नारीवाद ड्राइविंग सीट पर महिलाओं को सामाजिक सड़कें कब स्वीकार करेंगीं? | नारीवादी चश्मा

ड्राइविंग सीट पर महिलाओं को सामाजिक सड़कें कब स्वीकार करेंगीं? | नारीवादी चश्मा

महिलाएँ चाहे अपने साधन से ड्राइव करके यात्रा करें या फिर वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लें, उन्हें दोनों माध्यमों में अलग-अलग तरह की हिंसा शिकार होना पड़ता है।

‘दोपहर के साढ़े बारह बजने को है। मुझे गाँव में महिलाओं के साथ बैठक करने के लिए समय से पहुँचना है, लेकिन बाज़ार की तरफ़ से जाने वाले रास्ते में जाम की समस्या बेहद ज़्यादा होती है, जिससे जाने हमेशा देर हो जाती है और इसके अलावा एक शॉर्टकट रास्ता भी है, जो गाँव की नहर के रास्ते से सीधे गाँव में जाता है। पर मुझे उस रास्ते में अपनी स्कूटी से जाने में हज़ार बार सोचना पड़ता है, क्योंकि उस रास्ते में ज़्यादातर दो पहिया वाहन ही चलते है, जिसमें अक्सर पुरुष गाँव में स्कूटी से जाती लड़की को देखकर उसे परेशान करने कोई मौक़ा नहीं छोड़ते है। कई बार तो ऐक्सिडेंट होने की नौबत आ चुकी है। इसलिए मैं बाज़ार की तरफ़ का ही रास्ता चुनती हूँ।‘

मैंने कई बार गाँव में जाते हुए इस डर का सामना किया है और फिर दूर और व्यस्त रास्ते का चुनाव किया है और मेरे चुनाव से ज़्यादा मेरी मजबूरी रही है, क्योंकि सुरक्षा की दृष्टिकोण से और कोई रास्ते ही उपलब्ध नहीं होते है। बदलते भारत में आज महिलाएँ सरहद पर है और आसामान में हवाई जहाज़ तक उड़ा रही है, लेकिन दुर्भाग्य से आज भी अपने गाँव-शहर, गली और मोहल्लों के रास्ते उनकी गतिशीलता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। इस अस्वीकृति को हम बहुत आसानी से अपने सोशल मीडिया हैंडल में प्रचलित रील में भी देख सकते है, जिसमें हमेशा महिलाओं को बेकार ड्राइवर बताने वाले मीम और जोक्स बनते है, जो बेहद प्रभावी ढंग से हमारे ज़हन में इसबात को बैठाने का काम करते है कि ‘महिलाएँ अच्छी ड्राइवर नहीं है।‘ और बात सिर्फ़ मज़ाक़ तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इस मज़ाक़ से बनती धारणाओं और इन धारणाओं का व्यवहारिक स्तर पर प्रभाव बेहद चिंताजनक है, ख़ासकर तब जब हम ‘विकास, बदलाव और महिला सशक्तिकरण’ की बात करते है। तो आइए आज बात करते है भारत में ड्राइविंग सीट पर बैठी और यात्राएँ करती महिलाओं और उनके संघर्ष के बारे में  –

रिपोर्ट : ‘100 ड्राइवर में 92 पुरुष और मात्र 8 महिला ड्राइवर’

रोड ट्रांसपोर्ट ईयर बुक 2016-17 के अनुसार, 92.3 फ़ीसद पुरुष ड्राइवर के पास ड्राइविंग लाइसेंस है वहीं मात्र 7.7 फ़ीसद महिला ड्राइवर के पास ड्राइविंग लाइसेंस है। इन आँकड़ों को अगर हम सरल भाषा में समझें तो कुल 100 ड्राइवर में 92 पुरुष और मात्र 8 महिला ड्राइवर है। इन आँकड़ो से हम सड़कों पर बतौर ड्राइवर महिलाओं की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं। लेकिन इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि सिर्फ़ 7.7 फ़ीसद महिलाएँ ही घर से बाहर निकलती है, बल्कि इसका मतलब ये है कि 92.3 फ़ीसद महिलाएँ कहीं भी आने-जाने के लिए अन्य लोगों व माध्यमों पर आश्रित है।

साथ ही, जब सड़कों पर महिला ड्राइवर की संख्या कम होगी तो हमेशा महिलाओं के ड्राइविंग करने की आदत किसी अजूबे जैसी होगी और जैसा कि हम जानते है हमारा समाज अजूबे देखना पसंद करते है, लेकिन उसे स्वीकार करना नहीं। इसलिए अगर हम सड़कों को महिलाओं के सुरक्षित स्पेस बनाने की सोचते है तो इसमें पहला ज़रूरी कदम है, सड़कों और ड्राइविंग सीट पर महिलाओं की ज़्यादा संख्या।  

रिपोर्ट : पब्लिक ट्रांसपोर्ट में 56 फ़ीसद महिलाओं ने किया यौन उत्पीड़न का सामना

‘बनारस के हाथी बाज़ार गाँव की रहने वाली बीस वर्षीय पूनम ने बीए की पढ़ाई के लिए दूर एक अच्छे कॉलेज में एडमिशन लिया, जो हमेशा से उसका सपना रहा। पूनम हर रोज़ ऑटो से कॉलेज जाती। उसे दो-तीन बार यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा और जब उसने इसकी शिकायत घर पर की तो उसके घर वालों ने पास के कॉलेज में उसका एडमिशन करवा दिया, जिससे उसकी पढ़ाई का एकसाल बर्बाद हुआ और बीए ख़त्म होते ही उसकी शादी कर दी गयी।‘

साल 2021 में मेट्रो शहरों में एक ऑनलाइन सर्वे किया गया, जिसमें 56 फ़ीसद महिलाओं ने बताया कि उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट में यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। हमें ये समझना होगा कि ये सिर्फ़ आँकडें नहीं है, बल्कि ये वो हिंसा है जिसका सामना महिलाओं को करना पड़ता है, जो न केवल उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती है। बल्कि ये उनके सामाजिक जीवन और विकास के अवसर से उन्हें दूर करने का भी एक प्रमुख कारक बनती है। पूनम जैसी ढ़ेरों महिलाएँ यात्रा के दौरान हिंसा का शिकार होती है, लेकिन वे इसकी शिकायत नहीं कर पाती है, क्योंकि उन्हें मालूम है, शिकायत करने पर यौन उत्पीड़न करने वालों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाई हो या न हो, उनकी गतिशीलता पर प्रभाव ज़रूर पड़ेगा।  

रिपोर्ट : यात्रा से उचित साधन के अभाव में रोज़गार से दूर होती महिलाएँ

आए दिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सामने आती यौन उत्पीड़न की घटनाएँ और महिला ड्राइवरों का सीमित होना, ये दोनों ही आपस में जुड़ा हुआ है। ज़ाहिर है जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न होता है तो न केवल सड़कों और साधन को बल्कि महिलाओं की गतिशीलता को भी ख़तरे की निगाह से देखा जाने लगता है और जिसका सीधा प्रभाव महिलाओं के जीवन पर पड़ता है। एशियन डिवेलप्मेंट बैंक के अनुसार, महिलाओं के लिए यात्रा के उचित साधन न मौजूद होने और घरेलू ज़िम्मेदारियों की वजह से अधिकतर महिलाएँ रोज़गार के अवसर से दूर हो जाती है।

सवाल : ड्राइविंग सीट पर महिलाओं को सामाजिक सड़कें कब करेंगीं स्वीकार?

महिलाएँ चाहे अपने साधन से ड्राइव करके यात्रा करें या फिर वे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लें, उन्हें दोनों माध्यमों में अलग-अलग तरह की हिंसा शिकार होना पड़ता है। सड़कों की दिशा, समय और साधन सब उनके लिए पितृसत्तात्मक मूल्यों के आधार पर पहले से तय किए गए है, जिसके तहत महिलाएँ अगर खुद गाड़ी ड्राइव करती है तो उन्हें पुरुष ड्राइवर से हिंसा का शिकार होना पड़ता है। अगर वे अपनी मर्ज़ी से पब्लिक ट्रांसपोर्ट का चुनाव करती है तो उनके साथ यात्रा कर रहे यात्री उनके सुरक्षित स्पेस नहीं देते है और अगर महिला ने शॉर्टकट के लिए सूनसान रास्ते का चुनाव किया या फिर सूरज ढलने के बाद यात्रा करने का प्लान किया तो उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है, जिसे बक़ायदा समाज की तरफ़ से भी लाज़मी ठहराया जाता है।

अब ऐसे में सवाल आता है कि ‘महिलाएँ कब, कहाँ और किसके साथ यात्रा करने में सुरक्षित हैं?’ ज़वाब हम सभी जानते है – अपने परिवार के पुरुषों के साथ, बैकसीट पर। जहां यात्रा की दिशा, समय, उद्देश्य, माध्यम और इससे जुड़े सारे फ़ैसले पुरुषों के हाथ में होते है और महिलाएँ उन फ़ैसलों पर आश्रित होती है।

आज जब हम विकास और बदलाव व महिला सशक्तिकरण की बात करते है तो हमें समझना होगा कि ये सभी महिलाओं की गतिशीलता पर आत्मनिर्भरता के बिना खोखले है। अगर सरहद पर तैनात महिला सिपाही को देश की सड़क पर अकेले सफ़र में हिंसा का शिकार होना पड़े तो ये हमारे विकास और सशक्तिकरण के मानकों पर बड़ा सवाल है। वहीं ड्राइविंग सीट पर महिलाओं की कम संख्या सड़कों पर महिलाओं की संख्या को भी प्रभावित करती है, जिसकी वजह से साधन और सड़कें दोनों की महिलाओं के लिए सहज और सुरक्षित नहीं हो पाती है।

यहाँ हमें ये भी समझने की ज़रूरत है कि जब हम सड़क और साधन की बात करते है तो ये हमारे घर-गली-मोहल्ले से ही निकलते है, जहां आज भी महिलाओं के निर्णय, चुनाव और गतिशीलता को लेकर अस्वीकृति है, जिसे चुनौती दिए बिना कभी भी सड़के और साधन महिलाओं लिए सहज और सुलभ नहीं होंगीं।  


तस्वीर साभार : vagabomb

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