भारत को आज़ाद करवाने में बहुत सी वीरांगनाओं का योगदान रहा है। इनमें से कुछ को तो इतिहास के पन्नों पर जगह मिली मगर कुछ को इतिहास ने भुला दिया। 1857 की क्रांति की बात करें तो रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल जैसे नाम तो हमें याद आते हैं लेकिन इनके अलावा भी कई ऐसी वीरांगनाएं थीं जिन्होंने इस क्रांति में अपने जान की परवाह किए बिना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसी ही एक वीरांगना का नाम है रानी अवंतीबाई।
अवंतीबाई का जन्म 16 अगस्त 1831 में मध्यप्रदेश के सिवनी ज़िले में हुआ था। उनके पिता राजा जुझार सिंह थे। उन्होंने अपनी बेटी को बचपन से ही तलवारबाजी, निशानेबाजी आदि की शिक्षा दिलवाई थी। जब राजकुमारी बड़ी हुई तो राजा ने उनका विवाह रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह लोधी के पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य के साथ हुआ। राजकुमारी अवंती रानी अवंतीबाई बनकर सिवनी से रामगढ़ आ गई।
तब अंग्रेज़ देश की रियासतों को अपने कब्जे में लेने के लिए तरह-तरह के नियम और कानून बना रहे थे। राज्य हड़पने की नीति के तहत जिन राज्यों का कोई बालिग उत्तराधिकारी नहीं था, वे ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कर लिए जाते। इसी क्रम में अंग्रेजों ने मध्यप्रदेश की रियासत रामगढ़ को अपने अधीन करने की योजना बनाई।
रानी का नेतृत्व
साल 1850 में राजा लक्ष्मण सिंह लोधी का निधन हुआ तो रामगढ़ रियासत की बागडोर उनके पुत्र विक्रमादित्य के कंधे पर आ गई। लेकिन विक्रमादित्य का मन राजकाज में कम लगता था। यही कारण था कि राज्य के सारे फ़ैसले रानी अवंतीबाई ही लिया करती थीं। उनके दो पुत्र अमर सिंह और शेर सिंह थे। अभी दोनों पुत्र शैशवावस्था में ही थे कि राजा बीमार हो गए थे। अब दोनों पुत्रों और रामगढ़ की पूरी ज़िम्मेदारी रानी के कंधों पर आ गई। उन्हें राज्य की प्रजा भी बहुत पसंद करती थी। इसकी बहुत सी वजहें भी थीं। एक प्रमुख वजह यह थी कि उन्होंने अपनी प्रजा को यह आदेश दिया था कि वे अंग्रेजों का निर्देश न मानें। अंग्रेज़ी हुकूमत प्रजा को लगान के बोझ तले दबा रही थी।
रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाने पर धावा बोल दिया। वीरतापूर्वक उसे अपने अधिकार में ले लिया, साथ ही रानी की सेना ने घुघरी क्षेत्र पर भी अपना कब्जा कर लिया।
उधर अंग्रेज़ों को राजा के बीमार होने की बात पता चली गई। उन्होंने ‘कोर्ट आफ वॉर्ड्स ऐक्ट’ के तहत कार्रवाई की और राज्य प्रशासन अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। अंग्रेजों ने अपने प्रतिनिधि के रूप में शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त करके रामगढ़ भेजा। अंग्रेजों की इस नीति से रानी पहले से परिचित थीं। उन्होंने उनके दोनों प्रतिनिधियों को खदेड़ कर राज्य से बाहर कर दिया। यह तो महज़ बुरे वक्त की एक शुरुआत भर थी।
साल 1855 में राजा विक्रमादित्य की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। अब राज्य का सारा जिम्मा रानी के सिर आ गया था। वहीं, दूसरी ओर अंग्रेज़ों ने तब तक आस-पास की कई रियासतों का ब्रिटिश साम्राज्य में जबरन विलय कर लियाथा। अब रामगढ़ की बारी थी। जब बात रामगढ़ की रियासत पर आई तो रानी अवंतीबाई ने इसका पुरजोर विरोध किया।
अंग्रेज़ दिनोंदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे। उन्हें रोक पाना किसी एक रियासत के बस की बात नहीं थी। यह बात रानी भी समझती थीं। उन्होंने अच्छे से सोच-विचार कर एक सम्मेलन रामगढ़ में आयोजित किया। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए आसपास के राजाओं, परगनादारों, जमींदारों और बड़े मालगुजारों को आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता मंडला के गोंड राजा शंकर शाह ने की। यह सम्मेलन गुप्त रूप से किया गया था। इसके बारे में किसी को ख़बर नहीं होने दी गई। यहां तक कि जबलपुर के कमिश्नर मेजर इस्काइन और मण्डला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन को भी इस सम्मेलन के बारे में नहीं पता था।
इस गुप्त सम्मेलन में कई निर्णय लिए गए। जैसे कि लोगों को एकजुट करने के लिए प्रचार का काम रानी अवंती बाई को सौंपा गया। प्रचार भी गुप्त रूप से करना था, अंग्रेज़ों को इसके बारे में पता न चले इस बात का पूरी तरह से ध्यान रखना था। प्रचार के लिए यह तरीका चुना गया कि एक पत्र और उसके साथ चूड़ियां गुप्त रूप से राजा-महाराजाओं तक भेजी जाएं। रानी के इस पत्र ने लोगों को झकझोर कर दिया। उनके अंदर की देशभक्ति को जगा दिया। इस आह्वान का लाभ यह हुआ कि आसपास के अधिकांश राजा अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट हो गए। 1857 की क्रांति का आगाज़ हो चुका था।
अंग्रेज 1857 की क्रांति को दबाने की पूरी कोशिश कर रहे थे। 18 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप में बांधकर आग लगा दी। इन दोनों वीरों के बलिदान से अन्य राजाओं के सीने में आग धधक उठी और वे सभी अंग्रेज़ों के खिलाफ उठ खड़े हुए।
23 नवंबर, 1857 को मंडला की सीमा में स्थित खैरी नामक गांव में रानी और अंग्रेजों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन बुरी तरह परास्त हुआ और उसे मंडला से भागना पड़ा।
उधर रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाने पर धावा बोल दिया। वीरतापूर्वक उसे अपने अधिकार में ले लिया, साथ ही रानी की सेना ने घुघरी क्षेत्र पर भी अपना कब्जा कर लिया। मंडला के राजा शंकर शाह की वीरगति के बाद यहां की रक्षा का दायित्व भी रानी अवंतीबाई के जिम्मे आया। उन्होंने यह ज़िम्मेदारी भी अच्छी तरह निभाई।
खैरी का युद्ध
विद्रोह की यह चिंगारी मंडला और रामगढ़ के हर कोने-कोने में फैल गई। अंग्रेज़ इस क्रांति से भयभीत हो रहे थे। डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन की नींद उड़ गई थी। 23 नवंबर, 1857 को मंडला की सीमा में स्थित खैरी नामक गांव में रानी और अंग्रेजों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन बुरी तरह परास्त हुआ और उसे मंडला से भागना पड़ा। अब अंग्रेज़ों ने रानी अवंतीबाई से प्रतिशोध लेने के लिए रीवा के राजा की सहायता से अचानक रामगढ़ पर हमला कर दिया। अंग्रेजों की विशाल सेना का रानी अवंतीबाई ने साहस के साथ मुकाबला किया।
20 मार्च, 1858 को अंग्रेजों की विशाल सेना से रानी अवंतीबाई ने अपने कुछ सैनिकों के साथ साहस और वीरता के साथ युद्ध लड़ा। लेकिन जब रानी को आभास हुआ कि उनकी मौत पास है तो उन्होंने रानी दुर्गावती का स्मरण करके अपनी ही तलवार से खुद की जान ले ली।
ऐसी थीं वीरांगना अवंतीबाई जिनके बलिदान को इतिहास के पन्नों पर वह जगह नहीं मिली जिसकी वह हकदार थीं। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में बने बरगी डैम को रानी अवंतीबाई लोधी का नाम दिया गया है। 20 मार्च, 1988 को भारत सरकार ने रानी अवंतीबाई के नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था।
स्रोतः