“जितना सोना है सो ले, अगले घर जाएगी तब पता चलेगा नींद नाम की चिड़िया कहा फुर्र हो जाती है।” ये शब्द अक्सर अनीता की दादी उन्हें कहा करती थीं। रूढ़िवादी समाज में लैंगिक भूमिका की वजह से बचपन से ही छोटी लड़कियों को ये सीख दी जाती है कि जैसे-जैसे बड़ी होगी भरपूर नींद नहीं मिलेगी इसलिए अभी से कम सोने की आदत डाल लो। लैंगिक असमानता की वजह से नींद भी एक विशेषाधिकार है जिस तक हर किसी के लिए समान पहुंच नहीं है। भले ही बदलते दौर में महिलाएं आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त हुई हो लेकिन इसके बावजूद उनकी तय पारंपरिक भूमिका में कोई बदलाव नहीं आया है।
एक मनुष्य के स्वस्थ रहने के लिए हमेशा ये कहा जाता है कि भरपूर नींद लो लेकिन हम अक्सर दो महिलाओं को आपस में उनकी नींद पूरी न होने की बात सुनते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तमाम अध्ययन भी यह बात साफ करते हैं कि महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम सोने को मिलता है। यानी नींद सहित हमारे जीवन के हर क्षेत्र में लैंगिक अंतर मौजूद है। नींद में जेंडर गैप युवावस्था से शुरू होता है और उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह अंतर बढ़ता ही जाता है। कम सोना स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक है। भरपूर नींद इम्यून सिस्टम से लेकर याददाश्त तक को मजबूत करती है। वहीं नींद की कमी से शरीर में दिल से जुड़ी बीमारियों से लेकर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पैदा होती है।
शिक्षिका रह चुकी प्रीति शर्मा का कहना हैं, “जेंडर की बनायी भूमिका हमारी जीवन की हर छोटी से छोटी चीजों को प्रभावित करती है। मैं अगर अपने बारे में ही बात करूं तो पूरा जीवन हो गया है नींद के साथ समझौते करते हुए। मेरी शादी बहुत जल्दी हो गई थी कॉलेज पूरा भी नहीं हुआ कि ससुराल पहुंच गई। वहां जाने के बाद सारी चीजें बदल गई। मुझे याद है कि मैं घूंघट में आँख बंद करके बैठ जाती थी। नींद की झपकी जैसा तो कुछ नहीं होता था लेकिन आँखे बंद करके आराम मिलता था।
जेंडर द्वारा निर्धारित भूमिकाएं कैसे करती है नींद को प्रभावित
सांस्कृतिक और सामाजिक अपेक्षाएं महिलाओं के नींद के पैटर्न को प्रभावित करती हैं। महिलाओं पर देखभाल से जुड़े कामों का भार रहता है। बच्चों के हो या परिवार के सदस्यों की देखभाल करने का काम महिलाओं पर ही होता है। वे दूसरो की ज़रूरत को पूरा करने के लिए खुद की आवश्यकताओं और नींद का त्याग कर देती है। इतना ही नहीं सामाजिक दवाब की वजह से भी नींद पूरी करना एक चुनौती बन जाती है।
देर से उठने की वजह से किया जाता है जज
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मुजफ़्फ़रनगर जिले की रहने वाली उर्वशी का कहना है, “लड़कियों को ज्यादा नहीं सोना चाहिए ये तो हम बचपन से ही सुनते हैं। पढ़ते समय तो देर रात जागने पर दिन में या सुबह देर से उठने पर नींद पूरी की जाती थी लेकिन शादी के बाद तो समझो नींद ही गायब हो गई। पहले ससुराल में नये आये थे तो लगता था कि देर से आँख खुलेगी तो लोग क्या कहेंगे। ख़ासतौर से नई दुल्हन के देर से उठने को तो बुरी आदत मानते है। शुरुआत में सुबह साढ़े चार बजे उठ जाती थी भले ही कुछ काम न करना हो लेकिन जल्दी तैयार होकर रसोई में पहुंचना खुद की ड्यूटी बना ली थी। अब तो बच्चे हो गए है उनको स्कूल भेजना और काम करना इन सबके बीच खुद की नींद सीमित होती जा रही है। दोपहर को जो वक्त मिलता है उसमें में अपना सिलाई का काम करती हूं। जब सिलाई नहीं करती थी तो उस वक्त आराम करती थी लेकिन अब ये भी खत्म हो गया है। सारा दिन ऐसे ही बीत जाता है। सच कहूं तो जिम्मेदारियों की वजह से नींद को लेकर कितने समझौते किए हैं ये आपके सवाल पूछने के बाद उमड़ पड़े हैं।”
पूरा जीवन बीत गया नींद के साथ समझौते करते हुए
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शिक्षिका रह चुकी प्रीति शर्मा का कहना हैं, “जेंडर की बनायी भूमिका हमारी जीवन की हर छोटी से छोटी चीजों को प्रभावित करती है। मैं अगर अपने बारे में ही बात करूं तो पूरा जीवन हो गया है नींद के साथ समझौते करते हुए। मेरी शादी बहुत जल्दी हो गई थी कॉलेज पूरा भी नहीं हुआ कि ससुराल पहुंच गई। वहां जाने के बाद सारी चीजें बदल गई। मुझे याद है कि मैं घूंघट में आँख बंद करके बैठ जाती थी। नींद की झपकी जैसा तो कुछ नहीं होता था लेकिन आँखे बंद करके आराम मिलता था। उसके बाद वक्त बीत गया नौकरी भी की, बच्चे भी संभाले आज उनके भी बच्चे संभाल रहे हैं। इन सबके बीच अपनी आराम, अपनी नींद दूसरे नंबर होती है। घर में सबसे पहले कौन उठता है। किसी को बाहर जाना है तो हमें उनसे पहले जागना है, नौकरी पर आदमी जाएं तो भी औरतों को जागकर सारी तैयारी करनी होती है।”
प्रीती आगे कहती हैं, “घर में कोई आता है तो कौन उठता है चाहे कितनी ही गहरी नींद क्यों न हो, आदर-सत्कार में एकदम जुट जाते हैं। ये कहने को छोटी चीजें लगती हैं लेकिन इन सब चीजों का बहुत बुरा असर पड़ता है। नौकरी करने के दौरान मैंने हमेशा अपने अंदर काम के मैनेजमेंट को लेकर उथल-पुथल महसूस की है। रविवार का दिन सब लोगों के लिए देर से उठने का होता था लेकिन मैंने सवेरे उठकर हफ्ते के पेडिंग कामों को पूरा करने पर बिताया है। यही होता है छुट्टी के दिन देर तक सोना बाकी लोगों के लिए हो सकता है लेकिन हम औरतों के लिए वह समय भी चुपचाप काम खत्म करने में बीतता है क्योंकि उस दिन रसोई में काम बढ़ जाता है। बच्चे तो माँ-बाप दोनों के होते हैं लेकिन उसे रात में जागकर पालने का काम तो माँ ही करती है। इस तरह इन सारी जिम्मेदारियों से पूरी तरह हमारी नींद पर असर पड़ता है।”
मुझे तो सोना बहुत पसंद है
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मुजफ़्फ़रनगर की रहने वाली अनीता का कहना है, “मुझे तो बहुत नींद आती थी आज भी आती है। लेकिन हां जैसे ही शादी हुई तो चीजें बदल जाती हैं। मेरे पति की नौकरी शिफ्ट वाली रही है तो उन्हें कई बार रात में देर से आना-जाना होता था। इस वजह से शुरू में मुझे बहुत परेशानी होती थी। आपको दिन में भी समय नहीं मिलता है। जैसे-जैसे जीवन में जिम्मेदारियां आती गई तो पूरा रूटीन वैसे भी बदल गया। मुझे याद है मेरी दादी मुझसे हमेशा कहती थी कि जितना सोना है सो ले, अगले घर जाएगी तब पता चलेगा नींद नाम की चिड़िया कहां फुर्र हो जाती है। मैं उनसे कहती थी कि मैं तो वहां भी अपनी मर्जी से रहूंगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है। परिवार, बच्चों के साथ हमें ही बदलना होता है। आज में पांच बजे उठ जाती हूं। सात बजे तक टिफिन तैयार कर देती हूं। बच्चे छोटे हैं उन्हें भी स्कूल के लिए तैयार करना होता है वह भी कर देती हूं। हां लेकिन मैं जल्दी सोती हूं। मुझे देर रात तक जागना अभी भी पसंद नहीं है। बल्कि अगर मैं पूरी नींद नहीं लेती हूं तो चिड़चिड़ी हो जाती हूं मेरे सिर में बहुत जल्दी दर्द होता है। चाहे कुछ भी हो अब मैं इस बात का ध्यान रखती हूं इस वजह से जल्दी सोती हूं।”
महिलाएं प्रति रात तीन घंटे कम लेती हैं नींद
दुनिया भर हुए कई अध्ययनों में यह स्पष्ट हो चुका है कि महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कम सोती हैं। साल 2019 में यूनाइटेड किंगडम में हुए एक सर्वे के अनुसार महिलाओं को पुरुषों की तुलना के प्रति रात तीन घंटे कम नींद आती है और आधे लोगों ने तो लगातार नींद की कमी महसूस होना बताया। महिलाएं चाहे कामकाजी हो या घरेलू लैंगिक भूमिकाओं की वजह से सभी को नींद की कमी के साथ जीवन जीना पड़ता है। अमेरिकन एकेडमी ऑफ न्यूरोलॉजी के एक अध्ययन के मुताबिक जो महिलाएं बच्चों के साथ रहती हैं वे प्रति रात पुरुष के मुकाबले कम सोती हैं। एक लेख में प्रकाशित जानकारी के मुताबिक़ जॉर्जिया साउथर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने विश्लेषण में पाया कि 45 साल की उम्र तक की 48 फीसदी माँए सात घंटे से भी कम समय की नींद लेती हैं। बिना बच्चों के रहने वाली लगभग 62 फीसदी महिलाओं में भी नींद की कमी देखी गई। कुल मिलाकर नतीजा यही निकलता है कि काम और परिवार में महिलाओं की स्थिति की वजह से उन्हें नींद में असमानता का सामना करना पड़ता है।
नैशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉरमेशन ने जेंडर और नींद के पैटर्न पर शोध किया है। एनसीबीआई के मुताबिक़ नींद के लिए समय लिंग, उम्र, वेतन और अवैतनिक काम में बिताए गए समय से भी तय होता है। महिलाओं के ऊपर जब अवैतनिक काम का भार बढ़ता है उनकी नींद सबसे पहले प्रभावित होती है। नींद के कम होने से ही स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। स्लीप फाउंडेशन में प्रकाशित जानकारी के मुताबिक़ पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अनिद्रा की समस्या ज्यादा होती है। महिलाओं में अनिद्रा स्लीप डिसऑर्डर होने का 40 प्रतिशत अधिक जोखिम रहता है।
मजदूर महिलाओं का संघर्ष और अधिक है
दुनिया भर में महिलाओं और पुरुषों के बीच नींद में अंतर (स्लीप गैप) है। इसकी मुख्य वजह भुगतान और अवैतनिक श्रम का असमान वितरण है। लेकिन इसमें महिलाएं अपनी वर्ग, समूह और क्षेत्रीयता के आधार पर भी नींद में असमानता का सामना करती है। विशेषाधिकार और शहरी क्षेत्र की महिलाएं भले ही जागरूक होकर नींद की कमी और उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को जानती है। लेकिन पूरी नींद तक पहुंच केवल सीमित सम्पन्न वर्ग तक ही है। आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त महिलाएं भी किसी अन्य हाशिये पर रहने को मजबूर महिला के श्रम की बदौलत यह उपलब्धि हासिल कर पाती है। घरेलू कामगार के तौर पर इस वर्ग की महिलाएं रसोई और साफ-सफाई के काम में उनकी मदद लेती है जिस वजह से उनके ऊपर से घरेलू काम का भार कम होता है।
मजदूरी, कठोर शारीरिक काम या घरेलू कामगार के तौर पर काम करने वाली महिलाएं गरीबी, कम वेतन और असुविधाओं भरे जीवन में घंटो काम करती हैं। घर और बाहर दोनों जगह कड़ी मेहनत के बीच ये महिलाएं बहुत सीमित नींद लेती हैं। इंटरनैशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक़ आधिकारिक तौर पर देश में लगभग तीन मिलियन से भी अधिक महिलाएं घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं। हालांकि वास्तविक तौर पर यह संख्या बहुत बड़ी है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं के ऊपर घर के काम के अलावा पशुपालन और खेती से जुड़े कामों का भार भी होता है। जिस वजह से वे सवेरे जल्दी ऊठकर अपने काम में लग जाती है। गाँव-घरों में पशुओं को चारे और दूध निकालने के लिए महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी सवेरे चार बजे उठती आ रही हैं। इतना ही नहीं मशीनों और सुविधाओं के अभाव की वजह से भी गांव में औरतें ज्यादातर काम हाथों और पारंपरिक तरीकों से ही करती है। इस वजह से उनके किसी भी काम को पूरा करने में ज्यादा समय लगता है।
मुजफ़्फ़रनगर की रहने वाली अनीता का कहना है, “मुझे तो बहुत नींद आती थी आज भी आती है। लेकिन हां जैसे ही शादी हुई तो चीजें बदल जाती हैं। मेरे पति की नौकरी शिफ्ट वाली रही है तो उन्हें कई बार रात में देर से आना-जाना होता था। इस वजह से शुरू में मुझे बहुत परेशानी होती थी। आपको दिन में भी समय नहीं मिलता है। जैसे-जैसे जीवन में जिम्मेदारियां आती गई तो पूरा रूटीन वैसे भी बदल गया। मुझे याद है मेरी दादी मुझसे हमेशा कहती थी कि जितना सोना है सो ले, अगले घर जाएगी तब पता चलेगा नींद नाम की चिड़िया कहां फुर्र हो जाती है।
महिलाओं की आबादी का बड़ा हिस्सा नींद की महत्वता से अंजान है। काम को जिम्मेदारी के रूप में सौंपने के चलन की वजह से वे अपनी नींद और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को सहन कर रही है। मन न होने की वजह भी रोज उसी दिनचर्या में लग जाती है। इस लेख के दौरान बातचीत में शामिल सारी महिलाओं का मानना हैं कि घर और परिवार की जिम्मेदारी की वजह से उनकी नींद प्रभावित होती है और इस वजह से उन्होंने अपना नींद का पैटर्न बदला है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को लगभग 20 मिनट अधिक सोने की आवश्यकता है क्योंकि महिला मस्तिष्क दिन के दौरान ज्यादा कठिन काम करता है।
स्लीप गैप यानी नींद में अंतर एक समस्या है लेकिन फिर भी इस पर पर्याप्त चर्चा नहीं है। यह दिखने में सामान्य लग सकती है लेकिन वास्तव में बहुत गंभीर विषय है। नींद का हमारे शरीर में बहुत महत्व है लेकिन दुनिया की आबादी का आधा हिस्सा महज अपनी लैंगिक पहचान की वजह से वंछित है। यह एक मनुष्य का जीवनशैली को पूरी तरह प्रभावित करती है। महिलाओं की जैविक शारीरिक बनावट और शरीर में होने वाले हार्मोनल बदलावों की वजह से उन्हें आराम और एक बेहतर नींद की बहुत आवश्यकता है।