इतिहास ज़िक्र बेग़म अख़्तर की ज़िंदगी और गायिकी के अहम पहलूओं का

ज़िक्र बेग़म अख़्तर की ज़िंदगी और गायिकी के अहम पहलूओं का

उन दिनों गाने वालियों को इज्ज़तदार नहीं माना जाता था। अख़्तरीबाई उस समय बहुत मशहूर थीं। वह निजी महफ़िलों में भी जाती थीं। दिलचस्प बात यह है कि इन महफ़िलों में सिर्फ मर्द होते थे। घर की औरतों का महफ़िल में शामिल होना तो दूर की बात है, झरोखों से समारोह को देखने तक की उन्हें इज़ाज़त नहीं थी।  

“कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया/ कुछ तल्खिए हालात ने दिल तोड़ दिया।” बेग़म अख़्तर जब यह गाती हैं, तब इसका एक-एक शब्द उनकी ज़िंदगी की कहानी बयां कर रहा होता है। वह कहानी जो तमाम उदास और चटख रंगों में डूबी हुई है, जिसमें बहुत सी आड़ी-तिरछी लाइनें खिंची हुई हैं।  

इस कहानी की शुरुआत होती है साल 1914 में। फैज़ाबाद की नामी-गिरामी तवायफ़ मुश्तरीबाई के घर एक बेटी ने जन्म लिया था। उन्होंने अपनी बेटी का नाम ‘बिब्बी’ रखा। वह चाहती थीं कि उनकी बेटी शास्त्रीय संगीत सीखे। इसके लिए उन्होंने अपनी बेटी बिब्बी को पटियाला घराने के उस्ताद अता मुहम्मद खां के सुपुर्द कर दिया। साल बीतते गए और नन्ही निब्बी अख़्तरीबाई बन गई। साल 1938 के आसपास मुश्तरीबाई ने एक कोठा लखनऊ के हजरतगंज में बनाया। उस समय तवायफों के कोठे चौक बाज़ार में हुआ करते थे। मगर मुश्तरीबाई ने पुरानी रिवायत को तोड़कर अपनी बेटी के लिए अख़्तर मंज़िल की नींव डाली।  

यतीन्द्र मिश्र अपने लेख अख़्तरीनामा में इस बात का ज़िक्र करते हैं कि अख़्तरीबाई पहली ऐसी दबंग महिला के रूप में संगीत के इतिहास में जानी जाएंगी, जिन्होंने एक झटके में उस पुरानी रिवायत को तोड़ डाला था। बाकी तवायफ़ों की तरह कोठा बसाने का लिए वह चौक नहीं गईं। उन्होंने बाकी गानेवालियों से खुद को अलग किया। लीक पर चलनेवाली उस महफ़िली रवायत से भी खुद को अलग किया, जो एक हद तक बदनाम बस्तियों का तमगा लिए होती थी।”

सलीम किदवई अपने लेख ‘ज़िक्र उस परीवश’ में लिखते हैं, “वे (अफ़सर, जज-मुंसिफ, पैसे वाले व्यापारी आदि) मुश्तरी से मिलते और अख़्तरी की महफ़िल के बुलावे की उम्मीद में अनाज, मिठाईयां, बेहतरीन फल-सब्जियां, शिकार या मछली की सौगात छोड़ जाते। अख़्तरी की कशिश और मुश्तरी के बंदोबस्त के चलते महफ़िल में सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित, चुनिंदा मेहमान ज़रूर रहते, अनचाहे मेहमान दूर ही रखे जाते और बेहूदगी कभी न हो पाती थी।”

फैज़ाबाद में बेग़म अख्तर का पुश्तैनी मकान, स्रोत- Wikimedia Commons
फैज़ाबाद में बेग़म अख्तर का पुश्तैनी मकान, स्रोत- Wikimedia Commons

उन दिनों गाने वालियों को इज्ज़तदार नहीं माना जाता था। अख़्तरीबाई उस समय बहुत मशहूर थीं। वह निजी महफ़िलों में भी जाती थीं। दिलचस्प बात यह है कि इन महफ़िलों में सिर्फ मर्द होते थे। घर की औरतों का महफ़िल में शामिल होना तो दूर की बात है, झरोखों से समारोह को देखने तक की उन्हें इजाज़त नहीं थी।  

इज्ज़तदार खानदान की बहू बनने की ख़्वाहिश

इतना नाम होने के बाद भी बेग़म अख़्तर एक ख्वाहिश थी जो अभी अधूरी थी। वह किसी इज्ज़तदार घराने में अपना निकाह करना चाहती थीं। सलीम किदवई अपने लेख में लिखते हैं, “उन्हें खूब पता था कि कोठे से कोठी में जाएंगी तो ज़िंदगी में पेशे के तौर पर गाने की कोई गुंजाइश नहीं होगी, क्योंकि गानेवालियों को इज़्ज़तदार नहीं माना जाता था। बेग़म यह कुर्बानी देने को तैयार थीं। साल 1944 में लखनऊ के पास के इलाके काकोरी के तालुकेदार खानदान के इश्तियाक अहमद अब्बासी से उन्होंने निकाह किया। वह पेशे से वकील थे।अख़्तरी जो कि अब बेग़म अख़्तर थीं, अपने शौहर के साथ उनके घर मतीन मंज़िल में रहने लगीं। एक अच्छी बीवी और एक अच्छी बहू की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उन्होंने गाना छोड़ दिया। ” 

लेकिन बेग़म अख्तर ज्यादा दिनों तक संगीत से दूर नहीं रह पाईं। दोबारा गाना गाने की शर्त यह थी कि वह लखनऊ शहर के बाहर ही गाएंगी। यह शर्त उनके शौहर की थी। उन्होंने दोबारा गाना शुरू किया। वह आकाशवाणी, दूरदर्शन के कार्यक्रमों, दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और देश-विदेश में होनेवाले संगीत के कार्यक्रमों में गाने लगीं। एक बार बेग़म अख़्तर ने कहा था, “मैं  स्टेज ही तक आर्टिस्ट हूं घर में हूं सिर्फ बीवी।” 

बेग़म अख्तर पर जारी डाक टिकट, स्रोत: Wikimedia Commons
बेग़म अख्तर पर जारी डाक टिकट, स्रोत: Wikimedia Commons

बेग़म अख़्तर की शिष्या रहीं शान्ती हीरानंद यतीन्द्र मिश्र को दिए एक इंटरव्यू में बताती हैं कि उनकी दो तरह की शख्सियतें थीं। एक ही समय में दो किरदारों में रहना। एक तो वह आज़ाद रहना चाहती थीं, तो दूसरी तरफ़ घर में एक शरीफ़ बीवी की तरह रहना पसंद करती थीं। घर में हैं तो कुछ खाना पका रही हैं, बच्चों को देख रही हैं। अगर बाहर निकलीं, तो बिल्कुल आज़ाद ख़्याल सिगरेट पीनेवाली बेग़म अख़्तर, जिन्हें फिर गाने-बजाने की महफ़िलें रास आती थीं। 

पहली महिला उस्ताद जिन्होंने गंडा बांधकर सिखाना शुरू किया

उस समय संगीत गुरु के पद पर पुरुषों का अधिपत्य था। लेकिन बेग़म अख़्तर ने इस पद पर पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ा। उनकी शिष्या रही शान्ती हीरानंद उस दौर को याद करते हुए यतीन्द्र मिश्र को बताती हैं, “उन्होंने मेरा गंडा बांधा था साल 1957 या 58 में। मुझसे यह कहा गया कि आज से तुम बेग़म अख़्तर की शिष्या हो। वाकई मैं कितनी खुशनसीब थी कि बेग़म अख़्तर साहिबा की शिष्या होने का मुकाम हासिल हुआ। ” 

बेग़म अख्तर, तस्वीर साभार: Wikipedia
बेग़म अख्तर, तस्वीर साभार: Wikipedia

बेग़म अख़्तर की की एक और शागिर्द थीं अंजलि बैनर्जी। वह संगीत की दुनिया का एक चमकता सितारा थीं। बेग़म अख़्तर की बात हो और उनकी गायकी के रंग की चर्चा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। उनके गायन में अवध की पारंपरिक लोकधुन भी है। वह दादरा, ठुमरी, ख़्याल सब गाती थीं। वहीं, उर्दू की ग़ज़लों को गाकर उन्होंने ग़ज़ल गाने की परंपरा शुरू की। यहां पर एक किस्से का ज़िक्र ज़रूरी है। एक बार बेग़म अख़्तर बम्बई से लखनऊ लौट रही थीं। स्टेशन पर शकील बदायूंनी साहब आए और खिड़की से उन्होंने बेग़म को एक ग़ज़ल पकड़ा दी। रास्ते में बेग़म ने ग़ज़ल को एक बार पढ़ा और अपना बाजा निकाला। थोड़ी ही देर में उसकी धुन बना दी। यह ग़ज़ल थी- ‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’ 

ये कहानी थी उस शख्सियत की जिसने उस दुनिया में खुद के लिए एक खूबसूरत जगह बनाई जो औरतों को हमेशा दोयम दर्जे का मानती है। शान्ती हीरानंद बताती हैं, “जिस ज़माने में तवायफ़ों को इज़्ज़त की निगाह से नहीं देखा जाता था, उस दौर में बेग़म अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज़्ज़त दिलवाई। ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया।


स्रोत:

1- Akhtari : Soz Aur Saaz Ka Afsana

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