इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत हाशिये की कहानियां: मानसिक विकलांगता से जूझती गुंजा के लिए शिक्षा बन रही नयी राह

हाशिये की कहानियां: मानसिक विकलांगता से जूझती गुंजा के लिए शिक्षा बन रही नयी राह

बीते तीन सालों से बस्ती में चलने वाली पाठशाला में गुंजा हिस्सा ले रही है। जब मैंने पाठशाला की टीचर माधुरी से गुंजा को लेकर बात की तो उन्होंने उसके बारे में बताया, "जब हमलोगों ने बस्ती में पढ़ाना शुरू किया था तब गुंजा पढ़ने नहीं आती थी, पर दूर खड़ी होकर वो रोज़ क्लास को देखती थी। क्लास में और भी लड़कियाँ पढ़ने आती जो कभी स्कूल नहीं गयी। साथ मिलकर वो अलग-अलग खेल के माध्यम से सीखती, ये सब देखकर क़रीब दो हफ़्ते बाद से गुंजा ने पाठशाला में आना शुरू किया।"

एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह तीसरी कहानी है गुंजा की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।

सुबह के चार बजे हैं। अभी चारों तरफ़ अंधेरा ही है। बस्ती में चारों तरफ़ सन्नाटा है। पर कुछ-कुछ घरों में बर्तन साफ़ करने और झाड़ू लगाने की आवाज़ आने लगी है। गुंजा की माँ ने उसे रोज़ की तरह अधूरी नींद से उठाकर बर्तन धोने के लिए कहा है। अब ग़ुस्से भरे चेहरे के साथ गुंजा अपनी झोपड़ी के सामने कोने पर बर्तन धोने की जगह पर बैठकर बर्तन साफ़ करने में लग गई है।

बर्तन साफ़ करते हुए वो धीमी-धीमी आवाज़ में बड़बड़ा रही है कि ‘आधी रात तक घर के काम के लिए पानी भरकर रखो। उसके बाद रात में उठकर बर्तन धुलो।‘ गुंजा का ग़ुस्सा जायज़ भी है, क्योंकि उसे हर रात में सोने से पहले अपनी झोपड़ी के सामने सुबह बर्तन धोने और खाना पकाने के लिए पानी लाकर रखना ही पड़ता है, जिससे सुबह उठते ही वो बर्तन साफ़ करके खाना पकाने की तैयारी कर सके।

पंद्रह वर्षीय गुंजा वाराणसी ज़िले के सेवापुरी ब्लॉक के तेंदुई गाँव की रहने वाली है। मुसहर जाति के परिवार में जन्मी गुंजा को बचपन से ही मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी विकलांगता है, जिसकी वजह से उसे स्पष्ट बोलने और समझने में काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। गुंजा के परिवार में उसके माता-पिता, भाई-भाभी और दो बहन है। परिवार में भाई और पिता मज़दूरी का काम करते है, जिससे पूरे परिवार का पेट पलता है।

गुंजा का मानसिक स्वास्थ्य, सुरक्षा के नामपर पाबंदी और काम का बोझ

गुंजा की मानसिक स्थिति की वजह से उसके परिवार वाले उसे कभी भी घर से बाहर नहीं जाने देते है। यही वजह है कि गुंजा कभी स्कूल नहीं गयी। इतना ही नहीं, बस्ती में भी उसकी सुरक्षा के नामपर उसे ज़्यादा कहीं भी आने-जाने की छूट नहीं है। लेकिन इन पाबंदियों के बावजूद गुंजा पर घर के काम की ज़िम्मेदारी पूरी है। घर में बर्तन साफ़ करने, झाड़ू लगाने, पानी लाने जैसे कई काम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी गुंजा की है। उसके लिए दिनभर का काम करने की पूरी नियमावली है या यों कहें कि गुंजा के सारे काम बक़ायदा तय है, उसमें उसकी मर्ज़ी हो या न हो, उससे कोई मतलब नहीं है।

यह पितृसत्ता का वीभत्स रूप है जो किशोरियों को उनके अधिकार और बेहतर स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं से दूर कर अपने मतलब के काम उनसे करवाने में विश्वास करता है, जिसका प्रयोग सदियों से हमारे समाज में किया जाता रहा है। गुंजा भी उसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत अपने लिए परिवार की तरफ़ से तय किए गए कामों को पूरा करने के लिए बाध्य है। चूँकि परिवार के अनुसार, गुंजा का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है इसलिए उसे खाना बनाने, कहीं आने-जाने जैसे कामों से दूर रखा जाता है। लेकिन पानी लाने, बर्तन और घर साफ़ करने जैसे काम में उसका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है।

गुंजा के बढ़ते कदम शिक्षा की ओर

बीते तीन सालों से बस्ती में चलने वाली पाठशाला में गुंजा हिस्सा ले रही है। जब मैंने पाठशाला की टीचर माधुरी से गुंजा को लेकर बात की तो उन्होंने उसके बारे में बताया, “जब हमलोगों ने बस्ती में पढ़ाना शुरू किया था तब गुंजा पढ़ने नहीं आती थी, पर दूर खड़ी होकर वो रोज़ क्लास को देखती थी। क्लास में और भी लड़कियाँ पढ़ने आती जो कभी स्कूल नहीं गयी। साथ मिलकर वो अलग-अलग खेल के माध्यम से सीखती, ये सब देखकर क़रीब दो हफ़्ते बाद से गुंजा ने पाठशाला में आना शुरू किया।”

मुझे आज भी याद है कि जब गुंजा पढ़ने के लिए आती थी तो शुरुआती दिनों में वो एकदम शांत रहती। उसके बाल और कपड़े बिखरे रहते। उससे कुछ भी कहो तो ज़वाब नहीं देती। पर धीरे-धीरे उसमें कई सारे बदलाव देखने को मिले। अब गुंजा रोज़ अपने बालों की चोटी बनाकर, तैयार होकर और अपने एक झोले के साथ पढ़ने आती है। हर सवाल में सबसे पहले हाथ खड़े करते है और इतना ही नहीं हर मीटिंग-कार्यक्रम में वो हिस्सा लेती है। अपनी बातें साफ़ शब्दों एम कहती है। और सबसे अच्छी बात जो मुझे प्रेरणा देती है कि – गुंजा ने आजतक पाठशाला की कोई क्लास मिस नहीं की।‘

जाति, जेंडर और मानसिक स्वास्थ्य

गुंजा को लेकर टीचर की ये बातें इसबात की तरफ़ इशारा करती है कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को लेकर जब हम एक समावेशी दृष्टिकोण से पहल करते है तो न केवल बदलाव संभव होता है, बल्कि हम स्वास्थ्य अधिकारों को सुनिश्चित करने के रास्ते पर चलना भी शुरू करते है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (निम्हंस) ने साल 2016 में देश के 12 राज्यों में एक सर्वेक्षण करवाया था, जिसके बाद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कई चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। आंकड़ों के मुताबिक आबादी का 2.7 फ़ीसद हिस्सा डिप्रेशन जैसे कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर से ग्रसित है।

वहीं, 5.2 फ़ीसद आबादी कभी न कभी इस तरह की समस्या से ग्रसित हुई है। इसी सर्वेक्षण से एक अंदाजा ये भी निकाला गया कि भारत के 15 करोड़ लोगों को किसी न किसी मानसिक समस्या की वजह से तत्काल डॉक्टरी मदद की ज़रूरत है। इस संदर्भ में साइंस मेडिकल जर्नल लैनसेट की साल 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10 ज़रूरतमंद लोगों में से सिर्फ़ एक व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं पर डॉक्टरी मदद मिलती है। इन आँकड़ों से साफ़ है कि भारत में मानसिक समस्या से ग्रसित लोगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और आने वाले दस सालों में दुनियाभर के मानसिक समस्याओं से ग्रसित लोगों की एक तिहाई संख्या भारतीयों की हो सकती है। ऐसे में जब हम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को हाशिएबद्ध समुदाय से जोड़कर समझने की कोशिश करते है तो मानसिक स्वास्थ्य और जाति का संबंध भी साफ़ दिखाई देने लगता है।  

न्यूज़ क्लिक में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, साल 2015 में हुआ एक विश्लेषण बताता है कि हाशिएबद्ध जातियां लंबे समय तक रहने वाली बीमारियों, ख़ासतौर पर मानसिक स्वास्थ्य की बीमारियों के प्रति अतिसंवेदनशील रहती हैं। इसके अतिरिक्त, तेज़ी से पूंजीवादी होते समाज में, जहाँ अन्याय लगातार बढ़ रहा है, वहाँ मानसिक स्वास्थ्य को आसानी से सहयोजित कर बेचा जा रहा है, जिसे कुछ लोगों ने ‘मैकमाइंडफ़ुलनेस’ का नाम दिया है।

वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक़, कम आमदनी वाले ज़्यादातर समुदाय ऐतिहासिक तौर पर उत्पीड़ित समूहों से आते हैं जो अपने मानसिक स्वास्थ्य का बहुत कम ध्यान रख पाते हैं। इसलिए उनके पास स्वास्थ्य मुश्किलों को कम करने वाले प्रभावशाली संसाधन नहीं रहते हैं। यहाँ तक कि उच्च शिक्षा पाने और वेल-प्लेस्ड दलितों की भी ऐसी स्वास्थ्य सेवा और थेरेपी तक पहुँच नहीं है, जिसकी जड़ें हमारी सामाजिक-आर्थिक हक़ीक़तों में हैं। हाशिएबद्ध समुदाय में भी जब हम दलित समुदाय की परतों को खोलते है तो उसके सबसे निचले पायदान पर आज भी मुसहर जाति को पाते है, जहां आज भी समुदाय के लोग अपने बुनियादी मौलिक अधिकारों से दूर जीवन गुज़ारने को मजबूर है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं तक उनकी पहुँच की कल्पना भी कोरी लगती है।

जब हम मानसिक स्वास्थ्य के साथ जाति के संबंध को देखते है तो इसमें जेंडर के संबंध पर बात भी ज़रूरी हो जाती है। क्योंकि गुंजा मुसहर समुदाय से ताल्लुक़ रखती है, इसलिए उसकी बस्ती में मानसिक स्वास्थ्य को किसी भी तरह की जागरूकता का अभाव है, जिसकी वजह से उसके मानसिक स्वास्थ्य पर कोई भी ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझता। वहीं दूसरी ओर, मानसिक स्वास्थ्य पर चलायी जाने वाली योजनाएँ भी हर गाँव के बाहरी हिस्सों में बसाए गए मुसहर समुदाय की गलियों में जाना ज़रूरी नहीं समझती है। साथ ही, मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा महिलाओं से जुड़ा होतो उसे और भी ज़्यादा नज़रंदाज़ कर उनके साथ अलग-अलग तरह की हिंसा होने की संभावना कई गुना ज़्यादा बढ़ जाती है। कई बार हिंसा से सुरक्षा के नामपर भी महिलाओं के साथ अलग-अलग तरह की हिंसा की जाती है, जैसा गुंजा को घर के काम के दबाव के रूप में झेलना पड़ रहा है।

गुंजा का सपना, बदलाव की एक उम्मीद

समुदायस्तर पर ये हमारे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचे से जुड़ी चुनौतियाँ है, जिसका सामना गुंजा कर रही है। लेकिन इन सबके बीच जब गुंजा से उसके सपने के बारे में बात करने पर वो कहती है कि ‘मैं टीचर बनना चाहती हूँ, इसलिए रोज़ पढ़ने आती हूँ।‘ तो उसकी ये बात उम्मीद जगाती है और समुदाय में बदलाव का एक जीवंत उदाहरण भी सामने रखती है कि मानसिक स्वास्थ्य और विकलांगता के मुद्दे को अगर हम नॉर्मल बनाने की बजाय जनरल बनाने की दिशा में पहल करने और समावेशी दृष्टिकोण से अपने रास्ते को प्लान करें तो बदलाव संभव है। वो शिक्षा ही हैं जो आज गुंजा को अपनी बस्ती की अन्य लड़कियों और बच्चों के साथ जुड़कर सीखने और कहीं आने-जाने का मज़बूत साधन बन चुकी है।  


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