मध्यकालीन मानसिकता का प्रतिबिंब बताते हुए, बॉम्बे हाई कोर्ट ने बीते बुधवार को एक निचली अदालत के आदेश को खारिज कर दिया। निचली अदालत ने एक महिला की अपने रिश्तेदार की बेटी को गोद लेने की याचिका को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया था कि वह अकेली है और कामकाजी है, और इसलिए, बच्चे की ठीक से देखभाल नहीं कर पाएगी।
इस केस में, मध्य प्रदेश के इटारसी में रहने वाली एक तलाकशुदा महिला ने अगस्त 2020 में जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन) एक्ट के तहत अपने रिश्तेदार की एक साढ़े तीन साल की बच्ची को गोद लेने के लिए जलगांव जिले के भुसवाल में सक्षम अदालत का रुख किया था। बच्ची के माता-पिता इसी जगह के रहनेवाले थे। महिला ने भावी दत्तक माता (अडोप्टिव पैरेंट) के रूप में पंजीकरण कराने जैसी ज़रूरी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद अपने रिश्तेदार की बेटी को गोद लेने की इजाज़त मांगी थी।
महिला की याचिका के अनुसार, जिला बाल संरक्षण इकाई ने महिला के क्रेडेंशियल्स की पुष्टि करते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की और केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) ने पूर्व-अनुमोदन भी जारी किया। हालांकि, 8 मार्च, 2022 को सक्षम अदालत ने मुख्य रूप से इस आधार पर महिला की याचिका को खारिज कर दिया कि वह महिला अकेली थी और कामकाजी थी, और इसलिए, वह बच्चे पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान नहीं दे पाएगी। इसके साथ ही सक्षम अदालत ने यह भी कहा कि उस बच्ची की जैविक मां, जो कि एक गृहिणी है तो वह बच्ची की देखभाल करने के लिए बेहतर स्थिति में है।
निचली अदालत के इस आदेश के ख़िलाफ़ उक्त महिला और बच्ची के जैविक माता-पिता ने तब बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख किया था। मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस गौरी गोडसे की एकल न्यायाधीश की पीठ ने निचली अदालत की इस तुलना को पूरी तरह से निराधार पाया। जस्टिस गोडसे ने महिला की दलील को स्वीकार किया और उसे बच्ची का अडोप्टिव पैरेंट घोषित कर दिया। जस्टिस गौरी गोडसे ने अपना निर्णय देते समय टिप्पणी की कि सक्षम अदालत द्वारा पारित आदेश ‘मध्ययुगीन मानसिकता’ को दर्शाता है। जस्टिस गौरी ने कहा कि सक्षम अदालत द्वारा एक गृहिणी होने के नाते जैविक मां और एक कामकाजी महिला होने के नाते भावी गोद लेने वाली मां (एकल माता-पिता) के बीच की गई तुलना एक परिवार की मध्यकालीन रूढ़िवादी अवधारणाओं की मानसिकता को दर्शाती है।
समय के साथ-साथ भारतीय कानून बदलाव ला रहा है। कानून में हुई तब्दीली की वजह से भारतीय संस्कृति में भी काफी बदलाव देखे जा रहे हैं। ऐसा ही एक अच्छा बदलाव सिंगल पैरेंट अडॉप्शन है। गोद लेने के माध्यम से एकल अभिभावक बनने वाले व्यक्तियों के उदाहरण लगातार बढ़ रहे हैं।
हाई कोर्ट ने कहा कि “जब संविधि अकेले पैरेंट को अडोप्टिव पैरेंट होने के लिए मान्यता देती है, तो सक्षम न्यायालय का दृष्टिकोण कानून के उद्देश्य को ख़त्म करता है। आम तौर पर, एकल माता-पिता एक कामकाजी व्यक्ति होने के लिए बाध्य होते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। इस तरह, कल्पना की किसी भी सीमा तक, एक सिंगल पैरेंट को इस आधार पर अडोप्टिव पैरेंट होने के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है कि वह एक कामकाजी व्यक्ति है। इस तरह सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया कारण न केवल जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है, बल्कि जिला बाल कल्याण अधिकारी और कारा के सहायक निदेशक द्वारा की गई सिफारिशों के भी विपरीत है। सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया कारण निराधार है।
सिंगल पेरेंट कैसे ले सकते हैं गोद, क्या कहता है कानून
जुवेनाइल जस्टिस अधिनियम की धारा 57 भावी दत्तक माता-पिता की पात्रता मानदंड के बारे में बात करती है। धारा 57 की उपधारा (3) में एकल या तलाकशुदा व्यक्ति को बच्चा गोद लेने के लिए योग्य माना गया है। धारा 57 की उप धारा (1) में कहा गया है कि भावी अडोप्टिव पैरेंट को शारीरिक रूप से फिट, आर्थिक रूप से स्वस्थ, मानसिक रूप से सतर्क और बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए बच्चे को गोद लेने के लिए अत्यधिक प्रेरित होना चाहिए। इस केस में गोद लेने वाली महिला अधिनियम के तहत बनाए गए सभी मानदंडों को पूरा करती थी।
जस्टिस गौरी गोडसे ने अपना निर्णय देते समय टिप्पणी की कि सक्षम अदालत द्वारा पारित आदेश ‘मध्ययुगीन मानसिकता’ को दर्शाता है। जस्टिस गौरी ने कहा कि सक्षम अदालत द्वारा एक गृहिणी होने के नाते जैविक मां और एक कामकाजी महिला होने के नाते भावी गोद लेने वाली मां (एकल माता-पिता) के बीच की गई तुलना एक परिवार की मध्यकालीन रूढ़िवादी अवधारणाओं की मानसिकता को दर्शाती है।
हालांकि, सक्षम न्यायालय को यह सत्यापित करने की ज़रूरत थी कि गोद लेने की प्रक्रिया में क्या वैधानिक ज़रूरतों का पालन किया गया है और सभी कार्यवाही के रिकॉर्ड की जांच करने के बाद, एक राय बनानी चाहिए थी कि गोद लेने के लिए किया गया आवेदन बच्चे के हित में है या नहीं। लेकिन यहां सक्षम न्यायालय ने अनुमान लगाकर महिला के आवेदन को गलत तरीके से खारिज कर दिया।
गोद लेने की मानसिकता में बदलाव
समय के साथ-साथ भारतीय कानून बदलाव ला रहा है। कानून में हुई तब्दीली की वजह से भारतीय संस्कृति में भी काफी बदलाव देखे जा रहे हैं। ऐसा ही एक अच्छा बदलाव सिंगल पैरेंट अडॉप्शन है। गोद लेने के माध्यम से एकल अभिभावक बनने वाले व्यक्तियों के उदाहरण लगातार बढ़ रहे हैं। व्यक्तियों की एक बड़ी संख्या, दोनों एकल महिला और पुरुष, गोद लेने के लिए आगे आते दिखाई दे रहे हैं। दत्तक ग्रहण कार्यालय, जो पहले अविवाहित लोगों के खिलाफ एक मजबूत प्रवृत्ति दिखाते थे, अब उन्हें बेहतर माता-पिता के रूप में मानने लगे हैं।
प्रगतिशील कानून की भूमिका
साल 2017 में, CARA ने 40 वर्ष से अधिक आयु की आर्थिक रूप से सुरक्षित एकल महिलाओं के लिए तेजी से गोद लेने वाले प्रावधान, जिसमें औसतन दो साल लगते हैं, उसे संशोधित करके छह महीने का एक अलग प्रावधान बनाया। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि अधिक से अधिक एकल भारतीय महिलाएं गोद लेने के माध्यम से मां बनना चाह रही हैं। केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) के एक आरटीआई जवाब के अनुसार, भारत में गोद लेने वाली एकल महिलाओं के आवेदनों की संख्या 2017-2018 में 495 से बढ़कर 2018-2019 में 589 हो गई थी। CARA के 2017 के संशोधन के बाद से एकल कामकाजी महिलायें बच्चा पालने कि लिए अडॉप्शन को पसंद कर रही हैं। हालांकि उनके सामने कई बाधाएं हैं।
एकल महिलाओं के सामने चुनौतियां
वह समाज खासकर पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले लोग जो हमेशा एकल महिलाओं के अकेले रहने और अकेले बच्चा पालने के फैसले के खिलाफ रहता है। एकल महिलाएं जो कि गोद लेना चाहती हैं उनमें बहुत कम महिलाएं ऐसी हैं जिनके परिवारवाले उनका साथ देते हैं। ज़्यादातर महिलाओं के परिवारवाले उन्हें शादी करके बसता हुआ और उनका खुद का बच्चा पैदा करता देखना पसंद करते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में हर कोई बच्चे के पिता के बारे में पूछता है। इस तरह भारत में अधिकांश एकल माता-पिता द्वारा सम्मान की लड़ाई शुरू हो जाती है।
अडॉप्शन एजेसियां भी इस राह में एक रुकावट की तरह ही काम करती हैं। वैसे तो इन एजेंसियों का मुख्य काम है अडॉप्शन करनेवाले इच्छुक लोगों को सही दिशा देना और अडॉप्शन की प्रक्रिया को पूरा करना। एक कानून होने के बावजूद जहां भारत में एकल महिलाओं को गोद लेने की अनुमति है, देशभर में अभी भी कई एजेंसीज ऐसी हैं जो एकल महिलाओं के लिए इसे कठिन बनाते हैं। वे किसी न किसी रूप में प्रक्रियाओं को टालते रहते हैं।
भारत में सिंगल मदर की संख्या में हाल ही में वृद्धि हुई है क्योंकि सिंगल महिलाओं को गोद लेने की मुश्किलें काफी कम हो गई हैं। पुरानी मानसिकता जो यह कहती थी कि एक अकेली अविवाहित महिला अकेले बच्चे को नहीं पाल सकती है, गलत साबित होती दिख रही है। शिक्षित महिलाएं बच्चे के पालन-पोषण के आनंद लेने के लिए शादी को ज़रूरी नहीं समझती हैं।