इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे बचपन से ही हमें मिलने लगती है जेंडर रोल्स की ट्रेनिंग

कैसे बचपन से ही हमें मिलने लगती है जेंडर रोल्स की ट्रेनिंग

जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मैं अपने आप ही खाना बनाना सीखती गई। पता नहीं मैं क्यों सीख रही थी। अपने आप ही मेरी रुचि खाना बनाने मे बढ़ गई। मेरी मां ने तो मुझे कभी खाना बनाना नहीं सिखाया और न ही सीखने को कहा।

मुझे आज भी याद है जब हम नानी मां के घर जाते तो हम खूब मस्ती करते थे।  हम चार भाई-बहन हैं, तीन भाइयों की एक बहन हूं मैंं। गर्मियों की छुट्टियों में नानी मां के घर जाना, वहां खूब आम खाना, सबको बराबर का हिस्सा मिलना, उसके बाद खेलना भी, साथ में लड़ना भी साथ में।  मुझे याद है जब कभी कभी मुझे खेलते-खेलते चोट लग जाती थी, तो मैंं उस समय बहुत ज्यादा रोती थी। सबसे ज्यादा मैंं ही रोती थी और उस समय मुझे मेरे भाई चिढ़ाते थे जिसे सुनकर मैं और ज्यादा रोती थी। लेकिन जब मेरे भाइयों को चोट लगती थी तो वे कभी नहीं रोते थे। मैंं सोचती थी कि क्या इन्हें चोट नहीं लगती है? ये लोग तो कभी रोते ही नहीं हैं। फिर मुझसे कहा गया, “हां ये लड़के हैं इनको नहीं लगती है चोट, लड़के तो बहादुर होते हैं।”

आखिर मुझे ही घर का काम क्यों सीखना है?

जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मैं अपने आप ही खाना बनाना सीखती गई। पता नहीं मैं क्यों सीख रही थी। अपने आप ही मेरी रुचि खाना बनाने मे बढ़ गई। मेरी मां ने तो मुझे कभी खाना बनाना नहीं सिखाया और न ही सीखने को कहा। हां, पर मुझे याद है कि जब हम भाई-बहन नानी के घर जाते थे तो छुट्टियों में तो मेरी मां एक बात कहा करती थी कि नानी की खाना बनाने में मदद करना और उनको घर के दूसरे कामों में भी सहारा देना। उस समय मैं भी हां में हां मिलाती थी। लेकिन यही बात मेरी मां मेरे भाई को नहींं कहती थी कि वह भी नानी के साथ खाना बनाने में मदद करे। फिर नानी जब हम नानी के घर जाते थे तो जब भी मेरी नानी कुछ भी खाने को बनाती थी तो मुझसे कहती थी, “आरुषि आ जाओ मेरे साथ देखो खाना कैसे बनता है क्या-क्या खाने मैं डलता है।” मैं भी चुपचाप खड़ी होकर बस देखती रहती थी। लेकिन आज तक मेरी नानी मां ने यही चीज मेरे भाइयों को नहीं कही। आज भी अगर हम नानी के घर जाते हैं तो घर का काम ज्यादा मैं ही करती हूं। मेरे भाई घर का कोई भी काम नहींं करते और उनको देखकर मुझे बहुत गुस्सा आता है।”

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जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मैं अपने आप ही खाना बनाना सीखती गई। पता नहीं मैं क्यों सीख रही थी। अपने आप ही मेरी रुचि खाना बनाने मे बढ़ गई। मेरी मां ने तो मुझे कभी खाना बनाना नहीं सिखाया और न ही सीखने को कहा।

“ओ सुदेश आया जरा की”

“ओ सुदेश आया जरा की।” यह लाइन मुझे अभी तक याद है। ये पहाड़ी भाषा के शब्द हैं। इसका मतलब है कि सुदेश यहां आना थोड़ा सा।” इस लाइन को मैं बचपन से ही सुनती आई हूं और अभी तक सुनती हूं। सुदेश मेरी नानी का नाम है और “ओ सुदेश आया जरा की” मेरे नाना मेरी नानी को कहते हैं। उनको हर काम के लिए ऐसे पुकारा जाता है। मैं बचपन से ही देखती आई हूं, मेरे नाना कोई भी काम खुद नहीं करते हैं वह हर छोटे-बड़े काम के लिए हमेशा मेरी नानी पर निर्भर रहते हैं। उनको कोई भी काम करवाना  होता है और नानी कहीं दूर हो तो वह इन्हीं शब्दों के साथ जॉोर से आवाज़ लगाकर कहते हैं, “ओ सुदेश आया जरा की।” 

यह भी तो सोचने वाली बात हैं न कि मेरी नानी क्यों नाना पर निर्भर नहींं है? मेरे नाना का अपना कारोबार है और वह उसमें व्यस्त रहते हैं और मेरी नानी मां घर के कामों में व्यस्त रहती हैं। दोनों ही बहुत मेहनत वाला काम करते हैं पर मेरे नाना जी को लगता है कि उनका काम ज्यादा मेहनत वाला है और नानी तो सिर्फ घर पर ही होती हैं तो उनको इतना काम नहींं होता है। चूंकि उन्होंने तो कभी घर का काम किया नहींं तो उन्हें अनपेड लेबर के बारे में कैसे पता होगा? मेरी नानी ने घर के अलावा बाहर का कोई काम नहींं किया है। अगर उन्हें कुछ खरीदना भी होता है या कहीं बाहर जाना होता है तो वह नाना पर निर्भर होती हैं। उदाहरण के तौर पर जब नाना पैसे देंगे तभी वह बाहर जा सकती हैं और घर के लिए समान खरीद सकती हैं। इस तरह पीढ़ियों से हमारे घर में जेंडर रोल्स निर्धारित होते चले आ रहे हैं।

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“मां के आने से पहले निपटा ले काम, ताकि उसको आकर ना करना पड़े”

जब मैं और मेरा भाई स्कूल में पढ़ते थे तो उस समय मेरे मां भी एक एनजीओ मे काम करती थीं। इस तरह वह घर और बाहर दोंनो का काम संभालती थीं। हमें भी और घर को भी साथ में अपनी नौकरी भी। उनके लिए उस समय घर के काम करना बेहद मुश्किल होता था। शायद उस समय मेरी उम्र 12 या 13 साल होगी। दफ्तर से आते-आते अक्सर माँ को देरी हो जाती थी, अब देरी हो जाती थी तो वह थक भी जाती थीं। तब मेरे घर के पड़ोस में रहनेवाली आंटी मुझे बार-बार कहती थीं, “मां के आने से पहले काम कर ले, ताकि उसको आकर ना करना पड़े।”  

उनके कहने का मतलब यह होता था कि तुम घर का सारा काम कर लो खाना बना लो ताकि तुम्हारी मां को आकर काम ना करना पड़े। वह यह बात हमेशा मुझे ही कहती थीं, उन्होंने आज तक मेरे भाई को कभी नहींं ऐसा कहा जबकि वह मुझसे 2 साल बड़ा है। जब मैं यह कहती थी कि मुझे नहींं आता है बनाना तो आंटी अजीब सी शक्ल बनाकर कहती थीं, “तुम्हें तो आना चाहिए तुम तो लड़की हो।” मैं आज भी सोचती हूं कि मैं एक लड़की हूं और इससे खाना बनाना और घर के काम का क्या लेना देना है। इस तरह जेंडर आधारित भूमिकाओं को बचपन से ही मेरे अंदर कुछ इस तरीके से फिट कर दिया गया कि मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि यह एक तरह का भेदभाव है। लड़कियों को हमेशा घर के कामों को हम बिना सवाल करते जाना बहुत आसानी से हमारा पितृसत्तात्मक समाज सिखा देता है।

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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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