इतिहास ख़ानज़ादा बेग़मः मुग़ल साम्राज्य की एक कुशल कूटनीतिज्ञ| #IndianWomenInHistory 

ख़ानज़ादा बेग़मः मुग़ल साम्राज्य की एक कुशल कूटनीतिज्ञ| #IndianWomenInHistory 

ख़ानज़ादा, संदेशवाहिका की भूमिका निभाते हुए खुद भी राजनीतिक और कूटनीति को बेहतर तरीके से जानने लगी थीं। आगे चलकर बाबर अपनी नानी के साथ-साथ उनकी सलाह को भी महत्व देने लगा था। 

ख़ानज़ादा बेग़म मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की बड़ी बहन थीं। उन्हें ‘पादशाह बेगम’ की उपाधि दी गई थीं। वह मुगल साम्राज्य की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में से एक थीं। ख़ानज़ादा बेगम सूझबूझ से भरी और राजनीति की बेहतर समझ रखने वाली महिला थीं। 

शुरुआती जीवन

ख़ानज़ादा बेग़म का जन्म 1478 में अंदिझन, फरगाना में हुआ था। वह अमीर उमर शेख मिर्जा द्वितीय की सबसे बड़ी बेटी थी। उनकी माता का नाम कुलतुग निगार खानम था जो मंगोलियन राजकुमारी थीं। बाबर और ख़ानज़ादा बेग़म की उम्र में पांच बरस का अंतर था। मुग़ल साम्राज्य की नींव को मजबूत करने में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

ख़ानज़ादा बेगम हरम और दरबार के जुड़ने की एक मजबूत कड़ी बन गई थीं। साथ ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और व्यवहार कुशलता ने उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करवाया था। वह मुगलकाल की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक थीं।

बाबर के जीवन में निभाई अहम भूमिका 

जब बाबर ने सत्ता संभाली उनकी उम्र बहुत कम थी। तब उनकी नानी एहसान दौलत खानम पर्दे के पीछे रहकर सत्ता की सूत्रधार थी। बाबर की कम उम्र को ध्यान में रखकर वह फरगना में ही उसकी मदद के लिए रुक गई थी ताकि सत्ता संभालने में उसकी मदद कर सके। बाबर और नानी के बीच संवाद का काम उनकी बड़ी बहन ने ही किया। ख़ानज़ादा, संदेशवाहिका की भूमिका निभाते हुए खुद भी राजनीतिक और कूटनीति को बेहतर तरीके से जानने लगी थीं। आगे चलकर बाबर अपनी नानी के साथ-साथ उनकी सलाह को भी महत्व देने लगा था। 

इसी के साथ वह बड़ी बहन होने के नाते बाबर की संरक्षिका की भूमिका में भी आ गई थी। जब कभी नानी और उनके भाई के बीच में कोई राजनीति मनमुटाव होता तो वह बीच में आकर बात को संभालती थी। बाबर के पैतृक राज्य को बचाने में वह केंद्रीय भूमिका में रही थी। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया उनका अपने भाई के साथ रिश्ता बहुत मजबूत हो गया था।

वह सैन्य अभियानों में भी हिस्सा लेने लगी थी। जब बाबर अपने पूर्वज, अमीर तैमूर की राजधानी पर आधिपत्य के लिए सैन्य अभियान पर निकला तब उसके साथ हरम की सारी महिलाएं भी साथ गई थी जिसमे सर्वप्रमुख ख़ानज़ादा बेगम भी शामिल थी। वह हरम और दरबार के जुड़ने की एक मजबूत कड़ी बन गई थी। साथ ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और व्यवहार कुशलता ने उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करवाया था। वह मुगलकाल की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक थीं।

प्रशासन में निभाई केंद्रीय भूमिका

शासन-प्रशासन में उन्होंने केंद्रीय भूमिका प्राप्त कर ली थी। मुग़लों की तत्कालीन राजनीति में देखते-देखते वह अपनी नानी से भी ज्यादा प्रभावशाली हो गई थी। उनकी प्रखरता, प्रभाव, व्यक्तित्व और भूमिका की बातें धीरे-धीरे पूरे मध्य एशिया में फैलने लगी थी। आगे चलकर उनकी प्रतिभा की वजह से उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। बाबर ने ख़ानजादा के द्वारा सहे हुए अपमान को सारी उम्र अपना व्यक्तिगत अपमान समझा और बाद में हर प्रकार से उनको सुख सुविधा पद गरिमा विशेषाधिकार आदि प्रदान करने का भी प्रयास किया। 

सत्ता के लिए दिया अपना बलिदान

जब बाबर का उज्बेग नेता शायबानी खान के साथ समरकंद की सत्ता को लेकर युद्ध हुआ था तब बाबर की सेना की बुरी स्थिति आ गई थी। खान ने समरकंद से मुग़ल सेना को सुरक्षित निकल जाने के लिए के लिए उनके सामने कई शर्ते रखी थी। इसमें से एक थी कि वह ख़ानज़ादा बेगम से शादी करना चाहता था। इस घटना का मुगलकालीन इतिहास की एक सशक्त हस्ताक्षर, गुलबन बेगम की लिखी ‘हूंमायुनामा’ में भी वर्णन किया गया है। किताब के मुताबिक़ वह शायबानी खान की विजय ट्राफी के रूप में उनकी पत्नी बनने को बाध्य हुई और समस्त चुगताई तुर्को के लिए अपमान का घूंट बनी। 

मिर्जा हैदर दोगलात जो बाबर का चचेरा भाई था उसने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘तारीख रशीदी’ में गुलबन की बात की पुष्टि की है। वह भी लिखता है कि बाबर की प्राण रक्षा के सौदे के रूप में ख़ानज़ादा बेगम का विवाह बर्बर समझे जाने वाले उज्बेग नेता शायबानी खान से जबरदस्ती हुआ था। वह इस रिश्ते को बा-तारीख-फायदा घोषित करता है अर्थात छुड़ाई की रकम या संपत्ति/वस्तु मानता है। विवाह के समय उनकी उम्र मात्र 23 वर्ष थी। हालांकि उन दोनों का विवाह सफल नहीं हुआ था। शादी के बाद भी वह का मुग़लों का पक्ष लेना नहीं छोड़ पाई। इस बात को खान अपना अपमान समझता था और आखिर में उनको तलाक दे दिया। ख़ानज़ादा को सबक सिखाने की नीयत से अपने हरम से निकालकर एक सिपाही सैय्यद हाडा से उसका विवाह कर दिया गया।

ख़ानज़ादा ने हमेशा मुग़ल साम्राज्य पर आए हर खतरे का सामना किया और उसका समाधान निकाला। इसी प्रकार बाबर की मृत्यु के समय बाबर के प्रसिद्ध वजीर, मीर खलीफ़ ने हुमायूं के स्थान पर मेंहदी ख्वाजा को जब नया बादशाह बनाने की साजिश की थी तब भी उन्होंने अपने कूटनीतिक तरीके से मुगल साम्राज्य और राजवंश की रक्षा की थी।

ख़ानज़ादा बेगम का दूसरा विवाह

ख़ानज़ादा बेगम ने इन सबके बाद भी हार नही मानी और बेहद चतुराई और कूटनीति से काम लेते हुए सैय्यद हाडा को उसके मालिक शयबानी के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए खड़ा कर दिया। हालांकि युद्ध में हाडा की मौत हो गई। युद्ध के परिणाम के बाद वह ईरान के शाह इस्माइल के सैनिकों से जा मिली। वहां अपना परिचय देने के बाद 1511 में उन्हें बाबर के पास भिजवा दिया गया। पूरे दस साल बाद वह अपने मूल परिवार से अलग रही थी। इसके बाद उसका निकाह बाबर ने अपने एक बेग मेंहदी मुहम्मद ख्वाजा से कर दिया। 

एक बार फिर मुग़ल साम्राज्य के संकट को टाला

ख़ानज़ादा ने हमेशा मुग़ल साम्राज्य पर आए हर खतरे का सामना किया और उसका समाधान निकाला। इसी प्रकार बाबर की मृत्यु के समय बाबर के प्रसिद्ध वजीर, मीर खलीफ़ ने हुमायूं के स्थान पर मेंहदी ख्वाजा को जब नया बादशाह बनाने की साजिश की थी तब भी उन्होंने अपने कूटनीतिक तरीके से मुगल साम्राज्य और राजवंश की रक्षा की थी। राजनीति में अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करते हुए अपने पति मेंहदी मुहम्मद ख्वाजा को वजीर मीर खलीफा का साथ न देने की सलाह दी। मेंहदी ख्वाजा को अपने प्रभाव में कर लिया। मेंहदी ख्वाजा ने भी वजीर मीर खलीफ़ को अपने पत्नी खानजादा के प्रभाव में आकर उसे विश्वासघाती करार दिया। 

उन्होंने हमेशा अपने भाई बाबर और उसके वंश को सत्ता में बनाए रखने के लिए काम किया। बाबर की मृत्यु के कुछ समय बाद जब उसके चारों पुत्रो में सत्ता का संघर्ष हुआ तब भी अपनी पारिवारिक एकता को बनाए रखने में उन्होंने हर संभव प्रयास किया। चारों पुत्रो में हो रहे उत्तराधिकारी युद्ध को टालने की लिए एक निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती रही।

1545 में ख़ानज़ादा बेगम की मुत्यु हुई थी। मुत्यु के बाद पहले उनके शरीर को कबल-चक में दफनाया गया था। तीन महीने बाद काबुल में बाबर के बराबर में उनको भी दफनाया गया। इस जगह को ‘बाग-ए-बाबर’ के नाम से जाना जाता है। हर स्थिति में वह साम्राज्य को बचाने के लिए समर्पित रही। उनका यह काम मृत्यु तक चलता रहा। ख़ानज़ादा बेगम के इस संघर्ष की चर्चा हालांकि इतिहास में बेहद कम की गई है। 


संदर्भ –

  1. दास्तान मुगल बादशाहों की, हेरंब चतुर्वेदी।
  2. विकीपीडिया

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