समाजकानून और नीति भारत में सिंगल मदर्स के अधिकार और संघर्ष

भारत में सिंगल मदर्स के अधिकार और संघर्ष

कई धार्मिक कानून यह साफ करते है कि पिता के जीवित रहते हुए माँ को प्राकृतिक संरक्षक के दर्जे का दावा नहीं कर सकती है। हालांकि कानून मे पाया गया है कि प्राकृतिक संरक्षता के मुद्दे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 

समाज में जन्म देने वाली माँ को हमेशा सर्वोपरि माना जाता है लेकिन बच्चे के अभिभावक के रूप में पहचान हमेशा पिता के नाम को ही दी जाती है। पितृसत्तात्मक मानसिकता की वजह से एकल माँओं का संघर्ष बहुत कठिन हो जाता है। बच्चे के अभिभावक के रूप में कानून भी पिता को प्राथमिकता देता है। बच्चे के प्राकृतिक अभिभावक के रूप में पिता के बाद माँ को वरीयता दी गई है। 

हिंदुओ के धार्मिक कानून हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट 1956 के तहत एक नाबालिग या संपत्ति के संबंध में एक हिंदू नाबालिग का प्राकृतिक अभिभावक पिता होता है। यानी एक बच्चे का अभिभावक पिता होगा और पिता के जीवनकाल के बाद ही अभिभावक माँ होगी। इस अधिनियम में यह भी कहा गया की पिता ही अभिभावक होगा बशर्ते कि एक नाबालिग जिसकी पांच वर्ष की उम्र पूरी नहीं हुई है उसकी कस्टडी सामान्यतया माँ के पास रहेगी। एक नाबालिग अपने पाँच साल पूरे होने तक माँ के संरक्षण में रहेगा । 

मुस्लिम पर्सनल लॉ, (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम 1937 के तहत संरक्षता के मामले में शरीयत या धार्मिक कानून लागू होगा। इसमें कहा गया है बेटा सात साल की उम्र पूरी नहीं कर लेता और बेटी प्रौढ़ अवस्था प्राप्त नहीं कर लेती तब तक पिता ही प्राकृतिक अभिभावक है। पिता को सामान्य पर्यवेक्षण और नियंत्रण का अधिकार है। मुस्लिम कानून में बाल्यावस्था में बच्चों की कस्टडी के मामले में पिता की जगह माँ को वरीयता देती है।

साल 1999 में गीता हरिहरन ने हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षाता अधिनियम,1956 में बच्चे के अभिभावक के रुप में मां की वरीयता को पिता के बाद रखने के संदर्भ में इस अधिनियम को चुनौती दी।

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम,1890 (द गार्डियन एंड वार्ड एक्ट) प्रतिपाल्य के संरक्षक के अधिकारों और कर्तव्यों को स्थापित करता है। इस अधिनियम के अन्तर्गत संरक्षक होने की जिम्मेदारी नाबालिग के पिता की होती है। नाबालिग की माता के पास भी नाबालिग का संरक्षक होने का सामर्थ्य होता है। इस अधिनियम की धारा 6 खंड (अ) बताती है कि अविवाहित लड़के या लड़की के मामले में एक हिंदू अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षण पिता और उसके बाद माँ है। कई धार्मिक कानून यह साफ करते है कि पिता के जीवित रहते हुए माँ प्राकृतिक संरक्षक के दर्जे का दावा नहीं कर सकती है। हालांकि कानून मे पाया गया है कि प्राकृतिक संरक्षता के मुद्दे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 

साल 1999 में गीता हरिहरन ने हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षता अधिनियम,1956 में बच्चे के अभिभावक के रुप में मां की वरीयता को पिता के बाद रखने के संदर्भ में इस अधिनियम को चुनौती दी। गीता हरिहरन बनाम भारतीय रिजर्व बैंक केस के नाम से जाना जाता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आंशिक राहत प्रदान की थी। गीता हरिहरन ने इस एक्ट को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत लैंगिक समानता की गारंटी के उल्लघंन के लिए चुनौती दी थी। अनुच्छेद 14 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को भारत के क्षेत्र में कानून के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। 

सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘बाद’ शब्द का अर्थ “पिता के जीवनकाल के बाद “नही होना चाहिए बल्कि “पिता की अनुपस्थिति” में होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को एक ऐतिहासिक फैसला माना गया था। हालाकि यह फैसला माता-पिता को समान अभिभावक का दर्जा देने में असफल रहा, इस निर्णय में कोर्ट द्वारा माता की भूमिका को पिता की भूमिका के अधीन कर दिया गया। यदि पिता अनुपस्थित हो तो बच्चे के अभिभावक में वरीयता माता को दी जाएगी। 

सिंगल मदर के अधिकार

भारत में सिंगल मदर को कानून और समाज में अपने हक के लिए कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। भले ही सिंगल मदर को कानून अनुमति देता हो और उसकी पहचान करता हो लेकिन अभी स्पष्ठता की बहुत ज़रूरत है। सिंगल मदर को बच्चे के पिता का नाम न होने की वजह से रजिस्ट्रेशन में देरी का सामना करना पड़ता है। यह सबसे आम समस्या है और सिंगल मदर के अधिकारों को लेकर अज्ञानता भी है। 

सिंगल मदर को निजता का अधिकार दिया जाता है अगर वे अपने बच्चे के पिता के नाम का खुलासा नहीं करना चाहती है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार किसी भी मां का उसके बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए मजबूर करना निजता के अधिकार का उल्लघंन होगा। वही अविवाहित मां को बिना अपने बच्चे के पिता को अनिवार्य नोटिस भेजे अपने बच्चे की एकमात्र अभिभावक के लिए आवेदन करने की अनुमति है। साथ ही जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए पिता के पहचान की भी आवश्यकता नहीं है।

तस्वीर साभारः Scroll

आर राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य दो  मामले में अदालत ने यह माना गया था कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 द्वारा इस देश के सभी नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार में निहित है। यह अकेले रहने का अधिकार है जो एक नागरिक को अन्य मामलों के साथ-साथ अपने घर, परिवार, विवाह, प्रजनन, मातृत्व, बच्चे पैदा करने और शिक्षा की गोपनीयता की रक्षा करने का अधिकार है।

एनडीवीटीवी की छपी ख़बर के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भी एक फैसले में कह चुका है कि किसी भी मां का उसके बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए मजबूर करना निजता के अधिकार का उल्लघंन होगा। अविवाहित मां को बिना अपने बच्चे के पिता के अनिवार्य नोटिस भेजे बच्चे की एकमात्र अभिभावक के लिए आवेदन करने की अनुमति है। साथ ही जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए पिता के पहचान की भी आवश्यकता नहीं है। दरअसल, हिंदू अल्पसंख्यक और अभिभावक अधिनियम,1956, अविवाहित मां के बच्चे के प्राकृतिक अभिभावकों के संबंध में मां को भी प्राथमिकता देता है। यानी पिता की मंजूरी के बिना एक अविवाहित मां अपने बच्चे की एकमात्र कानूनी अभिभावक हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय की यह फैसला एक अविवाहित मां की याचिका पर दिया था। 

केवल माँ का नाम भी है काफी

भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में बच्चे के नाम को पिता से जोड़ा जाता है ऐसी स्थिति में सिंगल मदर और उनकी संतान के सामने नाम के इस्तेमाल को लेकर चुनौती आती है। दस्तावेजों में माँ के नाम के इस्तेमाल को लेकर बीते वर्ष केरल हाई कोर्ट ने कहा था कि अविवाहित माँओं के बच्चे और रेप सर्वाइवर के बच्चे भी इस देश के मौलिक अधिकार निजता, आज़ादी और सम्मान के साथ रहने के हकदार हैं। याचिकाकर्ता ने अदालत ने जन्मप्रमाण पत्र से पिता का नाम हटाकर माँ नाम शामिल करने की मांग की थी।

सिंगल मदर को निजता का अधिकार दिया जाता है अगर वे अपने बच्चे के पिता के नाम का खुलासा नहीं करना चाहती है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार अगर किसी भी मां का उसके बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए मजबूर करना निजता के अधिकार का उल्लघंन होगा।

ठीक इसी तरह केरल हाई कोर्ट के अन्य फैसले में कहा था कि यदि कोई अविवाहित या तलाकशुदा महिला गर्भधारण करके मां बनती है तो उससे उसके बच्चे के पिता के बारे में समाज द्वारा उस महिला से सवाल पूछे जाए, यह अधिकार समाज के पास नही है। यह उस महिला के और उसके बच्चे के सम्मान विरुद्ध माना जायेगा। इसके साथ ही अदालत ने ऐसे बच्चों के लिए अलग से जन्म प्रमाण पत्र फॉर्म भी जारी करने का आदेश दिया था। यह फैसला एक तलाकशुदा महिला की याचिका पर सुनाया गया था जो आईवीएफ तकनीकी से आठ माह की गर्भवती थी। 

इसी प्रकार भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मां के उपनाम इस्तेमाल करने के हक में आदेश दे चुकी है। द वायर में छपी ख़बर के अनुसार एक महिला के पास अपने बच्चे का उपनाम तय करने का अधिकार है। एक अन्य फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरनेम के मामले कहा गया कि प्रत्येक बच्चे को अपनी मां का सरनेम या उपनाम इस्तेमाल करने का अधिकार है। यह फैसला अदालत द्वारा एक नाबालिग लड़की के पिता की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की गई थी। उच्च न्यायालय ने कहा कोई पिता अपने बेटी पर यह नही थोप सकता की वह सिर्फ उसके नाम का इस्तेमाल करे। किसी भी पिता को यह अधिकार नही है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 4.5% परिवार को सिंगल मदर्स चला रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 13 मिलियन सिंगल मदर्स हैं जिनका परिवार पूरी तरीके से उनपर निर्भर है। इससे अलग 32 मिलियन सिंगल मदर्स ऐसी हैं जो संयुक्त परिवार में रह रही हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि भारत में बड़ी संख्या में अकेली माएं हैं। यहां सिंगल माँ को बच्चे को जन्म देने से लेकर गोद लेने और उनके संरक्षण का अधिकार है। समय-समय पर अदालतें भी उनके अधिकारों के संरक्षण और एकल माँओं के साथ होने वाले भेदभाव को दूर करने का काम करती नज़र आती है। 


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