संस्कृतिकिताबें ‘प्रेमाश्रम’ की नज़रों से देखें तो क्या यह हमारी विफलता है कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं?

‘प्रेमाश्रम’ की नज़रों से देखें तो क्या यह हमारी विफलता है कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं?

आज हम प्रेमचंद को कैसे याद करते हैं, जाहिर सी बात है उनकी रचनाओं से तो अपनी रचनाओं में जो एक समाज वह गढ़ते थे क्या वर्तमान में उस समाज का चिन्ह दिखता है?

एक समाज अगर अपने काल में सौ साल के बाद भी वहीं खड़ा है तो वह उस समाज और उसके नागरिकों की विफलता ही है। हम सच्चे अर्थों में तब सभ्य और शिक्षित समाज बनाते हैं जब वहां मनुष्य में गैरबराबरी न हो। समाज जाति, छुआछूत के भेदभाव आदि से मुक्त हो। आज हम प्रेमचंद को कैसे याद करते हैं, जाहिर सी बात है उनकी रचनाओं से तो अपनी रचनाओं में जो एक समाज वह गढ़ते थे क्या वर्तमान में उस समाज का चिन्ह दिखता है? प्रेमचंद तो एक महान युगद्रष्टा थे। अपने वर्तमान में प्रेमचंद जिस भविष्य का आधार रखते हैं क्या वह भविष्य आज दिखता है, शायद नहीं दिखता या इतना कम दिखता है कि हम उसे किसी समाज का सही आंकलन नहीं कर सकते।

यह कथाकार प्रेमचंद की प्रतिभा और दूरदर्शिता की दृष्टि है कि वह आज भी प्रासंगिक हैं, ख़ासकर भारतीय समाज का गंवई किसान व मजदूर परिदृश्य जिसे प्रेमचंद ने अपनी कथा का मुख्य केंद बनाया उसे हम जब आज भी ध्यान से देखेंगे तो लगभग ये वही हैं जहां प्रेमचंद छोड़कर गए थे। गाँव उससे बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं बल्कि कुछ दशकों में जाति गठजोड़ और धर्मांधता बहुत तेजी से बढ़ी है। हमें इस बात के लिए खेद होना ही चाहिए कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है यह एक आधुनिक और सभ्य बनते समाज के लिए विडम्बना ही है।

प्रेमचंद का रचना संसार बहुत विस्तृत है। यहां उनके एक प्रसिद्ध उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को ही ध्यान में रखते हुए उस समाज और पात्रों की बात की जा रही है। जमींदार परिवार के पहले के जो दो भाई हैं। उनमें बहुत अंतर नहीं है या यह कहिए कि ठोस अंतर नहीं है। वे अपनी रियाया का खयाल रखते हैं, उनके सुख-दुख में खड़े रहते हैं। उनकी बेटियों की शादी में मदद करते हैं लेकिन दूसरी पीढ़ी के दोनों भाइयों में एकदम अंतर है। बड़े भाई प्रेमशंकर जितने सज्जन और एक नये मनुष्य के स्वप्न में बनती दुनिया के हिमायती हैं, ज्ञानशंकर उतना ही महाजनी व्यवस्था का पोषक। वह अपनी रियाया का खून चूस लेना चाहता है और उसके इस अन्याय और शोषण की राह में जो आता है सबके साथ कुछ न कुछ छल-फरेब करता है। इसमें ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि उसमें बौद्धिक प्रतिभा भी बहुत है जिसका उपयोग वह गाहे-बगाहे अपने स्वार्थ के लिए करता रहता है। इसे आज के राजनैतिक और बाज़ारवादी मूल्यों में उपयोग होती रचनात्मकता बौद्धिकता के संदर्भ में देख समझ सकते हैं। वहीं, नये मनुष्य का जो दूसरा चरित्र गढ़ा है प्रेमचंद ने वह गैरबराबरी की दुनिया बनाने के अपने कार्य में लगा संघर्ष कर रहा है।

यह कथाकार प्रेमचंद की प्रतिभा और दूरदर्शिता की दृष्टि है कि वह आज भी प्रासंगिक हैं, ख़ासकर भारतीय समाज का गंवई किसान व मजदूर परिदृश्य जिसे प्रेमचंद ने अपनी कथा का मुख्य केंद बनाया उसे हम जब आज भी ध्यान से देखेंगे तो लगभग ये वही हैं जहां प्रेमचंद छोड़कर गए थे।

हम और रचनाओं की यहां बात न भी करें तो हम प्रेमचंद की इसी एक रचना में ही विभिन्न पात्रों को देख सकते हैं। उनके जो दो अलग-अलग चरित्र हैं प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर वही उनका समाज है। इसमें बुराई के साथ अच्छाई की साझेदारी है और दोनों का एकतरह का संघर्ष चलता रहता है। अभी के समय में पलटकर एक बार देख लीजिए कहां है यह साझेदारी है, कहां है वह संघर्ष। आज समाज में जब हम देखेगें किसी परिवार, समूह या पार्टियों में तो ये दोनों चरित्र नहीं दिखते। एक ही चरित्र का जैसे अस्तित्व ही बचा है। ज्ञानशंकर जहां आरामतलब मनुष्यों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, प्रेमशंकर वहीं श्रम के जीवन के मूल्यों की स्थापना करते दिखते हैं।

ज्ञानशंकर एक व्यक्ति नहीं महाजनी सभ्यता की परंपरा है, उसकी परंपरा आज अपनी सम्पूर्ण ताकत के साथ चलन में है जिसका आभास प्रेमचंद की दूरदर्शिता की दृष्टि ने उसी समय देख लिया था। प्रेमचंद आनेवाली पीढ़ी को, आधुनिक शिक्षा से लैस मनुष्य बनने की दिशा में मायाशंकर का जो चरित्र गढ़ते हैं अद्वितीय है। वह समाज के लिए अनुकरणीय और बहुत जरूरी भी था। लेकिन हुआ आज युवा कहां हैं इन आदर्शों को लेकर। कितने युवा मायाशंकर की राह पर चल रहे हैं। आज तो आप देख ही सकते हैं युवा ज्ञानशंकर की परंपरा के जाल में उलझ गए हैं। जो बचे भी हैं उस जाल से तो व्यवस्था की मार, रोटी-रोजगार की चिंता बहुत कुछ सोचने-समझने ही न देगी। प्रेमचंद के गढ़े दोनों आदर्श चरित्र प्रेमशंकर और मायाशंकर जानते हैं ज्ञानशंकर की महाजनी नीति समाज को किस अंधेरे में ले जाएगी। आज हम उस अंधेरे को कितना पहचान पाए और दृष्टि न बन पाने का परिणाम है कि हम उस अंधेरे में आकर खड़े हो गए हैं।

हम आज जब उस समाज में रत्तीभर परिवर्तन नहीं ला सके तो उसे हम प्रेमचंद के साहित्य की प्रासंगिकता करार दे रहे हैं जबकि हम ध्यान से सोचे तो उनकी प्रासंगिकता भी नहीं बची बल्कि समाज वहां से चलता हुआ पतन की तरफ मुड़ गया है।

इसी उपन्यास के संदर्भ में हम स्त्री पात्रों को भी देख सकते हैं विद्या और गायत्री दोनों बहनें हैं। दोनों ही बहनें ज्ञानशंकर के छल-फरेब में फंसी हुई हैं। इसमें विद्या, उसके प्रपंचों के भय और दुख में जहर खा लेती है लेकिन गायत्री ज्ञानशंकर के फरेब के जाल में उलझती जरूर है लेकिन चेतना होने पर उससे विद्रोह भी कर बैठती है और अपने अधिकार का उपयोग करके ज्ञानशंकर से अपनी रियासत छीन लेती है। आप इन दोनों स्त्री पात्रों में भी विरोधाभास देखेगें जिसमें प्रेमचंद सारी विडंबनाओं को कहते हुए भी स्त्रियों के प्रति अपनी उदारता की दृष्टि नहीं छोड़ते। यहां यह उपन्यास अद्भुत लगता है और प्रेमचंद की स्त्री चिन्तन की दृष्टि उजागर होती दिखती है। प्रेमचंद दो चरित्र गढ़ते हैं। एक भारतीय संस्कृति की परंपरा का आदर्श चरित्र और एक आधुनिक स्त्री का संघर्षरत और जीवन जीनेवाली स्त्री-चरित्र। दोनों अपनी स्थिति से लड़ रही हैं लेकिन गायत्री सब फरेब में फंसते हुए भी निकल आती है और जीवन को एक दिशा में ले ही जाती है। यह प्रेमचंद की आधुनिक स्त्री है जो गिरती ज़रूर है लेकिन उठकर खड़ी होती है।

इन्हीं पात्रों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण तीसरा चरित्र भी है प्रेशंकर की पत्नी श्रद्धा का। श्रद्धा एक धार्मिक, पौराणिक मान्यताओं के बंधनों में बंधी हुई स्त्री है जो अपने जीवन में इनका बहुत कट्टरता से पालन करती है। धर्मभीरु होने के साथ-साथ श्रद्धा बेहद साहसी और मानवीय चरित्र भी है। यही आकर प्रेमचंद जनमन को समझने की गहराई से देखने वाले द्रष्टा ही नहीं लोक के प्राकृतिक व्यवहार में आस्था रखने वाले मनुष्य भी लगते हैं श्रद्धा की कट्टरता और छुआछूत की भावना के बाद भी उस पात्र प्रेमचंद उसे उबार लाते हैं और जब श्रद्धा की कट्टरता और भेदभाव की आस्था टूटती है तो वह बहुत ही उदार और मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं में जीती नयी मनुष्य के रूप में उभरती है और गायत्री जैसी समाज से तिरस्कृत स्त्री से घृणा न करके उसे गले लगाती है।

प्रेमचंद को ही पढ़ते हुए लगता है कि हम इतने सालों के बाद भी वहीं ख़ड़े हैं, जहां से आधुनिक भारत की शुरुआत हुई थी। बाजार की बात न करें तो हम कहां बहुत आगे आए हैं। वे जो विज्ञान, तकनीक औऱ विकास की बात करते हैं उसमें मानवीय मूल्यों की कितनी जगह हैं। आज भी प्रासंगिकता में बचे रहने की यह बात तो प्रेमचंद के लिए गर्व की है पर हमारी इस असफलता का गहरा सरोकार भी है इससे।

प्रेमचंद ने जिस समाज को रचा वह समाज का सच आनेवाले समय का भी सच था। समाज जिस दिशा की तरफ जा रहा था, ज़ाहिर सी बात है वह समाज खुद उनकी ही नज़रों में खटकता था। प्रेमचंद आजीवन अपनी कलम की ताकत से उस समाज की बेहतरी के लिए संघर्षशील रहे और अंत में बीमारी से ग्रसित हो गए और अल्पआयु में ही उनकी मृत्यु हो गई। हम आज जब उस समाज में रत्तीभर परिवर्तन नहीं ला सके तो उसे हम प्रेमचंद के साहित्य की प्रासंगिकता करार दे रहे हैं जबकि हम ध्यान से सोचे तो उनकी प्रासंगिकता भी नहीं बची बल्कि समाज वहां से चलता हुआ पतन की तरफ मुड़ गया है उन्होंने तत्कालीन समाज और मनुष्य की जो थोड़ी बहुत खूबियां बताई थी आज के इस तथाकथित सांस्कृतिक युग में हम उसे भी खो चुके हैं।

जो एक अच्छाई से बना मनुष्य उनकी रचनाओं में उजाले की आस की तरह होता था हमारे आज के समाज में आज वह जाने कहां खो गया है। जिस सदाचार, नैतिकता की वहां टकराहट चलती रहती थी समाज मे आज उन विचारों रत्तीभर भी स्थान नहीं है। जिसकी हिमायत हमारा कथाकार आजीवन करता रहा और लिखता रहा और उनकी प्रासंगिकता को पीछे छोड़ चुके समाज के लिए हम कह रहे हैं कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं। आज की महाजनी व्यवस्था उसे निगलती जा रही है उनके समय के धनिक, जमींदार आज आधुनिक सत्ता के नुमाईंदे बन गए हैं। महाजन के हाथ में बाज़ार अब भी है। वह सत्ता को अपने मनमाने तरीके से चला रहा है, गरीब और गरीब होता चला जा रहा है अमीर और अमीर हो गए हैं। प्रेमचंद का रचना का संसार आज पीछे छूट गया है।

जब हम प्रेमचंद के रचे संसार को देखते हैं तो लगता है कि वे सामाजिक पात्र जो प्रतिनिधित्व कर रहे थे उस समाज का, आज उनका पतन हो गया है। वे आज की किसी प्रासंगिकता में नहीं दिखते हैं। राजनैतिक उपन्यास रंगभूमि को ही देखे तो वे सभी पात्र जिन्होंने समाज को एक दिशा दी सूरदास, सुभागी, सोफिया का आदर्श प्रेम, विनय सिंह का बलिदान या प्रेम प्रतिज्ञा का अमरनाथ या वरदान की वृजरानी या माधव , उनकी रचना के सारे आदर्श पात्र अब नहीं दिखते। हां समाज की वे बुराइयां जो वो छोड़कर गए थे वो वीभत्स रूप ले चुकी हैं।

प्रेमचंद को ही पढ़ते हुए लगता है कि हम इतने सालों के बाद भी वहीं ख़ड़े हैं, जहां से आधुनिक भारत की शुरुआत हुई थी। बाजार की बात न करें तो हम कहां बहुत आगे आए हैं। वे जो विज्ञान, तकनीक औऱ विकास की बात करते हैं उसमें मानवीय मूल्यों की कितनी जगह हैं। आज भी प्रासंगिकता में बचे रहने की यह बात तो प्रेमचंद के लिए गर्व की है पर हमारी इस असफलता का गहरा सरोकार भी है इससे। हम तो अब वहां भी नहीं खड़े हैं जहां वह छोड़ कर गये थे। असमानता और रूढ़ियों से टकराता उनका वह जनमन कहां है। प्रेमचंद के समाज के जो दो ध्रुव थे उसमें एक ही शीर्ष पर दिखता है दूसरा बेहद हाशिये पर है। सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है उनके पात्रों की जो आदर्श समाज बनाने की जद्दोजहद है वह गायब सी हो गई है।


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