इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ ट्रांस महिला भी घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत सुरक्षा की हकदार: बॉम्बे हाई कोर्ट

ट्रांस महिला भी घरेलू हिंसा ऐक्ट के तहत सुरक्षा की हकदार: बॉम्बे हाई कोर्ट

इस केस में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी, जो कि एक ट्रांस महिला हैं, उन्हें दिए गए भरण-पोषण को चुनौती दी थी। लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अमित बोरकर ने व्यक्ति की याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही इसमें कहा गया था कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति, जिसने अपने जेंडर को महिला में बदलने के लिए सर्जरी करवाई है, उसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 2 (a) के अनुसार ‘पीड़ित व्यक्ति’ माना जाना चाहिए।

बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में एक केस में फैसला सुनाया है कि एक ट्रांस महिला, जिनकी जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी हुई है, उन्हें घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के तहत घरेलू हिंसा के मामले में अंतरिम रखरखाव की मांग करने का अधिकार है, और उन्हें अधिनियम के अंतर्गत ‘पीड़ित व्यक्ति’ माना जा सकता है।

इस केस में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी, जो कि एक ट्रांस महिला हैं, उन्हें दिए गए भरण-पोषण को चुनौती दी थी। लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस अमित बोरकर ने व्यक्ति की याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही इसमें कहा गया था कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति, जिसने अपने जेंडर को महिला में बदलने के लिए सर्जरी करवाई है, उसे घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 2 (a) के अनुसार ‘पीड़ित व्यक्ति’ माना जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे व्यक्ति को अपनी खुद की पहचान, लिंग तय करने का अधिकार है और वह अधिनियम के तहत सुरक्षा का हकदार है।

हाई कोर्ट ने आगे कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का प्राथमिक उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा है। अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा से बचाना है। इस संदर्भ में, अधिनियम की धारा 2(a) के तहत ‘पीड़ित व्यक्ति’ शब्द की व्यापक व्याख्या की जानी चाहिए। अदालत ने कहा कि ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा को अधिनियम के उद्देश्य और आशय के साथ करने के लिए व्यापक संभव शब्दों में व्याख्या की जानी चाहिए।

क्या है पूरा केस

सर्वाइवर महिला ने 1 जून 2016 को अपनी जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी करवाई थी। 21 जुलाई 2016 को उसने शादी की। आगे चलकर महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधान के तहत आपराधिक आवेदन दायर किया। कार्यवाही में सर्वाइवर महिला ने कोर्ट के सामने अंतरिम रखरखाव की मांग की। जूडिशल मजिस्ट्रेट ने उसे पति को अपनी पत्नी को हर महीने 12,000 रुपये का गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपील पर इसे बरकरार भी रखा था। इसके खिलाफ पति ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

हाई कोर्ट ने आगे कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का प्राथमिक उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा है। अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं को परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा से बचाना है।

याचिकाकर्ता पति ने इस संबंध में तर्क दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम में दी गई परिभाषा के तहत सर्वाइवर महिला एक ‘पीड़ित व्यक्ति’ नहीं थी, क्योंकि इसमें केवल वे महिलाएं शामिल हैं जो घरेलू संबंध में हैं। इसके अतिरिक्त, उसने दावा किया कि सर्वाइवर महिला के पास ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 7 के तहत प्रमाणपत्र नहीं था और इसलिए उन्हें डीवी अधिनियम के तहत एक महिला के रूप में नहीं माना जा सकता था। साथ ही याचिकाकर्ता की आय के पुख्ता सबूत के अभाव में, 12,000/- रुपये प्रति माह के भुगतान के आदेश को उचित नहीं ठहराया जा सकता।

याचिकाकर्ता के तर्क के जवाब में, सर्वाइवर महिला ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट  ने पहले ही एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के अधिकार को मान्यता दे दी है कि उन्हें उनके दोबारा असाइन किए गए जेंडर के आधार पर उनकी लैंगिक पहचान की मान्यता दी जाए। इसलिए, एक ट्रांसजेंडर महिला जिसने जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी करवाई है, उसे भी घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (ए) के तहत ‘पीड़ित व्यक्ति’ माना जाना चाहिए। अदालत के सामने मुख्य मुद्दा यह था कि क्या एक ट्रांसजेंडर महिला, जिसकी जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी हुई है, को घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत ‘पीड़ित व्यक्ति’ माना जा सकता है।

इस संबंध में अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2(f), जो घरेलू संबंधों को परिभाषित करती है, जेंडर-न्यूट्रल है। इसके साथ ही अदालत ने कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, धारा 2 (k) के तहत, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को परिभाषित करता है, भले ही उनकी जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी हुई हो या नहीं। उसी अधिनियम की धारा 7 एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपना लिंग बदलने के लिए एक मजिस्ट्रेट के सामने एक आवेदन दायर करने के लिए सर्जरी करवाने के लिए सक्षम बनाती है।

अदालत ने यह भी कहा कि जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (a) में ‘महिला’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, इसका इस्तेमाल अधिनियम के दायरे को कम करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। नैशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फैसले (ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता) का उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति जो जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी से गुजरे हैं, वे अपनी लैंगिक पहचान चुनने के हकदार हैं। 

तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर  व्यक्ति ने अपनी लैंगिक विशेषताओं और धारणा के अनुसार अपना लिंग परिवर्तन किया है, जो चिकित्सा विज्ञान में प्रगति के कारण संभव हो गया है, और जब चिकित्सा नैतिकता द्वारा बिना किसी कानूनी प्रतिबंध के इसकी अनुमति दी जाती है, तो हमें कोई कानूनी या अन्य किसी प्रकार की रुकावट नहीं मिलती है, जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी से गुज़रने के बाद दोबारा असाइन किए गए जेंडर के आधार पर लैंगिक पहचान को उचित मान्यता देने में। इसलिए, एक ट्रांसजेंडर महिला, जिसने जेंडर रिअफर्मेशन सर्जरी कराई है, घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (ए) के तहत ‘पीड़ित व्यक्ति’ माने जाने की हकदार है।

घरेलू हिंसा अधिनियम में शब्द ‘पीड़ित व्यक्ति’ की व्यापक व्याख्या ज़रूरी

इस केस में अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य घरेलू हिंसा की सर्वाइवर महिलाओं को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करना है। इसलिए, अधिनियम की धारा 2 (a) के तहत ‘पीड़ित व्यक्ति’ की परिभाषा को व्यापक संभव शब्दों में व्याख्या करने की ज़रूरत है। घरेलू हिंसा को केवल भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी मानव अधिकारों के मुद्दे और विकास के लिए एक गंभीर बाधा के रूप में मान्यता दी गई है। 

अदालत ने यह भी कहा कि जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (a) में ‘महिला’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, इसका इस्तेमाल अधिनियम के दायरे को कम करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 जैसे कानून को पारित करने की ज़रूरत इसीलिए पड़ी क्योंकि भारत में मौजूदा नागरिक कानून एक ऐसी महिला को संबोधित करने के लिए अपर्याप्त था जो अपने पति और उनके परिवार के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता के अधीन थीं। इसलिए, अधिनियम के उद्देश्य और आशय के अनुरूप पीड़ित व्यक्तियों की परिभाषा की व्याख्या करते समय, ऐसी परिभाषा की व्यापक संभव शब्दों में व्याख्या करने की ज़रूरत है।

अदालत ने फैसला देते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट के फैसले से ‘मिसकैरिज ऑफ़ जस्टिस’ नहीं हुआ है, जिसमें एक व्यक्ति को अपनी अलग रह रही पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था। अदालत ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि एक व्यक्ति की खुद की पहचान वाले जेंडर को मान्यता दी जानी चाहिए, और उन्हें घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा का अधिकार होना चाहिए, भले ही जन्म के समय उनके जैविक लिंग को निर्दिष्ट किया गया हो।


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