इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत हाशिये की कहानियां: सुभावती को अवसरों से दूर करता जातिगत भेदभाव और घर के काम का बोझ

हाशिये की कहानियां: सुभावती को अवसरों से दूर करता जातिगत भेदभाव और घर के काम का बोझ

हिंसा, भेदभाव और अपने मौलिक अधिकारों से दूर सुभावती की ज़िंदगी हर दिन एक किसी नए संघर्ष से कम नहीं है। इन सबके बीच आज जब वह अपनी बस्ती में पाठशाला से जुड़ने के भी रास्ते में चलने की कोशिश कर रही है तो इसके लिए उसे उसके सामने सबसे पहले उठकर अपने हिस्से का काम ख़त्म करने का दबाव है।

एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह पहली कहानी है सुभावती की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।

कोहरे की धुंध, सुबह के पांच बज रहे हैं। इस धुंध के बीच में बर्तन धोने की आवाज़ आ रही है। एक मिट्टी की झोपड़ी के बाहर पत्थर पर बैठकर पंद्रह-सोलह साल की एक लड़की बर्तन धो रही है। उसकी झोपड़ी का दरवाज़ा आधा बंद है, देखकर मालूम होता है कि उसके परिवार के बाक़ी सदस्य अंदर सो रहे है। यह झोपड़ी खरगूपुर गाँव की मुसहर बस्ती में है, जो उत्तर प्रदेश के बनारस ज़िले के सेवापुरी ब्लॉक का एक गाँव है। लेकिन इस गाँव की अन्य जाति की बस्तियां इस बस्ती से दूर है, क्योंकि ये बस्ती मुसहर जाति के लोगों की बस्ती है।

मुसहर समुदाय के लोगों की परछाई तक गाँव की अन्य जाति के लोगों पर न पड़े, इसलिए उन्हें गाँव के अंदर अपनी झोपड़ी बनाने की इजाज़त नहीं है। यूं तो कहने को अब समय बदल गया है, लेकिन इस बस्ती के लिए अभी भी कुछ ख़ास नहीं बदला है। इस गाँव की सड़क योजना मुसहर बस्ती शुरू होते ही ख़त्म हो जाती है। ऐसा क्यों समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। इसका मूल कारण है, इस बस्ती में रहनेवाले लोगों की जाति।

इसी बस्ती की रहनेवाली है पंद्रह वर्षीय सुभावती। वह बारहों महीने घर का सारा काम संभालती है। स्कूल जाने की उम्र में सुभावती सुबह आँख खोलते ही रात के जूठे बर्तन साफ़ करके जल्दी-जल्दी खाना बनाने में जुट जाती है, ताकि उसके चाचा के काम पर जाने से पहले खाना तैयार हो जाए। दोपहर का पूरा वक्त सुभावती का चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी चुनने में चला जाता है। वह मीलों दूर बगीचे में पेड़ से गिरी सूखी लकड़ी चुनने जाती है और शाम तक अपने सिर पर लड़की का बोझा लेकर वापस आती है।

अनपेड हाउसहोल्ड वर्क और जातिगत हिंसा के तले, सुभावती के सपने और अवसर का दमन

सुभावती के लिए लकड़ी लाना किसी संघर्ष से कम नहीं है। इस दौरान उसे कई तरह की हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसके बारे में बताते हुए वह कहती है, “जब भी मैं लड़की लेने बगीचों में जाती हूं तो बगीचों के मालिक गंदी-गंदी जातिसूचक गाली देकर भगाते हैं। कई बार डंडा लेकर दौड़ाते भी हैं। इसके बाद अगर कभी दूर के बगीचों में जाओ में तो वहां लड़के परेशान करते हैं। यौन शोषण करने की बात करते हैं।”

चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी चुनकर लाती सुभावती।

जब भी जाति का वार महिलाओं पर होता है तो उन पर होनेवाली हिंसा का रूप उतना ही ज़्यादा वीभत्स होता है। उन्हें हर पायदान पर हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उससे सुरक्षा के लिए जब समाज नियम बनाता है तो उसमें भी वह महिलाओं के अधिकार, विकास और गतिशीलता पर शिकंजा कसता है। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरों के आंकड़ों के मुताबिक अनुसूचित जातियों के साथ अपराध के मामलों में साल 2019 में 7.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। जहां साल 2018 में 42,793 मामले दर्ज हुए थे वहीं, साल 2019 में 45,935 मामले सामने आए। इनमें सामान्य मारपीट के 13,273 मामले, अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) क़ानून के तहत 4,129 मामले और रेप के 3,486 मामले दर्ज हुए हैं। राज्यों में सबसे ज़्यादा मामले 2378 उत्तर प्रदेश में और सबसे कम एक मामला मध्य प्रदेश में दर्ज किया गया।

कहने को अक्सर बेहद आसानी यह कहा जाता है कि अब जात-पात के आधार पर भेदभाव नहीं होता है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इसके ठीक विपरीत है, जहां आज भी गाँव की बस्तियां वहां रहनेवाले लोगों की जाति के नाम से जानी जाती है। गाँव की यह व्यवस्था सदियों से जाति के आधार पर बनाई गई है, जो आज भी क़ायम है। ऐसे में जब बात जातिगत समीकरण में भी सबसे निचले पायदान की मुसहर जाति पर आती है तो यह कहना बेहद मुश्किल हो जाता है कि जातिगत हिंसा के तहत दर्ज़ किए गए इन आंकड़ों में कितने प्रतिशत मुसहर जाति की महिलाओं के साथ हुई हिंसा और भेदभाव के केस हैं। यह हिंसा और भेदभाव सुभावती जैसी न जाने कितनी किशोरियों और युवा महिलाओं के विकास के अवसर तक उनकी पहुंच को सीमित करता है। साथ ही बाल-विवाह जैसी अलग-अलग तरह की कुरीतियों के रूप में उनके जीवन को और अधिक चुनौतीपूर्ण बनाता है।

सुभावती की थकान पर बात करने के लिए परिवार में कोई स्पेस नहीं है क्योंकि वह लड़की है। इसलिए उसे काम करते रहना है। आमतौर पर जब हम बाल-मज़दूरी की बात करते हैं तो हमेशा बच्चों को घर से इतर कहीं बाहर जाकर काम करने को अपराध मानते हैं। लेकिन जब बात लड़कियों के संदर्भ में आती है तो बाल मज़दूरी का स्वरूप बदल जाता है, जिसमें लड़कियों के ऊपर घर के काम का बोझ बचपन से ही डाल दिया जाता है।

सुभावती से जब मैंने बात की तो उसने अपने परिवार के बारे में कहती हैं, “जब मैं सात-आठ साल की थी तब मेरे पिता की पेड़ से गिरकर मौत हो गई। मेरी तीन बहनें और दो भाई हैं। बड़ी बहन की शादी बहुत छोटी उम्र में कर दी गई थी। पिता की मौत के बाद मेरी माँ की शादी मेरे चाचा से करवा दी गई। वह बहुत दारू पीते और हमलोगों के साथ बुरी तरह मारपीट करते। मुझे अच्छे से याद है कि मैं दस साल की थी, जब एकबार खाना बनाने में देरी होने पर मेरे चाचा ने मुझे बुरी तरह मारा। एक़बार उन्होंने मेरा चेहरा चूल्हे की तरफ़ ढकेल दिया था। तब से मैं उनसे बहुत डरने लगी। मेरा एक भाई दिल्ली में मज़दूरी करता है और बाकी बहनें और भाई बस्ती में ही मुहीम संस्था की पाठशाला में पढ़ाई कर रहे हैं। मैं भी अब रोज़ पाठशाला में पढ़ने जाती हूं। लेकिन इसके लिए मुझे बहुत जल्दी उठना पड़ता है, जिससे समय से खाना बनाकर मैं पढ़ने जा सकूं।”

घर के सारे काम की ज़िम्मेदारी सुभावती की है। खाना बनाना, बर्तन धोना, चूल्हे के लिए लकड़ी लाना और खेती के मौसम में मज़दूरी करने जाना। लेकिन उसकी थकान पर बात करने के लिए परिवार में कोई स्पेस नहीं है क्योंकि वह लड़की है। इसलिए उसे काम करते रहना है। आमतौर पर जब हम बाल-मज़दूरी की बात करते हैं तो हमेशा बच्चों को घर से इतर कहीं बाहर जाकर काम करने को अपराध मानते हैं। लेकिन जब बात लड़कियों के संदर्भ में आती है तो बाल मज़दूरी का स्वरूप बदल जाता है, जिसमें लड़कियों के ऊपर घर के काम का बोझ बचपन से ही डाल दिया जाता है।

पढ़ने-लिखने की उम्र में उनके हाथ में चूल्हे-चौके का काम सौंप दिया जाता है और फिर धीरे-धीरे वे शिक्षा के बुनियादी अवसर से इस कदर दूर होती चली जाती हैं कि एक समय के बाद न तो उनके पास कोई सपने होते है और न ही कोई उम्मीद। सुभावती भी उन्हीं लड़कियों में से एक है, जिस पर बचपन से घर के काम बोझ डाल दिया और वह कभी अपने बारे में सोच भी पाए इसका ज़रा भी वक्त नहीं दिया गया। घर के काम में थोड़ी भी देरी होने पर उसके साथ शारीरिक हिंसा की जाती है।

सुभावती से जब मैंने उसके सपने के बारे में पूछा तो उसका चेहरा एकदम से खिल उठा और उसने तुरंत ज़वाब दिया, “अगर हमें मौक़ा मिले तो हम पहले ख़ूब पढ़ेंगे फिर डॉक्टर बनेंगे। हमको पढ़ना अच्छा लगता है और पढ़े-लिखे लोग अच्छे से रहते हैं, उनकी जल्दी शादी नहीं होती है। तब हो सकता है सब ठीक हो जाए।”

अब हम इसे संयोग कहें या विडंबना कि घरेलू काम को आजकल अनपेड वर्क के तौर पर ख़ूब चर्चा में लाया जा रहा है। इसमें महिलाओं के आर्थिक अधिकार की बात हो रही है। लेकिन वहीं इस अवैतनिक घरेलू श्रम में लड़कियों को थोपने और उन्हें उनके अधिकार और विकास के अवसर से दूर करने की समस्या पर चर्चा बहुत सीमित है। ऐसी स्थिति में सुभावती जैसी कई लड़कियां जो ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी स्कूल जाने की उम्र में घर के कामों में लगा दी गई हैं, उनकी गिनती न तो बाल मज़दूरी में होती है न महिलाओं के अवैतनिक घरेलू श्रम में।

सुभावती का एक सपना

सुभावती से जब मैंने उसके सपने के बारे में पूछा तो उसका चेहरा एकदम से खिल उठा और उसने तुरंत ज़वाब दिया, “अगर हमें मौक़ा मिले तो हम पहले ख़ूब पढ़ेंगे फिर डॉक्टर बनेंगे। हमको पढ़ना अच्छा लगता है और पढ़े-लिखे लोग अच्छे से रहते हैं, उनकी जल्दी शादी नहीं होती है। तब हो सकता है सब ठीक हो जाए।” सुभावती को आजतक स्कूल में पढ़ने का कोई मौक़ा नहीं मिला, ऐसे में उसके डॉक्टर बनने का सपना पूरा हो पाना बेहद मुश्किल लगता है। बेशक सपने की कोई जाति या क़द नहीं होता है पर सपनों को पूरा करने के लिए धरातल का होना ज़रूरी हो जाता है, जो सुभावती के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है।

हिंसा, भेदभाव और अपने मौलिक अधिकारों से दूर सुभावती की ज़िंदगी हर दिन एक किसी नए संघर्ष से कम नहीं है। इन सबके बीच आज जब वह अपनी बस्ती में पाठशाला से जुड़ने के भी रास्ते में चलने की कोशिश कर रही है तो इसके लिए उसे उसके सामने सबसे पहले उठकर अपने हिस्से का काम ख़त्म करने का दबाव है। उसे यह बात अच्छे से पता है कि ‘समाज में उसके कामों की लिस्ट एकदम तय है जहां उसके सपनों और अधिकारों की कोई जगह नहीं है। इन सबके बावजूद सुभावती खुद के अधिकारों के लिए लगातार कोशिश कर रही है, जो छोटी ही सही एक उम्मीद जगाती है।


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