फरवरी प्रेम का महीना माना जाता है। अभी-अभी ही प्रेम का सप्ताह गुज़रा है। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति भी इस ऋतु को को प्रेम की ऋतु या प्रेमोत्सव ऋतु मानती है। मैं ज्यादा करीब से अवध को देख रही हूं इसलिए अवध की बात कह रही हूं। अगर आप इस पूरे भारतीय समाज का, ख़ासकर पुरबिया समाज का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि यहां पूरे समाज में प्रेम को उगने ही नहीं दिया जाता। जन्म से पहले ही हत्या की पृष्ठभूमि बनी रहती है। एक समय समाज थोड़ा सा उदार लगता था। शायद फिल्मों या साहित्य का कुछ-कुछ असर हो रहा था। लेकिन तभी एक फासीवादी सत्ता का उदय थोड़े से आगे बढ़े समाज को पीछे धकेल देता है। आज यहां मैं अगर गांवों के इलाको की बात करूं तो ऐसी ऐसी घटनाएं यहां घटती हैं प्रेम के नाम पर कि रूह कांप जाती है।
जौनपुर जिले के तिलहारा गाँव की घटना है। गाँव की सीमा से सटे नाले के किनारे कुछ सरपत और बबूल का जंगल है जहां कहीं किसी दूसरे गाँव के लड़के लड़की मिलने आए। गाँव के लड़कों को पता चल गया। दरअसल ये अपराध पहले इतने व्यापक तरीके से नहीं हो पाता था। सूचना की सुविधा नहीं थी। जब से लोगों के हाथ में फोन आया तो गाँव के एक लड़के को पता चलता कि कहीं कोई लड़का लड़की मिल रहे हैं तो वे झट से फोन करके गाँव के अपने जैसे अन्य लड़कों को बुला लेते और फिर जाकर प्रेमी युगल का उत्पीड़न करते हैं।
कुछ सालों से यहां ऐसा वातावरण बन गया है कि अगर पता चल जाए किसी को गाँव में कि किसी वीराने में लड़का, लड़की मिल रहे हैं तो कई सारे लड़के वहां पहुचेंगे और पहुंचकर जोड़े को मारना, गाली देना और जाने क्या क्या दुर्व्यवहार करना शुरू कर देंगे। कई बार इन मामलों में लड़की का बलात्कार, सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएं भी सामने आई हैं। लेकिन ये महज घटना की तरह दर्ज हुई। इस पर कोई आक्रोश या आंदोलन नहीं होता क्योंकि यहां सामाजिक ढांचा प्रेम के ख़िलाफ़ होता है। समाज के लिए अपनी इच्छा से लड़के लड़की का प्रेम करना गुनाह है, व्यभिचार है।
एक समय समाज थोड़ा सा उदार लगता था। शायद फिल्मों या साहित्य का कुछ-कुछ असर हो रहा था। लेकिन तभी एक फासीवादी सत्ता का उदय थोड़े से आगे बढ़े समाज को पीछे धकेल देता है।
इस घटना में भी यही हुआ। जब प्रेमी जोड़ा मिलने जा रहा था तो एक लड़के ने देख लिया। फिर अन्य लड़कों को फोन करके बुला लिया। सारे लोग जाकर लड़के को मारने-पीटने लगे और लड़की को गालियां देते रहे। मिलने आया लड़का रोता तड़पता छोड़ देने की विनती करता रहा लेकिन गाँव के लड़के नहीं माने और लड़के की बाइक छीन ली। बाद में मामला पुलिस तक गया। लेकिन वही हुआ जो समाज में होता आया है। बाइक तो किसी तरह मिल गई उसे लेकिन मारपीट और अपमान का कोई हर्जाना नहीं है क्योंकि वह लड़का समाज की नज़र में व्यभिचार करते पकड़ा गया था, वह समाज का दुश्मन था। ऐसी जाने कितनी घटनाएं यहां के लगभग हर गाँव के इतिहास में दर्ज हैं।
जिस देश में प्रेम की महिमा गाई जाती है, उसी देश में प्रेम को इतना घृणित क्यों देखा जाता है। सिर्फ इसलिए कि सत्ताधारियों की सत्ता प्रेम करनेवालों को देखकर डगमगाने लगती हैं। उनको डर लगता प्रेमियों से, प्रेम करनेवाले समाज से। इसलिए वे प्रेम को खत्म करने के तमाम नियम व्यवहार बनाते हैं। लेकिन क्या इससे वह प्रेम खत्म कर पाए। क्या प्रेम कोई ऐसी चीज थी जिसपर राज्य और समाज का पहरा लगता। प्रेम को मिटाकर किसी देश की आत्मा में क्या बचेगा। बचेगी उनकी हिंसा,उनकी कुंठा, बचेगी प्रकृति को नष्ट करने की उनकी इच्छा। समाज की मान्यता प्रेम को लेकर जिस तरह से हिंसक थी राज्य ने उसे बढ़ावा दिया। आज हालात ये हो गए हैं कि पार्क , घाट या किसी भी ऐसी जगह पर अगर लड़के लड़कियां बैठे हैं तो निश्चित है कोइ आकर उनके साथ दुर्व्यवहार या मारपीट कर सकता है।
सामंती सोच और भेदभाव का समाज कभी प्रेम को नहीं समझ सकता। रूढ़ियों से बना ये समाज अपनी इसी अन्यायी व्यवस्था पर गर्व भी करता है। ये सामाजिक सत्ता और राजसत्ता सब समाज की इन मान्यताओं को बनाए रखना चाहते हैं। इसी तरह की स्थिति बनी रहेगी तभी उनकी सत्ता चलती रहेगी।
प्राचीन काल में कामपूजा का उत्सव मदनोत्सव कहलाता था। अब उसकी जगह होली ने ले ली है। यह कैसा दुर्भाग्य है कि हमारे यहां प्रेम पर प्रतिबंध लगाया जाता है। ऐसी रूढ़िवादी मानसिकता वाले लोगों के द्वारा जो खुदन को धर्म और नैतिकता का ठेकेदार समझते हैं। प्रेम करने की सहज प्रवृत्ति को हिंसा से ज़रिये रोकने की घृणित कोशिश में लगे हैं। हमारी सरकारें और पुलिस इन गुंडों का समर्थन करती हैं। आज धर्म के ठेकेदार राजनीति के ठेकेदार बने हुए हैं।
ये सब जानते हैं कि पाखंड से अनाचार फैलता है लेकिन कोई इस पाखंड को रोकना नहीं चाहता बल्कि ये सब और आग में घी डालते रहते हैं। कोई बाबा, कोई सत्ता स्थिति में परिवर्तन लाना नहीं चाहती। आज सत्ता धर्म और नैतिकता का हवाला देकर प्रेम करने वालों पर पहरे बिठा रही है। यहां जो आसपास के शहर हैं वहां की सार्वजनिक जगह पर बैठते हुए लड़के -लड़की क्या स्त्री -पुरुष तक डरते हैं। आये दिन की घटना है सत्ता और धर्म के ठेकेदार आकर आपका अपमान कर सकते हैं। इलाहाबाद शहर की बात पहले वहां सिर्फ लड़कों की टोली होती थी जो अभद्रता करते थे। अब तो लड़कियों की भी टोली बन गई है जो साथ बैठे लड़के-लड़कियों को जलील करती है, उनके साथ हिंसा और दुर्व्यवहार भी करती हैं। समाज का पूरा जो ढांचा है, वह प्रेम को लेकर उदार कैसे होगा जब जब सत्ता या धर्म सत्ता इस तरह के बदलाव चाहती है। इसी तरह की ज़हालत से उनकी दुकान चलती है।
समाज की मान्यता प्रेम को लेकर जिस तरह से हिंसक थी राज्य ने उसे बढ़ावा दिया। आज हालात ये हो गए हैं कि पार्क , घाट या किसी भी ऐसी जगह पर अगर लड़के लड़कियां बैठे हैं तो निश्चित है कोइ आकर उनके साथ दुर्व्यवहार या मारपीट कर सकता है।
मैं यहां प्रेम या जाति के संदर्भ में पूरे अवध को देखती हूं तो पूरा अवध संवेदनशील मूल्यों को लेकर जटिल परिदृश्य में जकड़ा हुआ है। सामंती सोच और भेदभाव का समाज कभी प्रेम को नहीं समझ सकता। रूढ़ियों से बना ये समाज अपनी इसी अन्यायी व्यवस्था पर गर्व भी करता है। ये सामाजिक सत्ता और राजसत्ता सब समाज की इन मान्यताओं को बनाए रखना चाहते हैं। इसी तरह की स्थिति बनी रहेगी तभी उनकी सत्ता चलती रहेगी। वे नहीं चाहते कि प्रेम और सद्भाव का एक सुंदर समाज बने जहां मनुष्य की प्रेम करने की प्रवृत्ति पर कोई बंदिश न हो।
सत्ता और धर्म के ठेकेदारों का उद्देश्य युवाओं को मानसिक रूप से प्रबुद्ध होने से रोकना है। वे नहीं चाहते कि ऐसे समाज का निर्माण हो जहां लोग प्रेम होने को जीवन में सबसे बड़ा मांगलिक कार्य मानते, जहां ये कभी नहीं देखा जाता कि प्रेम किनके बीच है। जहां जाति ,जेंडर और रंग-रूप प्रेम करने का आधार नहीं होते। जहां सत्य और मानवीय मूल्यों ,संवेदनाओं को जानने समझने की जिज्ञासा चलती रहती और उनसे ज्ञान पाकर और बेहतर और परिवर्तनशील समाज बनाने की कोशिश रहती। ख़ैर चाहे जितने पहरे हों प्रेम पर वो दिलों में उग ही आता है और अपनी अस्मिता को मिटाने नहीं देता। प्रेम के इसी मुश्किल हालत के लिए फ़ैज लिखते हैं-
मुश्किल हैं अगर हालात वहां, दिल बेच आयें जाँ दे आयें, दिल वालो कूचः-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं।