एक सकीर्ण सोच वाले समाज में रहते हैं इसको बदलने के लिए जेंडर न्यूट्रल स्पेस बनाने वाली सोच को प्रोत्साहित करना बहुत आवश्यक है। 

तमाम कानूनी अधिकार और ट्रांसजेंडर ऐक्ट के बावजूद भारत में बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष से इतर लैंगिक पहचान रखने वाले लोगों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। दुर्व्यवहार, हिंसा और असमानता की इस प्रवृत्ति को खत्म करने के लिए भाषा, कपड़े और स्थल को जेंडर न्यूट्रल करने के कुछ कदम उठाए जा रहे जिसे व्यवहार को बदला जा सकें।

तस्वीर साभारः diggitmagazine.com

भारत में कई संस्थाएं इस स्तर पर सुधार कर रही है। एनडीटीवी में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक साल 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस भारत का पहला अंडर ग्रेजुएट संस्थान है जहां जेंडर न्यूट्रल हॉस्टल है। इतना ही नहीं कैंपस में जेंडर न्यूट्रल वॉशरूम भी है। इसी तरह हैदराबाद में स्थित नालसार, यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में बीते साल कैंपस के हॉस्टल का एक फ्लोर जेंडर न्यूट्रल स्पेस घोषित किया गया था। ठीक ऐसा ही कदम अशोका यूनिवर्सिटी में भी लिया जा चुका है। इतना ही नहीं भारत के कुछ राज्यों में स्कूल स्तर पर शिक्षा के ज़रिये बच्चों को जेंडर न्यूट्रल व्यवहार अपनाने पर भी जोर दिया जा रहा है। 

जेंडर न्यूट्रल स्पेस और कम हिंसा

हिंसा का पहली वजह होती है कि इंसान को अकेला और कमजोर मानकर उसको शोषित किया जाता है। ब्रेकथ्रू में प्रकाशित लेख के मुताबिक कई शोधों से यह पता चला है कि ऑल जेंडर बाथरूम या टॉयलेट होने की वजह से हाशिये से आने वाले लोगों के साथ हिंसा होने की घटना कम हो जाती है। लोगों की अधिक चहल-पहल होने की वजह से किसी भी तरह की शिकायतों और हिंसा की वारदातें नहीं मिली है। इतना ही नहीं ऐसी जगह बनाने से लोगों में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाने में मदद और जेंडर के इर्द-गिर्द बने रूढ़िवाद को खत्म कर दिया जा सकता है। 

वर्ल्ड बैंक के तहत हैंडबुक फॉर जेंडर इनक्लूसिव अर्बन प्लानिंग एंड डिजाइन के अनुसार पहुंच, गतिशीलता, हिंसा से सुरक्षा, स्वास्थ्य और सफाई, क्लाइमेट रिजिलिएंस और उपयोग के दौरान सुरक्षा ये सभी छह मुख्य विषय है जो जेंडर इनक्लूसिव शहर बनाने के लिए ज़रूरी है।

जेंंडर न्यूट्रल स्पेस बनाने के हमें मद्रास हाई कोर्ट द्वारा जारी आदेशों को मानना बहुत ज़रूरी हैं। अब देखना यह है कि इस फैसले पर कुछ एक्शन लिया जाता है या कागजी कार्रवाई में मामले को उलझाकर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। क्योंकि भारत मे बात जब भी ट्रांसजेंडर समुदाय के हित से जुड़े फैसले या योजना की आती है तो उसपर रूढ़िवादी राजनीति हावी हो जाती है। वोट बैंक और ट्रांसजेंडर समुदाय के कमजोर प्रतिनिधित्व के आधार पर उनके हितों के ताक पर रख दिया जाता है। 


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