हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वकील अश्विनी उपाध्याय की वह याचिका खारिज कर दी जिसमें महिलाओं और पुरुषों की शादी के लिए समान उम्र की मांग रखी गई थी। याचिका में कहा गया था कि भारत में पुरुषों की शादी की उम्र 21 और महिलाओं की 18 साल है जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 का उल्लंघन है। वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिका यह कहते हुए खारिज की कि इस मुद्दे पर फ़ैसला लेना केंद्र सरकार का काम है।
बता दें कि भारत सरकार ने महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने का प्रस्ताव दिया है। वर्तमान में, महिलाओं के शादी के लिए न्यूनतम कानूनी उम्र 18 साल है और पुरुषों के लिए शादी संबंधित उम्र 21 साल है। इस तरह के कानूनी बदलाव को औपचारिक रूप देने के लिए एक बिल 21 दिसंबर, 2021 को लोकसभा में पेश किया गया था। हालांकि, विपक्षी दलों के प्रतिरोध के बाद, इसे आगे के मूल्यांकन के लिए एक संसदीय पैनल के पास भेज दिया गया है।
भारत में, शादी की न्यूनतम उम्र पहली बार शारदा अधिनियम, 1929 के तहत निर्धारित की गई थी। इस अधिनियम ने लड़कियों की शादी योग्य उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल निर्धारित की। बाद में इसका नाम बदलकर बाल शादी प्रतिबंध अधिनियम (CMRA), 1929 कर दिया गया। साल 1978 में, भारत सरकार ने लड़कियों के लिए कानूनी न्यूनतम वैवाहिक 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल कर दी थी। बाल शादी निषेध अधिनियम (PCMA), 2006 नामक नए कानून में भी यही स्थिति बनी हुई है, जिसने CMRA, 1929 का स्थान लिया है।
हमारे देश में दशकों से मनाही के बावजूद, बाल विवाह पर लंबे समय से प्रतिबंध होने के बावजूद भी कम उम्र में शादी एक चिंता का विषय बना हुआ है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 (2019-21) के अनुसार, 20-24 साल की उम्र की 23.3% महिलाओं की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई थी, जो शादी की कानूनी उम्र है। नवीनतम सर्वेक्षण से पता चलता है कि यह समस्या ग्रामीण भारत में 27% अधिक प्रचलित है, जबकि शहरी क्षेत्रों में, कम उम्र में शादी सभी शादीों का 14.7% है।
विभिन्न धर्मों में शादी की न्यूनतम उम्र
हिंदुओं के लिए, हिंदू शादी अधिनियम, 1955 लड़की के लिए न्यूनतम उम्र 18 साल और लड़के के लिए न्यूनतम उम्र 21 साल निर्धारित करता है। विशेष शादी अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिए शादी के लिए सहमति की न्यूनतम उम्र 18 और 21 साल निर्धारित करते हैं। यह विधेयक यह कहता है कि भारत में सभी धर्मों के अधिनियम जैसे भारतीय ईसाई शादी अधिनियम, 1872; पारसी शादी और तलाक अधिनियम, 1936; मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937; विशेष शादी अधिनियम, 1954; हिंदू शादी अधिनियम, 1955; और विदेशी शादी अधिनियम, 1969, पुरुषों और महिलाओं के लिए शादी की एक समान न्यूनतम उम्र प्रदान नहीं करते हैं।
शादी की नयी उम्र के विधेयक के पास हो जाने से इन कानूनों में भी संशोधन करके बदलाव किया जाएगा क्योंकि यह विधेयक कहता है कि महिलाओं के लिए नयी न्यूनतम वैवाहिक उम्र सभी व्यक्तिगत कानूनों पर लागू होगी; इसलिए, शादी की कानूनी उम्र सभी महिलाओं के लिए उनके धर्म की परवाह किए बिना बढ़ाई जाएगी। सरकार प्रस्तावित कानून को लैंगिक समानता पर संविधान की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए पुरुषों के साथ महिलाओं को समान स्तर पर लाने के लिए एक मजबूत उपाय के रूप में देख रही है।
सरकार का कहना है कि इससे देश में लैंगिक समानता आएगी और मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के खराब स्वास्थ्य आदि जैसी अन्य समस्याओं का समाधान होगा, लेकिन अन्य सामाजिक कारकों को देखे बिना केवल शादी को दो साल तक बढ़ाना इन समस्याओं के हल का सही तरीका नहीं हो सकता है।
महिलाओं के लिए वैवाहिक उम्र बढ़ाने के समर्थकों का तर्क है कि वर्तमान में, कई लड़कियों को शादी के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। शादी के लिए आवश्यक न्यूनतम कानूनी उम्र को 21 तक बढ़ाने से उन्हें अपनी पढ़ाई करने का समय मिलेगा और उच्च शिक्षा हासिल करने का अवसर मिलेगा। महिलाओं के लिए न्यूनतम वैवाहिक उम्र को पुरुषों के समान बनाकर लिंग तटस्थता के सिद्धांत की पुष्टि करने वाले निर्णय के रूप में भी पेश किया जाता है। इस विधेयक के अनुसार शादी योग्य उम्र बढ़ाने के पीछे सरकार का उद्देश्य लैंगिक असमानता और लैंगिक भेदभाव से निपटना और हमारी महिलाओं और लड़कियों के स्वास्थ्य, कल्याण और सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने और पुरुषों के बराबर स्थिति और अवसर सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त उपाय करना है।
कई सवालों के जवाब अब भी बाकी
लेकिन क्या शादी की उम्र बढ़ने से महिलाओं की उच्च शिक्षा तक पहुंच अपने आप बढ़ जाएगी? शिक्षाविद भारती अली ने आउटलुक को बताया कि ऐसी मान्यताएं और कुछ नहीं बल्कि इच्छाधारी सोच है। अली कहती हैं, “शादी की एक समान उम्र कोई जादू की छड़ी नहीं है जो जादुई रूप से भारत में महिलाओं की समस्याओं को हल कर देगी, शादी की उम्र बढ़ाने से महिलाओं को अपने माता-पिता के साथ बातचीत करने के लिए अधिक समय मिल सकता है, लेकिन यह उनकी शिक्षा में निवेश को प्रोत्साहित नहीं करेगा।
सरकार को न्यूनतम वैवाहिक उम्र को कानूनी रूप से बढ़ाने के बजाय, समाज में मूल्य परिवर्तन लाने के लिए बाल विवाह के मूल कारण को संबोधित किया जाना चाहिए जिससे कि लोग खुद-ब-खुद अपने बच्चों की शादियां देरी से करें। किसी कानून को ज़बरदस्ती थोपने से अच्छा उस विषय पर ज़मीनी काम करना ज़रूरी है ताकि समस्या जड़ से ख़त्म हो जाए।
आंकड़े बताते हैं कि बाल विवाह के अधिकांश मामले ग्रामीण इलाकों में होते हैं। भारत में शिक्षा में बढ़ते निजीकरण के कारण उच्च शिक्षा एक महंगा मामला बन गया है। ऐसे में यह उम्मीद करना अव्यावहारिक है कि परिवार लड़कियों की शिक्षा में निवेश करेगा क्योंकि उनके पास उसकी शादी करने से पहले अधिक समय है। ग्रामीण इलाकों में इतना अधिक पैसा नहीं होता कि लड़कियों की महंगी पढ़ाई पर खर्चा करें फिर उनकी शादी पर भी खर्चा करें। सरकार का कहना है कि इससे देश में लैंगिक समानता आएगी और मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के खराब स्वास्थ्य आदि जैसी अन्य समस्याओं का समाधान होगा, लेकिन अन्य सामाजिक कारकों को देखे बिना केवल शादी को दो साल तक बढ़ाना इन समस्याओं के हल का सही तरीका नहीं हो सकता है।
कई लड़कियां हिंसक घरों से छुटकारा पाने के लिए जल्दी शादी करने का फैसला करती हैं, जहां उन्हें बोझ माना जाता है और उनके साथ बुरा-बर्ताव किया जाता है। ऐसी लड़कियों के लिए शादी करना बहुत ज़रूरी होता है। वे शादी को स्वतंत्रता का एक विकल्प मानती हैं। हालांकि, इस कानून के लागू होने से स्थिति बदल सकती है। उन्हें उस हिंसक घर में अधिक समय तक रहने के लिए मजबूर किया जाएगा।
कोविड-19 के बाद, लोगों से काम छिन गए हैं, नौकरियां कम हो गई हैं। भारत में निजीकरण बढ़ रहा है। हर चीज़ महंगी हो रही है। शिक्षा भी इससे अछूती नहीं है। इन सब के बावजूद भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में भी बाल विवाह की घटनाओं में बढ़त हुई है। इसलिए, यह कहना उचित होगा कि समस्या मौजूदा कानूनों के कार्यान्वयन में निहित है। सरकार को न्यूनतम वैवाहिक उम्र को कानूनी रूप से बढ़ाने के बजाय, समाज में मूल्य परिवर्तन लाने के लिए बाल विवाह के मूल कारण को संबोधित किया जाना चाहिए जिससे कि लोग खुद-ब-खुद अपने बच्चों की शादियां देरी से करें। किसी कानून को ज़बरदस्ती थोपने से अच्छा उस विषय पर ज़मीनी काम करना ज़रूरी है ताकि समस्या जड़ से ख़त्म हो जाए।