समाजकानून और नीति घरेलू हिंसा के मामलों के लिए ‘संरक्षण अधिकारियों’ की कमी और 4 लाख से अधिक पेडिंग केस!

घरेलू हिंसा के मामलों के लिए ‘संरक्षण अधिकारियों’ की कमी और 4 लाख से अधिक पेडिंग केस!

चुनौती यह है कि इस अधिनियम के लागू होने के 17 सालों के बाद भी इस अधिनियम का कार्यान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो रहा है। पिछले साल के NALSA के आंकड़ों के अनुसार भारत में घरेलू हिंसा के लगभग 4.71 लाख पेंडिंग केस हैं।

एक सरकारी दस्तावेज से यह आंकड़ा सामने आया है कि भारत के 801 ज़िलों में घरेलू हिंसा के लगभग 4 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिनों पहले कड़ा रुख अपनाया है। कोर्ट ने सभी राज्यों के प्रमुख सचिवों के साथ वित्त, गृह और बाल व महिला विकास विभागों के केंद्रीय सचिवों की बैठक का आदेश दिया। कोर्ट ने तीन सप्ताह के भीतर बैठक करने का आदेश दिया है। संघ और राज्य सरकारों के सचिवों की बैठकों में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के अध्यक्ष द्वारा नामित व्यक्ति भी शामिल होंगे। पीठ ने तीन सप्ताह के भीतर उपर्युक्त बैठक करने का आदेश दिया ताकि कार्यान्वयन संबंधी खामियों को दूर किया जा सके और यह तय किया जा सके कि घरेलू हिंसा के सर्वाइवर्स के लिए अतिरिक्त सुरक्षा अधिकारी और वन-स्टॉप सेंटर हो सकते हैं या नहीं। 

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस आर भट और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि हर ज़िले के लिए एक प्रोटेक्शन ऑफिसर है। हर प्रोटेक्शन ऑफिसर के पास लगभग 600 से अधिक मामले होंगे, जो कि एक व्यक्ति के लिए संभालना लगभग नामुमकिन है। ऐसा तब है जब एक प्रोटेक्शन ऑफिसर को एक गहन कर्तव्य का निर्वहन करना होता है। इसमें मजिस्ट्रेट की सहायता के लिए लगातार ऑन-द-स्पोर्ट सर्वेक्षण और निरीक्षण करना भी शामिल है। वे पीड़ित, पुलिस और न्यायिक प्रक्रिया के बीच इंटरफेस की तरह काम करते हैं।

प्रोटेक्शन ऑफ़िसर (संरक्षण अधिकारी) कौन हैं?

प्रोटेक्शन ऑफ़िसर (संरक्षण अधिकारी), घरेलू हिंसा के सर्वाइवर्स और व्यवस्था यानी पुलिस, वकील और अदालतों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। संरक्षण अधिकारी घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 द्वारा या उसके अधीन उसको प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हैं। उनकी भूमिका घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करने, वकीलों से जुड़ने और अदालत में मामला दर्ज करने की प्रक्रिया में सर्वाइवर्स की मदद करना है। ज़रूरत पड़ने पर वे सर्वाइवर की मेडिकल जांच करवाने में भी मदद करते हैं। ये अधिकारी हर ज़िले में राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। अधिकतर, प्रोटेक्शन ऑफ़िसर महिलाएं ही होती हैं।

घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करने की कोशिश करनेवाली किसी भी महिला के लिए सुरक्षा अधिकारी से संपर्क करना अनिवार्य नहीं होता है। उसके पास वकील के माध्यम से सीधे मैजिस्ट्रेट के पास जाने का विकल्प होता है। हालांकि, अगर कोई शिकायतकर्ता पहले पुलिस, अदालत, अस्पताल, आश्रय गृह या गैर-सरकारी संगठन से संपर्क करता है तो कानून का प्रावधान यह है कि इन हितधारकों को महिला को एक सुरक्षा अधिकारी के संपर्क में रखना होगा।

संरक्षण अधिकारी की पहली भूमिका सर्वाइवर महिला को उसके अधिकारों की जानकारी देना और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना है। यह सुनिश्चित करना संरक्षण अधिकारी का काम है कि घटना की रिपोर्ट दाखिल करने के दौरान महिला और उसके बच्चों पर दबाव नहीं डाला जाए। अगर न्यायालय आदेश देता है, तो संरक्षण अधिकारी से यह भी उम्मीद की जाती है कि वह घर का दौरा करेगा, आर्थिक स्थिति रिपोर्ट लिखेगा और महिला को अपने बच्चों या अपमानजनक घर से सामान वापस लेने में मदद करेगा। सही मायनों में देखा जाए तो प्रोटेक्शन ऑफिसर्स किसी भी घरेलू हिंसा की घटना का बारीकी से निरीक्षण करते हैं।

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 जो अक्टूबर 2006 में लागू हुआ घरेलू हिंसा की सर्वाइवर्स महिलाओं को सलाह लेने, शिकायतें दर्ज करने और मजिस्ट्रेट तक पहुंचने में एक ‘नेटवर्क सहायता’ प्रदान करता है। इस ऐक्ट के कार्यान्वयन के लिए अधिनियम ने प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की एक भूमिका तय की हुई है।

प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की नियुक्ति कैसे होती है?

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 8 के अनुसार राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, हर जिले में उतने संरक्षण अधिकारी नियुक्त करेगी जितने वह ज़रूरी समझे और वह उन क्षेत्र या क्षेत्रों को भी अधिसूचित करेगी जिनके भीतर संरक्षण अधिकारी इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन उसको प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करेगा। ऐक्ट की धारा 3 के अनुसार राज्य सरकार संरक्षण अधिकारी को अधिनियम और इन नियमों के तहत उसके कार्यों के कुशल निर्वहन के लिए आवश्यक ‘ऑफिस असिस्टेंस’ प्रदान करेगी। साथ ही प्रोटेक्शन ऑफिसर्स के लिए सोशल सेक्टर में तीन साल का अनुभव होना अनिवार्य है। ये ऑफिसर्स सरकारी या गैर-सरकारी संगठन के हो सकते हैं। हर ऑफिसर कार्यकाल कम से कम तीन साल का होना चाहिए।

कैसे प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की गैरमौजूदगी पेडिंग केस में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है?

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 जो अक्टूबर 2006 में लागू हुआ घरेलू हिंसा की सर्वाइवर्स महिलाओं को सलाह लेने, शिकायतें दर्ज करने और मजिस्ट्रेट तक पहुंचने में एक ‘नेटवर्क सहायता’ प्रदान करता है। इस ऐक्ट के कार्यान्वयन के लिए अधिनियम ने प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की एक भूमिका तय की हुई है। लेकिन चुनौती यह है कि इस अधिनियम के लागू होने के 17 सालों के बाद भी इस अधिनियम का कार्यान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो रहा है। पिछले साल के NALSA के आंकड़ों के अनुसार भारत में घरेलू हिंसा के लगभग 4.71 लाख पेंडिंग केस हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए दिशा-निर्देशों की मांग करने वाले एनजीओ ‘वी द वुमन’ द्वारा दायर याचिका में यह आंकड़े दिए गए थे। 

प्रोटेक्शन ऑफ़िसर (संरक्षण अधिकारी), घरेलू हिंसा के सर्वाइवर्स और व्यवस्था यानी पुलिस, वकील और अदालतों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। संरक्षण अधिकारी घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 द्वारा या उसके अधीन उसको प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हैं।

इस अधिनियम के सही तरीके से लागू न होने की एक बड़ी वजह है प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की कमी। प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की नियुक्ति की प्रक्रिया राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना के ज़रिये पूरी करनी होती है। लेकिन राज्य सरकार समय पर इनकी नियुक्ति नहीं करती जिसके कारण मौजूदा ऑफिसर्स पर काम का बोझ अधिक हो जाता है। इन प्रोटेक्शन ऑफिसर्स पर काम का इतना बोझ डाल दिया जाता है कि समय पर केस ख़त्म करना और जल्द से जल्द उसका निवारण करना मुश्किल हो जाता है। फील्ड में जाना, पूरी रिपोर्ट तैयार करना, पीड़ित की मदद करना आदि जैसे काम के लिए समय चाहिए होता है। नतीजतन घरेलू हिंसा के मामलों को समय पर पूरा करना संभव नहीं हो पाता।

जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम में सुरक्षा अधिकारियों के कर्तव्यों को बताते हुए स्पष्ट रूप से यह भी प्रावधान है कि राज्य सरकार इन ऑफिसर्स की मदद के लिए ‘ऑफिस असिस्टेंस’ आवश्यक प्रदान करेगी क्योंकि जमीन पर उनका कामकाज समस्याओं से भरा हुआ है जो अक्सर इन ऑफिसर्स को समय पर पूर्ण रिपोर्टिंग करना असंभव बना देता है। संरक्षण अधिकारियों का प्राथमिक काम घरेलू हिंसा के मामलों को संभालना होता है, लेकिन वे भी अक्सर माध्यमिक जिम्मेदारियों से भरे होते हैं। ऐसे में घरेलू हिंसा के मामलों को निपटाने में काफी समय लगता है। नतीजतन कोर्ट में घरेलू हिंसा के केस दिन-ब-दिन बढ़ रहे हैं।

चुनौती यह है कि इस अधिनियम के लागू होने के 17 सालों के बाद भी इस अधिनियम का कार्यान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो रहा है। पिछले साल के NALSA के आंकड़ों के अनुसार भारत में घरेलू हिंसा के लगभग 4.71 लाख पेंडिंग केस हैं।

अधिकतर राज्यों में यह स्थिति है कि अगर प्रोटेक्शन ऑफिसर्स पूर्णकालिक सरकारी अधिकारी हैं, तो भी उन्हें शायद ही कभी घरेलू हिंसा के मामलों पर अपना पूरा ध्यान देने की अनुमति दी जाती है। घरेलू हिंसा के सर्वाइवर्स के लिए, सुरक्षा अधिकारियों के बंटे हुए ध्यान का मतलब है कि उन्हें शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया में अनुचित देरी का सामना करना पड़ता है। कुछ मौकों पर तो यह स्थिति है कि केवल मुख्य फॉर्म भरने और जमा करने में 60 दिन लग जाते हैं। सरकारी वेबसाइट पर सभी ऑफिसर्स की लिस्ट और फ़ोन नंबर अक्सर उपलब्ध नहीं हैं। इस कारण सर्वाइवर महिलाओं के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उन्हें यह नहीं पता होता कि वे किसके पास जाएं और प्रोटेक्शन लें।

इसे कैसे बेहतर किया जा सकता है? 

लंबित मामलों की  लिस्ट देखते हुए इतने ऑफिसर्स नियुक्त किए जाएं ताकि सभी पर अधिक भार न आए। इन ऑफिसर्स की पूरी लिस्ट महिला कल्याण एंड बाल विभाग की वेबसाइट पर उब्लब्ध कराई जाए। इसमें उनका संपर्क नंबर भी मौजूद हो ताकि किसी भी परेशानी की स्थिति में सर्वाइवर महिला सीधे इनसे संपर्क कर सके। डेस्क जॉब और फील्ड सर्वेक्षण के लिए अलग-अलग ऑफिसर्स हो ताकि कार्य समय पर पूरा किया जा सके।

साथ ही इन अधिकारियों के असिस्टेंस के लिए एक सहायक भी उपलब्ध करवाए जाए। इन ऑफिसर्स को काम की ट्रेनिंग दी जाए क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कुछ सुरक्षा अधिकारी स्वयं कानून के तहत प्रक्रियाओं के बारे में स्पष्ट नहीं हैं। ऐसा देखा गया है कि कुछ प्रोटेक्शन ऑफिसर्स समझौते की सोच के साथ काम करते हैं। ऐसे में वे घरेलू हिंसा के केस में यही कोशिश में लगे रहते हैं कि सर्वाइवर महिला अपने हिंसक साथी के साथ ‘एडजस्ट’ कर ले। यह सोच सर्वाइवर को हिंसा के बावजूद भी उसी घर में रहने को मजबूर करता है। साथ ही प्रोटेक्शन ऑफिसर्स की समय पर नियुक्ति इस समस्या का सबसे सही उपाय नज़र आती है।


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